पटना हाईकोर्ट ने राज्य में जाति-आधारित सर्वे कराने के बिहार सरकार के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाएं खारिज कीं
Brij Nandan
1 Aug 2023 1:22 PM IST
पटना हाईकोर्ट (Patna High Court) ने राज्य में जाति-आधारित सर्वे कराने के बिहार सरकार के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाएं आज खारिज कर दीं।
सर्वे के विभिन्न पहलुओं को चुनौती देने वाली कुल 5 जनहित याचिकाओं पर सुनवाई के बाद चीफ जस्टिस विनोद चंद्रन और जस्टिस पार्थ सारथी की पीठ ने 7 जुलाई को मामले में फैसला सुरक्षित रख लिया था।
सर्वेक्षण दो चरणों में शुरू किया गया। पहला चरण, जो 7 जनवरी को शुरू हुआ, घरेलू गिनती का अभ्यास था और यह 21 जनवरी तक पूरा हो गया। दूसरा चरण 15 अप्रैल को शुरू हुआ, जिसमें लोगों की जाति और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के बारे में जानकारी एकत्र की गई। संपूर्ण अभ्यास मई 2023 तक समाप्त होने वाला है।
हालांकि, बिहार सरकार के महत्वाकांक्षी फैसले के खिलाफ जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए 4 मई को हाईकोर्ट ने यह कहते हुए इस पर अंतरिम रोक लगा दी कि यह प्रथम दृष्टया जनगणना के समान है, जिसे करने की शक्ति राज्य सरकार के पास नहीं है।
हाईकोर्ट ने कहा, "प्रथम दृष्टया, हमारी राय है कि राज्य के पास जाति-आधारित सर्वेक्षण करने की कोई शक्ति नहीं है, जिस तरह से यह अब फैशन है, जो जनगणना के समान होगा। इस प्रकार संघ की विधायी शक्ति पर प्रभाव पड़ेगा।"
पटना हाईकोर्ट ने आगे कहा,
"राज्य के पास जाति-आधारित सर्वेक्षण करने की कोई शक्ति नहीं है, जिस तरह से यह अब फैशन में है, जो जनगणना के समान होगा। इस प्रकार यह केंद्रीय संसद की विधायी शक्ति पर प्रभाव डालेगा।"
गौरतलब है कि चीफ जस्टिस की अगुवाई वाली खंडपीठ ने भी इसे 'गंभीर चिंता' का विषय बताया कि सरकार राज्य विधानसभा के विभिन्न दलों, सत्तारूढ़ दल और विपक्षी दल के नेताओं के साथ जनगणना डेटा साझा करना चाहती है।
कोर्ट ने आदेश दिया, "ऐसी परिस्थितियों में हम राज्य सरकार को जाति-आधारित सर्वेक्षण को तुरंत रोकने और यह सुनिश्चित करने का निर्देश देते हैं कि पहले से एकत्र किए गए डेटा को सुरक्षित रखा जाए और रिट याचिका में अंतिम आदेश पारित होने तक किसी के साथ साझा नहीं किया जाए।"
बिहार सरकार ने एचसी के समक्ष प्रस्तुत किया कि वह राज्य के लोगों की जाति और सामाजिक-आर्थिक कल्याण पर डेटा एकत्र करने के लिए जाति-आधारित सर्वेक्षण करने में सक्षम है।
सरकार ने यह भी कहा कि लोगों को अपनी जाति घोषित करने के लिए मजबूर नहीं किया जा रहा है और पूरी प्रक्रिया में भागीदारी पूरी तरह से स्वैच्छिक है और यह तथ्य इसे जाति-आधारित जनगणना से अलग बनाता है, जिसमें जाति की घोषणा अनिवार्य है।
यह भी निवेदन किया गया है कि प्रश्नगत सर्वेक्षण में एक भी व्यक्ति ने यह आरोप नहीं लगाया कि सर्वेक्षण के नाम पर उनसे जबरन जानकारी ली जा रही है। मौखिक दलीलों के अलावा, सरकार ने जाति-आधारित सर्वेक्षण को चुनौती देने वाली रिट याचिकाओं के जवाब में हलफनामा भी दायर किया।
इसमें यह कहा गया, "यह निर्विवाद है कि यह सर्वेक्षण जनगणना नहीं है। इसमें कुछ समानताएं हो सकती हैं लेकिन स्पष्ट अंतर हैं। ये दोनों प्रक्रियाएं एक समान नहीं हैं। अंतर और समानताएं कम महत्वपूर्ण हैं लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कानूनी सवाल यह है कि क्या बिहार जाति आधारित सर्वेक्षण है, आगामी जनगणना 2021 में कोई खतरा या बाधा उत्पन्न हो रही है या नहीं। उत्तर बड़ा नहीं है। जनगणना अधिनियम 1948 द्वारा प्रदत्त भारत संघ के अधिकार क्षेत्र का भी कोई उल्लंघन नहीं है, आज तक भारत संघ से राज्य सरकार को कोई आपत्ति नहीं मिली है।"
दूसरी ओर, याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वकील दीनू कुमार ने कोर्ट के समक्ष कहा कि राज्य सरकार सर्वेक्षण के नाम पर जनगणना करा रही है, जिसकी संविधान के मुताबिक अनुमति नहीं है। उन्होंने दलील दी कि सर्वे पर बिना किसी औचित्य के कुल पांच सौ करोड़ रुपये खर्च किये जा रहे हैं।
इससे पहले मई में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य में जाति-आधारित सर्वेक्षण करने के बिहार सरकार के फैसले पर रोक लगाने वाले पटना हाईकोर्ट के अंतरिम आदेश को चुनौती देने वाली बिहार राज्य द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई को स्थगित कर दिया था।
21 जुलाई को, सुप्रीम कोर्ट ने याचिका का निपटारा कर दिया जब दोनों पक्षों के वकील इस बात पर सहमत हुए कि मामला निरर्थक हो गया है क्योंकि उच्च न्यायालय ने पहले ही अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है।
केस टाइटल- यूथ फॉर इक्वेलिटी बनाम बिहार राज्य संबंधित मामले