बॉम्बे हाईकोर्ट ने रद्द किया धारा 144 लगाने का आदेश, कहा- सीएए के विरोध के कारण किसी को देशद्रोही या राष्ट्रविरोधी नहीं कहा जा सकता
LiveLaw News Network
15 Feb 2020 2:07 PM IST
एक महत्वपूर्ण फैसले में बॉम्बे हाई कोर्ट की औरंगाबाद बेंच ने नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन के मद्देनजर आयोजित विरोध और प्रदर्शनों को प्रतिबंधित करने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के तहत पारित एक आदेश को रद्द कर दिया है।
जस्टिस टीवी नलवाडे और जस्टिस एमजी सेवलिकर की खंडपीठ ने इफ्तिखार ज़की शेख़ की याचिका पर यह फैसला दिया है। शेख़ ने बीड़ जिले के मजलगांव में पुराने ईदगाह मैदान में शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने का अनुरोध किया था, हालांकि बीड़ के अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट की ओर से धारा 144 लागू किए के आदेश का हवाला देते हुए उन्हें अनुमति नहीं दी गई।
अदालत ने कहा कि भले ही धारा 144 के आदेश को आंदोलनों पर लगाम लगाने के लिए लागू किया गया था, लेकिन इसका असली उद्देश्य सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों को चुप कराना था। आदेश में नारेबाजी, गाने और ढोल बजाने पर भी रोक लगाई गई थी।
"यह कहा जा सकता है यद्यपि आदेश, देखने में, सभी के खिलाफ प्रतीत होता है, वास्तव में, यह आदेश उन लोगों के खिलाफ है जो आंदोलन करना चाहते हैं, सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करना चाहते हैं। वर्तमान में, ऐसे आंदोलन हर जगह चल रहे हैं और इस इलाके किसी अन्य आंदोलन की सूचना नहीं है। इसलिए, यह कहा जा सकता है यह आदेश निष्पक्ष और ईमानदाराना नहीं है।"
कोर्ट ने ने कहा कि सीएए का विरोध कर रहे व्यक्तियों को देशद्रोही या राष्ट्र विरोधी नहीं कहा जा सकता है और शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन के उनके अधिकार पर निश्चित रूप से विचार किया जाना चाहिए।
देशद्रोही या राष्ट्र विरोधी करार नहीं दिया जा सकता
13 फरवरी को दिए आदेश में कोर्ट ने कहा, "यह अदालत कहना चाहती है कि, ऐसे व्यक्तियों को देशद्रोही या राष्ट्रभक्त नहीं कहा जा सकता है, वह भी मात्र इसलिए कि वे एक कानून का विरोध करना चाहते हैं। यह विरोध का कार्य होगा और केवल सीएए के कारण सरकार के खिलाफ होगा।"
जजों ने आदेश में यह भी याद किया कि ब्रिटिश शासन के खिलाफ स्वतंत्रता विरोध प्रदर्शनों के जरिए ही हासिल की थी। कोर्ट ने कहा, "यह कहा जा सकता है कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन लोगों को अब अपनी सरकार के खिलाफ आंदोलन करने की आवश्यकता है, केवल उस आधार पर आंदोलन को दबाया नहीं जा सकता है।"
अगर आंदोलन करने वाले लोग यह मानते हैं कि सीएए अनुच्छेद 14 के तहत प्रदत्त 'समानता' के अधिकार के खिलाफ है, तो उन्हें भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत अपनी भावनाओं का अभिव्यक्त करने का अधिकार है।
अदालत ने आगे कहा कि यह सुनिश्चित करने का उसका कर्तव्य है कि नागरिकों के आंदोलन के अधिकार को बरकरार रखा जाए और कहा कि यह तय करना उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है कि विरोध प्रदर्शन के पीछे का कारण वैध है, यह विश्वास का विषय है।
"हम एक लोकतांत्रिक गणराज्य हैं और हमारे संविधान ने हमें कानून का शासन दिया है, न कि बहुमत का शासन। जब ऐसा कानून बनाया जाता है तो कुछ लोगों, वे किसी विशेष धर्म के भी हो सकते हैं जैसे कि मुसलमान, को लग सकता है कि यह उनके हितों के खिलाफ है और विरोध करने की आवश्यकता है। यह उनकी धारणा और विश्वास का मामला है। कोर्ट उस धारणा या विश्वास के गुणवत्ता का मूल्यांकन नहीं कर सकती है।
