"किसी पक्ष को अनुचित फेवर देना सबसे खराब तरीके की न्यायिक बेईमानी": सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई को बरकरार रखा

LiveLaw News Network

7 May 2022 6:09 AM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली

    सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को उत्तर प्रदेश में एक न्यायिक अधिकारी के खिलाफ कुछ पक्षों को अनुचित लाभ देने के लिए दिए गए आदेश पर शुरु की गई अनुशासनात्मक कार्रवाई को बरकरार रखा।

    जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस बेला एम त्रिवेदी की खंडपीठ ने कहा कि "न्यायिक आदेश पारित करने की आड़ में किसी पक्ष को अनुचित फेवर देना सबसे खराब तरह की न्यायिक बेईमानी और कदाचार है"।

    अदालत ने कहा,

    "एक जज को रिकॉर्ड पर मौजूद तथ्यों और मामले पर लागू कानून के आधार पर मामले का फैसला करना चाहिए। अगर वह बाहरी कारणों से किसी मामले का फैसला करता है तो वह कानून के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर रहा है।" मुजफ्फर हुसैन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य।

    मामले में आरोप यह था कि मुजफ्फर हुसैन नाम के अधिकारी ने 2001 से 2003 के दौरान आगरा में अतिरिक्त जिला जज के रूप में रहने के दौरान तय सिद्धांतों का उल्लंघन करते हुए भूमि अधिग्रहण मामलों के एक बैच में मुआवजे में अत्यधिक वृद्धि की थी ताकि बाद के कुछ खरीदारों को अनुचित रूप से लाभान्वित किया जा सके।

    अधिकारी ने 2003 में एक न्यायिक सदस्य के रूप में केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण में शामिल होने के लिए सेवा से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2005 में उनके खिलाफ कदाचार के लिए अनुशासनात्मक जांच शुरू की और आरोपों को साबित पाया।

    फुल कोर्ट की सिफारिश पर उत्तर प्रदेश राज्य ने उनके पेंशन लाभ में 90% की कटौती करने की सजा दी। अधिकारी ने सजा को चुनौती देते हुए हाईकोर्ट के समक्ष एक रिट याचिका दायर की। हाईकोर्ट ने निष्कर्षों में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया लेकिन पेंशन लाभ में 70% की कटौती के रूप में सजा को कम कर दिया। हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए अधिकारी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

    अपील को खारिज करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि

    "यह दिखाने के लिए पर्याप्त सबूत और सामग्री थी कि अपीलकर्ता ने एक न्यायिक अधिकारी के रूप में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए कदाचार किया था और कानून के विशिष्ट प्रावधानों की पूरी तरह से अवहेलना करते हुए न्यायिक आदेश पारित किए थे। अधिग्रहीत भूमि के बाद के खरीददारों को अनुचित रूप से लाभ पहुंचाया, जिन्हें मुआवजे का दावा करने का कोई अधिकार नहीं था, और यह कि ऐसे आदेश भ्रष्ट मकसद से लागू किए गए थे।"

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इन परिस्थितियों में, संविधान के अनुच्छेद 235 के तहत अपने पर्यवेक्षी अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने में हाईकोर्ट पूरी तरह से उचित था।

    यह नोट किया गया था कि अपीलकर्ता ने बाद के खरीदारों/निवेशकों को अत्यधिक उच्च दर पर बढ़ा हुआ मुआवजा प्रदान किया था, जिन्हें मुआवजा प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं था, खासकर जब संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम की धारा 6 (ई) के तहत मुकदमा करने के अधिकार के हस्तांतरण को विशेष रूप से प्रतिबंधित है।

    अदालत ने कहा कि अपीलकर्ता ने "लॉ और इक्विटी के कार्डिनल सिद्धांतों के खुला उल्लंघन किया में और सभी न्यायिक मानदंडों और औचित्य के खिलाफ मामलों का फैसला किया, ऐसे बाद के खरीदारों को अनुचित रूप से फेवर देने के लिए, जिनके पास मुआवजा प्राप्त करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं था"।

    जस्टिस बेला त्रिवेदी द्वारा लिखित निर्णय में कहा गया है

    "हमारी राय में न्यायिक आदेश पारित करने की आड़ में किसी पक्ष को अनुचित फेवर देना सबसे खराब तरीके की न्यायिक बेईमानी और कदाचार है। फेवर देने के लिए बाहरी विचार हमेशा एक मौद्रिक विचार नहीं होना चाहिए।

    अक्सर यह कहा जाता है कि "प‌‌ल्बिक सर्वेंट पानी में मछली की तरह होते हैं, कोई नहीं कह सकता कि मछली ने पानी कब और कैसे पिया। एक जज को मामले में दर्ज तथ्यों और मामले पर लागू कानून के आधार पर मामले का फैसला करना चाहिए। अगर वह बाहरी कारणों से एक मामले का फैसला करता है तो वह कानून के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर रहा है। जैसा कि अक्सर उद्धृत किया जाता है, सीज़र की पत्नी की तरह एक जज को संदेह से ऊपर होना चाहिए"।

    केस शीर्षक : मुजफ्फर हुसैन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य

    सिटेशन: 2022 लाइव लॉ (एससी) 450

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