सुप्रीम कोर्ट ने पिछले कुछ वर्षों में सामाजिक न्याय को ठंडे बस्ते में डाल दिया हैः जस्टिस लोकुर

LiveLaw News Network

29 Dec 2020 9:33 AM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट ने पिछले कुछ वर्षों में सामाजिक न्याय को ठंडे बस्ते में डाल दिया हैः जस्टिस लोकुर

    ज‌स्टिस राजिंदर सच्चर की आत्मकथा, "In pursuit of Justice: An autobiography" का लोकार्पण मंगलवार को हुआ। इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में "व्यक्तिगत स्वतंत्रता और न्यायपालिका" विषय पर एक परिचर्चा का भी आयोजन हुआ, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मदन बी लोकुर, वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल और मुकुल रोहतगी शामिल हुए। कार्यक्रम का संचालन पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने किया।

    क्या पिछले कुछ वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने सामाजिक न्याय को ठंडे बस्ते में डाल दिया है?

    इस सवाल के जवाब में जस्टिस लोकुर ने अपनी सहमत‌ि व्यक्त की। उन्होंने कहा, जहां तक समाजिक न्याय का संबंध है, सुप्रीम कोर्ट ने अपना रास्ता खो दिया है। उन्होंने कहा कि लगभग 6 से 7 साल पहले, जब सुप्रीम कोर्ट की सामाजिक न्याय पीठ का उद्घाटन किया गया था, तब उसने सबसे पहले जिस मामले की सुनवाई की थी, वह सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर की ओर से दायर सरदार सरोवर बांध के विस्‍थापतों के पुनर्वास का मामला था।

    उन्होंने कहा, "तब हम कई तरह के मुद्दों का ‌निस्तारण करते थे। लेकिन पिछले दो वर्षों से, सामाजिक न्याय को दर-किनार कर दिया गया है। महामारी के कारण, सुप्रीम कोर्ट को अध‌िक से अध‌िक सक्रिय होना चाहिए था, प्रवासी मजदूरों का मुद्दा था, हजारों लोगों ने नौकरियां गंवा दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने जो किया, उससे बेहतर कर सकता था। इसलिए मैं मानता हूं कि पिछले कुछ वर्षों में सामाजिक न्याय को बैकबर्नर पर रखा दिया गया है। मगर दुर्भाग्य से हमें इसके साथ ही रहना होगा।",

    ज‌स्ट‌िस लोकुर के साथ सहमति व्यक्त करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने कहा कि भारत के संविधान और सुप्रीम कोर्ट में मुख्य स्थान, जिसे वह "राष्ट्र का रक्षक" कहते हैं, स्वतंत्रता के उल्लंघन को दिया गया है, जिसे पिछले कुछ वर्षों में पीछे धकेल दिया गया है।

    उन्होंने कहा, "यहां तक ​​कि बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं को तय करने में छह महीने से एक साल का समय लग रहा है। हालांकि, शुरू में, इन याचिकाओं को पूरी प्राथमिकता के साथ लिया गया था और दो सप्ताह के भीतर फैसला किया गया था ... अब अन्य चीजें ने जगह ले ली है।"

    वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा, "सुप्रीम कोर्ट ने अपना रास्ता केवल दो साल पहले नहीं, बल्कि कई साल पहले ही खो दिया था। आज, बहुत ज्यादा राजनीतिक मुद्दों को उठाया जा रहा है। स्वतंत्रता के मुद्दों को कालीन के नीचे धकेल दिया गया है। जैसा कि बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं के संबंध में है, एक वर्ष से अधिक समय से कश्मीर के मुद्दे पर हिरासत में ‌लिए गए लोगों का मामला है, जिन्हें निवारक निरोध आदेश के तहत नहीं बल्‍कि धारा 144 के तहत शांति भंग करने के आरोपों में हिरासत में लिया गया था...... सुप्रीम कोर्ट ने इनका कोई नोटिस नहीं लिया।

    लोगों के बीच संचार का मुद्दा, जो स्वतंत्रता के केंद्र में है, को निस्तार‌ित नहीं किया गया। प्रवासी मजदूरों के संबंध में एक कानून अधिकारी सुप्रीम कोर्ट में आए और कहा कि हाईवे से कोई भी आदमी नहीं जा रहा है।

    यह बात अदालत में कही गई थी, जबकि सोशल मीडिया और टीवी चैनलों ने हजारों लोगों को सड़कों पर चलते हुए दिखाया, उनके पास घर जाने का कोई दूसरा साधन नहीं था। ऐसे लोग थे, जिन्हें भोजन नहीं दिया गया और आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत इस समस्या को ‌निपटारा सरकार की जिम्‍मेदारी थी, व‌िशेषकर राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की, जिसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री करते हैं.....।

    हम सुप्रीम कोर्ट पर बहुत नरम हैं। अब हम केवल कॉर्पोरेट मामलों की सुनवाई होते देख रहे हैं, जबकि चुनावी बॉन्ड, सीएए जैसे अधिक महत्वपूर्ण मुद्दे अदालत के रोस्टर पर बिल्कुल भी नहीं हैं।"

    क्या काफी हद तक ध्रुवीकृत और राजनीतिक हो चुके समाज में जजों कैसे निर्लिप्त रहना चाहिए, और कानून के अनुसार समान न्याय प्रदान करना चाहिए?

    ज‌स्ट‌िस लोकुर का विचार था कि दो "मंत्र" हैं जिनका उल्लेख ज‌स्ट‌िस सच्चर ने भी अपनी आत्मकथा में किया है - एक, यह भारत का संविधान है, जो सबसे ऊपर है, और, दूसरा यह कि जजों को जनोन्मुख होना चाहिए।

    यूपी के लव-जिहाद अध्यादेश पर

    यूपी सरकार द्वारा ऐसे विवाहों पर रोक लगाने के लिए, जिनमें धर्मांतरण शामिल है, जारी किए अध्यादेश पर, ज‌स्ट‌िस लोकुर ने कहा कि कानूनी और संवैधानिक दृष्टिकोण अध्यादेश में बहुत सारे दोष हैं।

    उन्होंने कहा, "एक जज को राजनीति में जाने की जरूरत नहीं है, उसे यह देखना होगा कि कानून संवैधानिक रूप से वैध है या नहीं। उदाहरण के लिए, एक अध्यादेश लाने की आवश्यकता तभी होती है, जब तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता हो। इस मामले में , क्या अध्यादेश लाना महत्वपूर्ण था, जब विधानसभा सत्र गति में नहीं था? ऐसा कुछ भी नहीं था, जिससे यह अतिआवश्यक लगे। क्या अध्यादेश जनोन्मुख है? ...ना तो संविधान के दृष्टिकोण से और ना जनता के दृष्टिकोण से, यह कानून बरकरार रखने योग्य है।"

    वरिष्ठ अधिवक्ता रोहतगी, हालांकि, इस बात से सहमत नहीं थे कि सत्ता का संतुलन न्यायपालिका से कार्यकारिणी की ओर स्थानांतरित हो गया है।

    उन्होंने कहा, "हमारा संविधान शक्तियों के पृथक्करण का प्रावधान करता है। मेरा विचार है कि पिछले 30 से 40 वर्षों में, न्यायपालिका के पक्ष में संतुलन तेजी से स्‍थानातंरित हुआ है। न्यायपालिका विधानमंडल और कार्यपालिका के कार्यक्षेत्र में अतिक्रमण कर रही है। वास्तव में कार्यकारीणी अपने कार्यक्षेत्र का बचाव करने में सक्षम नहीं है...।

    इस सवाल कि, क्या जजों की कार्रवाई को भी जज किया जाना चाहिए, के जवाब में ज‌िस्टस लोकुर ने कहा कि यह आवश्यक है कि जजों की जांच की जानी चाहिए। मुकुल रोहतगी ने कहा, "नियमों को लागू होना चाहिए! जवाबदेही होनी चाहिए! और इसे हासिल करना मुश्किल नहीं है।"

    कपिल सिब्बल ने कहा कि जजों को राजनीति में शामिल नहीं होना चाहिए क्योंकि उन्होंने अदालत की सेवा की है, यहां तक ​​कि अपने कार्यकाल की समाप्त‌ि 2-3 साल के अंतराल के के बाद भी ऐसा नहीं करना चाहिए।

    उन्होंने कहा, "जस्टिस राजिंदर सच्चर को पद्म पुरस्कार दिया गया और उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया था! यह राजनीतिक प्रणाली और न्यायिक प्रणाली की ईमानदारी के बार में है।"

    अंत में, उन्होंने कहा कि इन समयों में में हल निकाल पाना बहुत कठिन है क्योंकि ये "बहुत कठिन समय" हैं।

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