कोर्ट यह देखने के लिए बाध्य है कि क्या इन व्यक्तियों को आंदोलन करने का, कानून का विरोध करने का अधिकार है। अगर अदालत ये पाती है कि यह उनके मौलिक अधिकार का हिस्सा है, तो यह तय करना अदालत पर नहीं है कि इस तरह के अधिकार का प्रयोग कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा करेगा या नहीं।"
नौकरशाही को मानव अधिकारों के बारे में संवेदनशील होना चाहिए
इस नोट पर, अदालत ने कहा कि नौकरशाही में काम कर रहे अधिकारियों, जिन पर कानून और व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी है, को संविधान के तहत मौलिक अधिकारों के रूप में शामिल किए गए मानवाधिकारों के बार में उचित प्रशिक्षण प्रदान कर संवेदनशील बनाने की आवश्यकता है।
"यह सरकार द्वारा बनाए गए कानून के खिलाफ लोगों का असंतोष है और नौकरशाही को, कानून द्वारा दी गई शक्तियों का प्रयोग करते हुए संवेदनशील होने की आवश्यकता है। दुर्भाग्य से, स्वतंत्रता पाने के बाद कई कानूनों को रद्द कर दिया जाना चाहिए था, लेकिन उन्हें अब तक जारी रखा गया है। नौकरशाही अब उनका इस्तेमाल आज़ाद भारत के नागरिकों के खिलाफ कर रही है।
नौकरशाही को यह ध्यान में रखने की जरूरत है कि जब नागरिकों को यह लगता है कि कोई विशेष कानून उनके अधिकारों पर हमला है, जिसे उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के जरिए प्राप्त किया था और जब यह संविधान के उन प्रावधानों के खिलाफ है, जिन्हें लोगों ने खुद को दिया है, वे उस अधिकार की रक्षा करने के लिए बाध्य हैं। यदि उन्हें ऐसा करने की अनुमति नहीं दी गई, तो बल प्रयोग की आशंका हमेशा रहती है और इसका नतीजा हिंसा, अराजकता, अव्यवस्था के रूप में होगा और अंततः देश की एकता को खतरा होगा।"
"यह न्यायालय सभी संभावित गंभीरताओं के साथ यह देख रही है कि नौकरशाही में शामिल अधिकारी, जिन्हें ऊपर कही गई शक्तियां दी गई हैं, उन्हें संविधान में मौलिक अधिकारों के रूप में शामिल मानवाधिकारों का उचित प्रशिक्षण देकर संवेदनशील बनाने की आवश्यकता है"।
अदालत ने प्रदर्शन में शामिल सभी समुदायों और धर्मों से जुड़े प्रदर्शनकारियों की, एकमत होकर उस चीज़ के खिलाफ आवाज़ उठाने की, जिसे वे अपने अधिकारों के खिलाफ मानते हैं, तारीफ की।
"सभी धर्मों और सभी समुदायों के कई लोग पूर्वोक्त अधिनियम के विरोध में आंदोलन कर रहे हैं। संविधान की प्रस्तावना में 'भातृत्व' शब्द का उल्लेख है। ऐसी स्थितियां, जिनमें अन्य समुदायों और धर्मों के लोग अल्पसंख्यक समुदाय का समर्थन कर रहे हैं, यह दर्शाता है कि हमने भातृत्व की भावना काफी हद तक हासिल की है। इसके खिलाफ कुछ करने से भातृत्व की भावना को ठेस पहुंचेगी और देश की एकता को खतरा पैदा होगा।"
उल्लेखनीय है कि गुरुवार को कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा था कि सीएए के विरोध को रोकने के लिए दिसंबर में बेंगलुरु में लगाई गई धारा 144 का आदेश अवैध था।
मामले का विवरण
केस टाइटल: इफ्तखार ज़की शेख़ बनाम महाराष्ट्र राज्य व अन्य।
केस नं: Crl WP No. 223/2020
कोरम: जस्टिस टीवी नलवाडे और जस्टिस एमजी सेवलिकर
वकील: एडवोकेट सालुंके सुदर्शन (याचिकाकर्ता के लिए); एपीपी आरवी दासलकर (राज्य के लिए)
जजमेंट डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें