धारा 197 सीआरपीसी| अधिकारी ने आधिकारिक कर्तव्यों से बढ़कर कार्य किया हो, तब भी अभियोजन के लिए स्वीकृति आवश्यक: सुप्रीम कोर्ट

Avanish Pathak

17 Jun 2023 4:22 PM IST

  • धारा 197 सीआरपीसी| अधिकारी ने आधिकारिक कर्तव्यों से बढ़कर कार्य किया हो, तब भी अभियोजन के लिए स्वीकृति आवश्यक: सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में दोहराया कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 (1) के अनुसार अभियोजन के लिए अनुमति की आवश्यकता उन मामलों में भी है, जहां अधिकारी ने अपने आधिकारिक कर्तव्यों से बढ़कर कार्य किया है।

    जस्टिस वी रामासुब्रमण्यन और जस्टिस पंकज मिथल की पीठ ने भ्रष्टाचार के एक मामले में भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (भेल) के पूर्व कार्यकारी निदेशक रहे एक व्यक्ति को बरी करते हुए उक्त टिप्‍पणी की।

    डी देवराज बनाम ओवैस सबीर हुसैन जैसे विभिन्न उदाहरणों का उल्लेख करते हुए, पीठ ने कहा कि "न केवल आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन में किए गए कार्यों के लिए स्वीकृति आवश्यक है, बल्कि ऐसे कार्यों के लिए भी आवश्यक है, जिन्हें लगता है कि आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में किया गया है, और/या ऐसे कार्य के रंग के तहत या ऐसी कर्तव्य के तहत या उससे बढ़कर किया गया है।"

    फैसले में 'देविंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य सीबीआई के माध्यम से' का उल्‍लेख किया गया, "जब लोक सेवक अपने कर्तव्य से आगे बढ़ गया है, अगर उचित संबंध है तो यह धारा 197 सीआरपीसी के तहत उसे सुरक्षा से वंचित नहीं करेगा।"

    पृष्ठभूमि

    सात व्यक्तियों को भारतीय दंड संहिता की धारा 120बी सहपठित धारा 420, 468, धारा 471 सहपठित धारा 468 और धारा 193 और भ्रष्टाचार अधिनियम की धारा 13(2) सहपठित धारा 13(1)(डी) के तहत दंडनीय अपराधों के लिए आरोपित किया गया।

    आरोपियों में से चार भेल, त्रिची के अधिकारी थे और तीन अन्य निजी उद्यमों में कार्यरत थे। अभियोजन पक्ष का आरोप था कि आरोपियों ने ‌‌डीसैलिनेशन प्लांट के निर्माण के कॉन्‍ट्रैक्ट में भेल को धोखा देने के लिए आपराधिक साजिश रची थी।

    आरोप यह था कि कार्यकारी निदेशक (ए-1) और उप महाप्रबंधक (ए-2, बाद में अनुमोदक बन गए) सहित चार लोक सेवकों (ए-1, ए-2, ए-3, ए-4) ने फर्म के मालिक (ए-5), जिसे अंततः अनुबंध से सम्मानित किया गया था, उनके पिता (ए-6), और उनके भाई (ए-7) के साथ के साथ सांठगांठ की थी। उन्हें अनुचित लाभ दिए गए और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी के साथ धोखाधड़ी की गई।

    मुकदमे के लंबित रहने के दरमियान ही पांचवें और छठे आरोपी का निधन हो गया, जबकि प्रबंधक से सरकारी गवाह बने आरोपी को छोड़कर अन्य विभिन्न प्रावधानों के तहत दोषी पाए गए।

    निर्णय

    विशेष अदालत ने पहले आरोपी को धारा 120बी सहपठित धारा 420 और भारतीय दंड संहिता, 1860 के अन्य प्रासंगिक प्रावधानों के साथ-साथ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13(1)(डी) और 13(2) के तहत दोषी ठहराया। अन्य दो लोक सेवकों को केवल भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के तहत दोषी ठहराया गया था। पीएसयू ने उनके खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत मुकदमा चलाने की अनुमति इस आधार पर नहीं दी थी कि यह कंपनी के 'वाणिज्यिक हित' साथ ही सार्वजनिक हित के खिलाफ जाएगा।

    तीन कर्मचारियों के बीच यह अंतर इसलिए किया गया क्योंकि कार्यकारी निदेशक फाइनल रिपोर्ट दाखिल होने से पहले सेवानिवृत्त हो गए। वह 2018 के संशोधन से बहुत पहले सेवान‌िवृत्त हो गए थे, जिसके तहत भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 19(1) के तहत दी गई सुरक्षा का विस्तार किया गया था, जिसके तहत पूर्व कर्मचारियों पर मुकदमा चलाने से पहले अनुमति की आवश्यकता थी।

    पीठ ने अपने फैसले में कहा,

    "यह भाग्य की विचित्रता है या ऐसे समय में पैदा होने की दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थित‌ि है कि (और परिणामस्वरूप एक विशेष समय पर सेवानिवृत्त हो रहे हैं) कि नियोक्ता द्वारा [अन्य दो लोक सेवकों] पर किया गया परोपकार, पहले आरोपी को उपलब्ध नहीं था। यदि वे सेवा में बने रहते तो बीएचईएल द्वारा अपनाए गए रवैये के मद्देनजर पीसी एक्ट के तहत दंडनीय अपराधों के लिए उन पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता था।

    सुप्रीम के समक्ष, जिस आधार पर पहले अभियुक्त के रूबरू मामले में तब्दीली आई, वह आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 197 (1) में निहित समान प्रावधान के तहत अनुमति की पूर्व-आवश्यकता थी।

    पहले अभियुक्त की ओर से यह तर्क दिया गया कि भले ही अंतिम रिपोर्ट के समय भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (संशोधन पूर्व) के तहत उन पर मुकदमा चलाने के लिए किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं थी, फिर भी सीआरपीसी की धारा 197 (1) के कारण, भारतीय दंड संहिता के तहत आरोपों के लिए पिछली अनुमति आवश्यक थी, जिसने वर्तमान और पूर्व दोनों कर्मचारियों को आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में अभियोजन से सुरक्षा प्रदान की है, उस समय भी जब उक्त कथित साजिश को अंजाम दिया गया था।

    प्रतिवादी-राज्य ने स्वीकार किया कि पूर्व निदेशक पर भारतीय दंड संहिता के तहत अपराध के लिए मुकदमा चलाने से पहले दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 (1) के तहत कोई पूर्व अनुमति नहीं मांगी गई, हालांकि तर्क दिया कि इस प्रकार की अनुमति तभी आवश्यक थी, जब अपराध कथित रूप से अपने आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन में या ऐसे लगे कि आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन में किया गया है।

    दूसरे शब्दों में, अभियोजन पक्ष ने कथित षडयंत्र और आधिकारिक कर्तव्यों के बीच किसी भी उचित संबंध से इनकार किया।

    हालांकि पीठ उक्त तर्कों से सहमत नहीं थी और कहा,

    "यह पता लगाने के लिए कि क्या प्रथम अपीलकर्ता (भेल के पूर्व कार्यकारी निदेशक) ने अपने आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन में कार्य किया या कथ‌ित रूप से अधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में कार्य किया, यह देखना पर्याप्त है कि वह किसी मौजूदा न‌ीति के तहत, सही या गलत तरीके से कवर ले सकता है या नहीं। मौजूदा नीति से पता चलता है कि कम से कम उनके पास प्रतिबंधित निविदा के लिए लिए गए निर्णय के बचाव में एक तर्कपूर्ण मामला था। एक बार जब यह स्पष्ट हो जाता है, तो उसका कार्य, भले ही सद्भावना में कमी या साजिश के तहत कथित रूप से किया गया हो, अपने आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन में किया गाय कार्य होगा, जिससे मामला भारतीय दंड संहिता की धारा 197(1) के मापदंडों के दायरे में आता है। इसलिए, अभियोजन पक्ष को पूर्व स्वीकृति प्राप्त करनी चाहिए थी। विशेष अदालत और हाईकोर्ट ने भी इस पहलू पर अपना दिमाग नहीं लगाया।”

    "उपर्युक्त के मद्देनजर," अदालत ने निष्कर्ष निकाला, "हम प्रथम अभियुक्त की ओर से दिए गए इस तर्क को बरकरार रखते हैं कि अभियोजन पक्ष को संहिता की धारा 197 (1) के संदर्भ में भारतीय दंड संहिता के तहत अपराध के लिए उस पर मुकदमा चलाने के लिए पूर्व अनुमति लेनी चाहिए थी।"

    केस टाइटलः केस टाइटल: ए श्रीनिवासुलु बनाम प्रतिनिधि राज्य पुलिस निरीक्षक के माध्यम से| 2023 लाइवलॉ एससी 485 | आपराधिक अपील संख्या 2417/2010| जस्टिस वी. रामासुब्रमण्यन और जस्टिस पंकज मित्तल

    साइटेशन: 2023 लाइवलॉ (एससी) 485

    फैसला यहां पढ़ें

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