सीआरपीसी की धारा 195/340 के तहत कोर्ट द्वारा शिकायत करने से पहले आरोपी को सुनवाई का मौका देना जरूरी नहीं: सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

19 Sep 2022 7:05 AM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली

    सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 195/340 के तहत शिकायत करने से पहले किसी संभावित-आरोपी को सुनवाई का मौका देना जरूरी नहीं है।

    जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस अभय एस. ओका और जस्टिस विक्रम नाथ की खंडपीठ दो न्यायाधीशों की पीठ की ओर से भेजे गये संदर्भ का जवाब दे रही थी। संदर्भित मुद्दे थे- (i) क्या दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 340 किसी कोर्ट द्वारा संहिता की धारा 195 के तहत शिकायत किए जाने से पहले प्रारंभिक जांच और संभावित आरोपी को सुनवाई का अवसर प्रदान करती है? (ii) ऐसी प्रारंभिक जांच का दायरा और परिधि क्या है?

    यह तब हुआ जब बेंच ने तीन-जजों की दो बेंच के फैसलों के बीच के विरोधाभास का संज्ञान लिया। 'प्रीतीश बनाम महाराष्ट्र सरकार और अन्य (2002) 1 एससीसी 253' मामले में यह व्यवस्था दी गयी थी कि कोर्ट किसी शिकायत पर प्रारंभिक जांच के लिए बाध्य नहीं है, लेकिन यदि कोर्ट ऐसा करने का निर्णय लेता है, तो उसे तथ्यों का एक फाइनल सेट बनाना चाहिए, जो न्याय के हित में समीचीन हो कि अपराध की आगे जांच की जानी चाहिए। 'शरद पवार बनाम जगमोहन डालमिया (2010) 15 एससीसी 290' मामले में, यह कहा गया था कि सीआरपीसी की धारा 340 के तहत विचार के अनुसार प्रारंभिक जांच करना और "प्रतिवादियों को अपना पक्ष रखने का अवसर प्रदान करना" भी आवश्यक है।

    निर्णय कानून के सिद्धांतों को निर्धारित करता है; आदेश दिए गए तथ्यात्मक परिदृश्य में है

    संदर्भ का जवाब देते हुए, पीठ ने कहा कि 'शरद पवार' (सुप्रा) मामले में जो रिपोर्ट किया गया है वह केवल एक आदेश है, निर्णय नहीं।

    कोर्ट ने कहा:

    एक आदेश दिए गए तथ्यात्मक परिदृश्य में है। निर्णय कानून के सिद्धांतों को निर्धारित करता है। परिदृश्य यह है कि इस कोर्ट द्वारा पारित कोई भी आदेश या निर्णय रिपोर्ट किए गए मामलों की अधिक मात्रा तैयार करने के लिए रिपोर्ट योग्य कवायद बन जाता है! इस प्रकार प्रचलित कानूनी सिद्धांतों पर कुछ भ्रम पैदा होने की संभावना बनती है। उपरोक्त उद्धृत पैराग्राफ में टिप्पणियों को स्पष्ट रूप से कानून के किसी भी सिद्धांत के निर्धारण के बजाय आदेश के तहत सामने आया था और यही कारण है कि बेंच ने इसे दिये गये तथ्यात्मक परिदृश्य के रूप में वर्गीकृत किया।

    इस तरह के परिदृश्य में सुनवाई के अवसर का कोई सवाल ही नहीं है।

    'इकबाल सिंह मारवाह बनाम मीनाक्षी मारवाह (2005) 4 एससीसी 370' मामले में संविधान पीठ के फैसले का जिक्र करते हुए, पीठ ने संदर्भ का उत्तर इस प्रकार दिया:

    "हमें कोई संदेह नहीं है कि इस तरह के परिदृश्य में सुनवाई के अवसर का कोई सवाल ही नहीं है और हम और कुछ नहीं कहते हैं, लेकिन 'इकबाल सिंह मारवाह (सुप्रा)' मामले में संविधान पीठ द्वारा प्रतिपादित एक कानून 'प्रीतीश केस (सुप्रा)' के निर्णय के अनुरूप है। दिलचस्प बात यह है कि 'प्रीतीश' मामले के निर्णय और 'इकबाल सिंह मारवाह' (सुप्रा) मामले में संविधान पीठ के फैसले दोनों को 'शरद पवार' (सुप्रा) मामले में पारित आदेश में नोट नहीं किया गया है। पहले प्रश्न का उत्तर इस प्रकार नकारात्मक में होगा। जहां तक दूसरे प्रश्न का संबंध है, इस तरह की प्रारंभिक जांच का दायरा और परिधि भी 'इकबाल सिंह मारवाह (सुप्रा)' मामले में इस कोर्ट के संविधान पीठ के फैसले के संदर्भ में हल हो गया है, जैसा कि पूर्वोक्त में संदर्भित है।"

    मामले का विवरण

    पंजाब सरकार बनाम जसबीर सिंह | 2022 लाइव लॉ (एससी) 776 | क्रिमिनल अपील 335/2020 | 15 सितंबर 2022 | जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस अभय एस. ओका और जस्टिस विक्रम नाथ

    हेडनोट्स

    दंड प्रक्रिया संहिता, 1973; धारा 195, 340 – क्या सीआरपीसी की धारा 195 के तहत शिकायत दायर करने से पहले धारा 340 प्रारंभिक जांच और संभावित अभियुक्त को सुनवाई का अवसर देती है?- इस परिदृश्य में सुनवाई के अवसर का कोई सवाल ही नहीं है - इस तरह की प्रारंभिक जांच का दायरा और परिधि – संदर्भ : 'इकबाल सिंह मारवाह बनाम मीनाक्षी मारवाह (2005) 4 एससीसी 370

    निर्णय और व्यवस्था - दिए गए तथ्यात्मक परिदृश्य में एक आदेश है। निर्णय कानून के सिद्धांतों को निर्धारित करता है। परिदृश्य यह है कि इस कोर्ट द्वारा पारित कोई भी आदेश या निर्णय रिपोर्ट किए गए मामलों की अधिक मात्रा तैयार करने के लिए रिपोर्ट योग्य कवायद बन जाता है! इस प्रकार प्रचलित कानूनी सिद्धांतों पर कुछ भ्रम पैदा होने की संभावना बनती है।

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