जैविक पिता की मौत के बाद मां द्वारा अपने बच्चे को दूसरे पति का सरनेम देने में कुछ भी असामान्य नहीं : सुप्रीम कोर्ट

Manisha Khatri

28 July 2022 3:00 PM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली

    सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जैविक पिता की मृत्यु के बाद पुनर्विवाह करने वाली मां बच्चे का उपनाम (surname ) तय कर सकती है और उसे अपने नए परिवार में शामिल कर सकती है।

    जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और जस्टिस कृष्ण मुरारी की पीठ ने आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया है जिसमें एक मां को अपने बच्चे का उपनाम बदलने और अपने नए पति का नाम केवल 'सौतेले पिता' के रूप में रिकॉर्ड में दिखाने का निर्देश दिया था।

    अदालत ने कहा कि इस तरह का निर्देश लगभग ''क्रूर और इस बात से बेखबर है कि यह बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य और आत्मसम्मान को कैसे प्रभावित करेगा ?''

    इस अपील में मां (जिसने पहले पति की मौत के बाद दूसरी शादी कर ली) और बच्चे के मृत जैविक पिता (दादा-दादी) के माता-पिता के बीच विवाद बच्चे को दिए जाने वाले उपनाम को लेकर था। बच्चे के उपनाम को बहाल करने के लिए आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट द्वारा जारी एक निर्देश (संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 10 के तहत एक याचिका का निपटारा करते हुए) को चुनौती देते हुए मां ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। जहां तक बच्चे के पिता के नाम का संबंध है, हाईकोर्ट ने निर्देश दिया था कि जहां कहीं भी रिकॉर्ड में अनुमति हो, प्राकृतिक पिता का नाम दिखाया जाएगा और यदि इसकी अनुमति नहीं है, तो मां के नए पति का नाम सौतेले पिता के रूप में दिखाया जा सकता है।

    इस मामले में उठाए गए मुद्दे-

    (1) क्या माता, जो जैविक पिता की मृत्यु के बाद बच्चे की एकमात्र प्राकृतिक/कानूनी अभिभावक है, बच्चे का उपनाम तय कर सकती है। क्या वह उसे अपने दूसरे पति का उपनाम दे सकती है जिससे वह अपने पहले पति की मृत्यु के बाद पुनर्विवाह करती है और क्या वह बच्चे को अपने पति को गोद लेने के लिए दे सकती है?

    (2) क्या हाईकोर्ट के पास अपीलकर्ता को बच्चे का उपनाम बदलने का निर्देश देने की शक्ति है, खासकर जब इस तरह की राहत प्रतिवादियों द्वारा ट्रायल कोर्ट के समक्ष अपनी याचिका में कभी नहीं मांगी गई थी?

    पीठ ने गौर किया कि गीता हरिहरन व अन्य बनाम भारतीय रिजर्व बैंक व अन्य के मामले में, हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 6 के तहत नाबालिग बच्चे के प्राकृतिक अभिभावक के रूप में मां के अधिकार को मजबूत करते हुए, मां को पिता के समान पद पर पदोन्नत किया गया है।

    कोर्ट ने कहा,

    ''इसलिए, अपने पहले पति के निधन के बाद, बच्चे की एकमात्र प्राकृतिक अभिभावक होने के नाते हम यह देखने में विफल हो रहे हैं कि कैसे एक मां को अपने नए परिवार में बच्चे को शामिल करने और बच्चे का उपनाम तय करने से कानूनी रूप से रोका जा सकता है?''

    उपनाम के महत्व के बारे में पीठ ने कहाः

    एक उपनाम उस नाम को संदर्भित करता है जिसे कोई व्यक्ति उस व्यक्ति के परिवार के अन्य सदस्यों के साथ साझा करता है, जो उस व्यक्ति के दिए गए नाम या नामों से अलग होता है; एक परिवार का नाम। उपनाम न केवल वंश का संकेत है और इसे केवल इतिहास, संस्कृति और वंश के संदर्भ में नहीं समझा जाना चाहिए, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण भूमिका यह है कि यह सामाजिक वास्तविकता के साथ-साथ अपने विशेष वातावरण में बच्चों के लिए होने की भावना के संबंध में है। उपनाम की एकरूपता 'परिवार' को बनाने, बनाए रखने और प्रदर्शित करने की एक विधा के रूप में उभरती है।

    अदालत ने यह भी कहा कि दस्तावेजों में वर्तमान पति के नाम को सौतेले पिता के रूप में शामिल करने का हाईकोर्ट का निर्देश लगभग क्रूर और इस बात से बेपरवाह है कि यह बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य और आत्मसम्मान को कैसे प्रभावित करेगा?

