एनडीपीएस की धारा 50 के तहत सभी मामलों में मजिस्ट्रेट के समक्ष तलाशी और जब्ती अनिवार्य नहीं: दिल्ली हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

16 Jan 2020 11:15 AM GMT

  • एनडीपीएस की धारा 50 के तहत सभी मामलों में मजिस्ट्रेट के समक्ष तलाशी और जब्ती अनिवार्य नहीं: दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट ने माना है कि एनडीपीएस की धारा 50 के तहत गैजेटेड ऑफिसर/ मजिस्ट्रेट के समक्ष तलाशी और जब्ती करने की आवश्यकता तब ही होती है जब अभियुक्त को ऐसी प्रक्रिया की आवश्यकता होती है।

    जस्टिस विभु भक्रू की एकल पीठ ने टिप्‍पणी की है कि अगर एनडीपीएस अधिनियम की धारा 50 (1) का अर्थ यह है कि सभी मामलों में यह आवश्यक है कि मजिस्ट्रेट या गैजेटेड अधिकारी के समक्ष तलाशी ली जाए तो उसकी जानकारी संद‌िग्ध को देने का कोई आवश्यकता नहीं है।

    मौजूदा अपील में, जज के सामने सवाल था कि क्या पुलिस अधिकारियों द्वारा अपीलकर्ता की ली गई तलाशी एनडीपीएस अधिनियम की धारा 50 के प्रावधानों के अनुरूप नहीं थी, क्योंकि गैजेटेड ऑफिसर/ मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में नहीं की गई थी।

    अपीलकर्ता के वकील जेएस कुशवाहा ने कोर्ट में तीन दलीलें पेश की थीं:

    पहला, यह कि छापा मारने वाली पार्टी के पास पर्याप्त समय होने के बाद भी तलाशी और जब्ती की कार्यवाही में पब्‍लिक विटनेस शामिल नहीं हुए थे।

    दूसरा, विभिन्न गवाहों की गवाही में विसंगतियां थीं।

    तीसरा, एनडीपीएस अधिनियम की धारा 50 के अनिवार्य प्रावधानों का अनुपालन नहीं किया गया, क्योंकि कथित रूप से पेश किए गए नोटिस में यह उल्लेख नहीं किया गया था कि गैजेटेड ऑफिसर या मजिस्ट्रेट के समक्ष तलाशी ली जाएगी।

    हालांकि कोर्ट ने अपीलकर्ता की असंगत गवाही के संबंध में की गई अपील को खारिज कर दिया, लेकिन अपीलकर्ता की उस दलील को कि पब्लिक व‌िटनेस को तलाशी और जब्ती में शामिल नहीं किया गया, को कुछ हद तक स्वीकार किया।

    कोर्ट ने टिप्‍पणी की:

    'यह गवाही कि लाल बत्ती और घटनास्थल पर मौजूद कुछ राहगीरों को कार्यवाही में शामिल होने के लिए कहा गया था, संबंधित अधिकारियों के कैजुअल एप्रोच को दर्शाता है। छापेमारी टीम के पास यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त समय था कि स्वतंत्र गवाह कार्यवाही में शामिल हों। अपीलार्थी को भीड़ भरे स्थान से पकड़ लिया गया और आस-पास कई प्रतिष्ठान थे इसलिए सार्वजनिक गवाहों की कोई कमी नहीं थी। '

    हालांकि, अदालत यह स्वीकार करने में असमर्थ थी कि कार्यवाही में सार्वज‌‌न‌िक गवाहों को शामिल नहीं करने के कारण पुलिस गवाहों की गवाही की अवहेलना की जानी चाहिए।

    तीसरे दलील के संबंध में कुशवाहा ने तर्क दिया था कि जिस आरोपी को नोटिस जारी किया गया था, वह डिटेक्टिव था।

    नोटिस में कहा गया थाः

    '"... तलाशी करने से पहले यह आपका कानूनी अधिकार है कि तलाशी मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी की उपस्थिति में की जा सकती है, जिसके लिए व्यवस्था की जा सकती है ...।"

    उन्होंने कहा कि NDPS अधिनियम की धारा 50 की उपधारा (1) में 'करेगा' शब्द का इस्तेमाल किया गया है और यह स्पष्ट रूप से इंगित किया गया था कि अधिनियम की धारा 42 के तहत अधिकृत अधिकारी व्यक्ति को तत्कालीन राजपत्रित अधिकारी या निकटतम मजिस्ट्रेट के पास ले जाएगा। इसलिए, नोटिस को दोषपूर्ण माना जाएगा, क्योंकि इसमें 'करेगा' के बजाय 'कर सकता है' शब्द का इस्तेमाल किया गया था।

    कोर्ट ने दलील को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि बयान- तलाशी से पहले यह आपका कानूनी अधिकार है कि तलाशी के लिए व्यवस्था 'की जा सकती है' में 'की जा सकती है' के बजाय 'की जाएगी' के प्रयोग की दलील अप्रासंगिक है, क्योंकि अपीलकर्ता को विधिवत सूचित किया गया था कि मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी के समक्ष उसकी तलाशी का कानूनी अधिकार है।

    आगे कहा गया कि संदिग्ध, जिसकी तलाशी ली जानी है, को सूचित करने का पूरा उद्देश्य, उसके अधिकार के बारे में है कि वह इस अधिकार का प्रयोग करने में सक्षम हो - मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी के समक्ष तलाशी का अधिकार। इसके बाद संदिग्ध उक्त प्रावधान के तहत प्रदान अधिकार का प्रयोग कर सकता है या नहीं भी कर सकता है।

    इसलिए, यह माना जाता है कि NDPS अधिनियम की धारा 50 (1) में इस्तेमाल किए जाने वाले शब्द 'अगर ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता हो तो' यह स्पष्ट रूप से स्पष्ट करता है कि तलाशा लिए जाने वाले व्यक्ति को मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी के समक्ष ले जाया जाएगा, केवल तभी जब उसे इसकी आवश्यकता होगी।

    इसके अलावा, शब्द "इस तरह की आवश्यकता", जैसा कि एनडीपीएस अधिनियम की धारा 50 की उप-धारा (2) के शुरुआती वाक्य में उल्लेख किया गया है, स्पष्ट रूप से उस व्यक्ति का हवाला है, जिसकी तलाशी ली जानी है, जिसने एक राजपत्रित अधिकारी / मजिस्ट्रेट के समक्ष तलाशी के अपने अधिकार के प्रयोग का चुनाव किया।

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