कैदियों के वेतन में संशोधन के यूपी सरकार के आदेश को चुनौती देते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर

Praveen Mishra

1 Dec 2023 1:06 PM GMT

  • कैदियों के वेतन में संशोधन के यूपी सरकार के आदेश को चुनौती देते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर

    इलाहाबाद हाई कोर्ट के समक्ष जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की गई। इस याचिका में उत्तर प्रदेश सरकार के अगस्त 2023 के आदेश को चुनौती दी गई, जिसमें कैदियों की मजदूरी में संशोधन किया गया।

    चीफ़ जस्टिस प्रीतिंकर दिवाकर और जस्टिस सौमित्र दयाल सिंह की खंडपीठ द्वारा कैदियों के वेतन में संशोधन नहीं करने में राज्य के अधिकारियों के व्यवहार के बारे में गंभीर चिंताओं के बाद इस साल अगस्त में सरकारी आदेश जारी किया गया।

    अपने आदेश में सरकार ने कुशल, अर्ध-कुशल और अकुशल कैदियों की मजदूरी को 40, 30 और 25 रुपये से बढ़ाकर क्रमशः 81, 60 और 50 रुपये कर दिया।

    सरकार को चुनौती देने वाली याचिका एडवोकेट आशिम लूथरा और अथर्व दीक्षित द्वारा दायर की गई है, जिन्हें अदालत ने वेतन संशोधन मामले में एमिक्स क्यूरी के रूप में नियुक्त किया गया, इस आधार पर कि कैदियों के लिए निर्धारित न्यूनतम मजदूरी राज्य में लागू न्यूनतम मजदूरी से कम है।

    याचिका में कैदियों के पारिश्रमिक का भुगतान और पीड़ितों को मुआवजा नियम, 2005 को ध्यान में रखा गया, जिसके अनुसार कैदियों द्वारा अर्जित पारिश्रमिक से 15% राशि काट ली गई और पीड़ितों को वितरण के लिए बैंक खातों में जमा की गई। हालांकि, यह आरोप लगाया गया कि यह राशि न तो पीड़ितों को वितरित की जा रही है और न ही कैदियों को वापस की जा रही है। संशोधन आवेदन में कहा गया कि 2005 के नियमों के तहत खोले गए बैंक खातों में 100 करोड़ से अधिक राशि पड़ी हुई है।

    याचिका में गुजरात राज्य बनाम गुजरात हाईकोर्ट (1998) के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का भी उल्लेख किया गया, जिसमें यह माना गया कि कैदी न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के दायरे से बाहर हैं, क्योंकि उनके और राज्य के बीच कोई नियोक्ता-कर्मचारी संबंध नहीं हैं।

    याचिका में दलील दी गई कि बदलते समय के साथ राज्य को जेलों के भीतर बनाए जा रहे उत्पादों से लाभ होने लगा है। ऐसे उत्पाद खुले बाजार में बेचे जा रहे हैं और राज्य को ऐसी बिक्री से प्राप्त आय से लाभ हो रहा है। इसके अनुसार, ऐसे मामलों में कर्मचारी-नियोक्ता संबंध स्थापित होता है।

    याचिकाकर्ताओं ने यह भी कहा कि इसी मुद्दे पर एक याचिका (बंदी अधिकार आंदोलन, बिहार बनाम भारत संघ और अन्य) सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित है।

    यह कहा गया कि समय के साथ विभिन्न राज्यों ने अलग-अलग नीतियां और मजदूरी में संशोधन किए हैं। हालांकि, यह कैदियों के नुकसान के लिए नहीं हो सकता।

    इसके अलावा, यह प्रार्थना की गई कि कैदियों की मजदूरी को संशोधित करने वाला सरकारी आदेश रद्द कर दिया जाए और राज्य को न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के अनुसार मजदूरी को संशोधित करने का निर्देश दिया जाए।


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