    कोर्ट ने कहा,

    ''नाम महत्वपूर्ण है क्योंकि एक बच्चा इससे अपनी पहचान प्राप्त करता है और उसके परिवार से नाम में अंतर उसे गोद लेने के तथ्य की निरंतर अनुस्मारक के रूप में कार्य करेगा और बच्चे को उसके और उसके माता-पिता के बीच एक सहज, प्राकृतिक संबंध बनाने में बाधा डालने वाले अनावश्यक प्रश्नों को उसके समक्ष उजागर करेगा। इसलिए, हमे अपीलकर्ता मां में इस निर्णय में कुछ भी असामान्य नहीं दिख रहा है,जिसने पुनर्विवाह पर बच्चे को अपने पति का उपनाम दिया है या यहां तक कि बच्चे को अपने पति को गोद दे दिया है।''

    अदालत ने कहा कि वर्तमान याचिका के लंबित रहने के दौरान, वर्तमान पति ने पंजीकृत दत्तक विलेख के माध्यम से बच्चे को गोद ले लिया था। हिन्दू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 12 और धर्म और नैतिकता के विश्वकोश में 'गोद लेने' की परिभाषा का उल्लेख करते हुए, पीठ ने कहाः

    ''जब ऐसा बच्चा दत्तक परिवार का कोषेर सदस्य बन जाता है तो यह केवल तर्कसंगत है कि वह दत्तक परिवार का उपनाम लेता है और इस प्रकार इस तरह के मामले में न्यायिक हस्तक्षेप किया जाना बेतुका है...जबकि गोद लेने का मुख्य उद्देश्य अतीत में किसी के अंतिम संस्कार के अधिकारों को सुरक्षित करने और किसी के वंश की निरंतरता को बनाए रखने के लिए रहा है, परंतु हाल के दिनों में, आधुनिक दत्तक सिद्धांत का उद्देश्य अपने जैविक परिवार से वंचित बच्चे का पारिवारिक जीवन बहाल करना है।'' इसी के साथ कोर्ट ने पहले मुद्दे का जवाब मां के पक्ष में दिया।

    दूसरे मुद्दे के संबंध में, पीठ ने कहा कि, बच्चे के उपनाम बदलने का निर्देश देते हुए, हाईकोर्ट ने दलीलों से आगे बढ़कर काम किया है। इस आधार पर इस तरह के निर्देशों को रद्द किया जाना उचित है।

    अपील की अनुमति देते हुए अदालत ने कहाः

    ''किसी भी अनिश्चितता से बचने के लिए यह दोहराया जाता है कि बच्चे की एकमात्र प्राकृतिक अभिभावक होने के नाते मां को बच्चे का उपनाम तय करने का अधिकार है। उसे बच्चे को गोद देने का अधिकार भी है। न्यायालय को हस्तक्षेप करने की शक्ति हो सकती है, लेकिन केवल जब उस प्रभाव के लिए विशिष्ट प्रार्थना की जाती है और इस तरह की प्रार्थना इस आधार पर केंद्रित होनी चाहिए कि बच्चे का हित प्राथमिक विचार है और यह अन्य सभी विचारों से अधिक है। उपरोक्त टिप्पणियों के साथ हाईकोर्ट के उस निर्देश को खारिज किया जाता है,जो बच्चे के उपनाम से संबंधित है।''

    मामले का विवरणः

    केस टाइटल-अकिला ललिता बनाम श्री कोंडा हनुमंत राव

    साइटेशन- 2022 लाइव लॉ (एससी) 638

    केस नंबर-सीए 6325-6326/2015

    आदेश की तारीख- 28 जुलाई 2022

    कोरम- जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और जस्टिस कृष्ण मुरारी

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