सुप्रीम कोर्ट में असम एनआरसी, विधानसभाओं में आरक्षण, रिश्वत मामलों में सांसदों/विधायकों को छूट से संबंधित मुद्दों पर सुनवाई के लिए नई संविधान पीठ का गठन

Avanish Pathak

6 Sept 2023 12:42 PM IST

  • सुप्रीम कोर्ट में असम एनआरसी, विधानसभाओं में आरक्षण, रिश्वत मामलों में सांसदों/विधायकों को छूट से संबंधित मुद्दों पर सुनवाई के लिए नई संविधान पीठ का गठन

    सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ संवैधानिक महत्व के तीन मामलों की सुनवाई 20 सितंबर, 2023 से शुरू करेगी। हालिया सूचना के अनुसार, संविधान पीठ में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एएस बोपन्ना, जस्टिस एमएम सुंदरेश, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा शामिल होंगे।

    जिन तीन महत्वपूर्ण मामलों पर चर्चा होनी है, वह असम लोक निर्माण बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, अशोक कुमार जैन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और सीता सोरेन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया है।

    उल्लेखनीय है कि असम लोक निर्माण का मामला असम एनआरसी से संबंध‌ित है। अशोक कुमार जैन का मामला लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में एंग्लो-इंडियन समुदाय, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण की वैधता से संबंधित है, जबकि सीता सोरेन के मामले में कोर्ट के समक्ष प्रश्न यह है कि क्या क्या सांसदों और विधायकों को ऐसे अपराध में मुकदमा चलाने से छूट प्राप्त है, जिसमें विधायिका में वोट डालने के लिए रिश्वत की पेशकश या स्वीकृति से संबंधित अपराध किया गया है।

    असम लोक निर्माण बनाम यूनियन ऑफ इंडिया

    यह मामला असम समझौते को आगे बढ़ाने के लिए 1985 में एक संशोधन के जर‌िए शामिल नागरिकता अधिनियम की धारा 6ए की संवैधानिक वैधता की चुनौती से संबंधित है।

    नागरिकता अधिनियम की धारा 6ए असम समझौते के अंतर्गत आने वाले व्यक्तियों की नागरिकता पर एक विशेष प्रावधान है, और यह प्रावधान करती है कि जो लोग एक जनवरी, 1966 और 25 मार्च, 1971 के बीच भारत में आए और असम में रह रहे हैं, उन्हें खुद को भारत के नागरिक के रूप में पंजीकृत करने की अनुमति दी जाएगी।

    गुवाहाटी स्थित सिविल सोसायटी संगठन, असम संमिलिता महासंघ ने 2012 में धारा 6ए को चुनौती दी थी। संगठन ने तर्क दिया कि धारा 6ए भेदभावपूर्ण, मनमाना और अवैध है क्योंकि यह असम और शेष भारत में में प्रवेश करने वाले अवैध प्रवासियों को नियमित करने के लिए अलग-अलग कट-ऑफ तारीखें तय करती है।

    उन्होंने अदालत से 1951 में तैयार एनआरसी में शामिल विवरणों के आधार पर असम राज्य के संबंध में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) को अपडेट करने के लिए संबंधित प्राधिकारी को निर्देश देने की मांग की, न कि 24 मार्च 1971 से पहले के इलेक्टोरल रोल के आधार पर। असम के अन्य संगठनों ने धारा 6ए की वैधता को चुनौती देते हुए याचिकाएं दायर कीं है।

    2014 में जब शीर्ष अदालत ने इस मामले की सुनवाई की तो जस्टिस रोहिंटन नरीमन की अगुवाई वाली दो-जजों की पीठ ने मामले को एक संविधान पीठ के पास भेज दिया। मामले की सुनवाई के लिए संविधान पीठ का गठन 19 अप्रैल 2017 को किया गया, जिसमें जस्टिस मदन बी लोकुर, जस्टिस आरके अग्रवाल, जस्टिस प्रफुल्ल चंद्र पंत, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस अशोक भूषण शामिल थे।

    सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ को छोड़कर उस पीठ में शामिल सभी जजों के सेवानिवृत्त होने के बाद सीजेआई यूयू ललित ने तत्कालीन जज जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एमआर शाह, जस्टिस कृष्ण मुरारी, जस्टिस हेमा कोहली और जस्टिस पीएस नरसिम्हा को शामिल करते हुए एक पीठ का गठन किया।

    हालांकि जस्टिस एमआर शाह और ज‌स्टिस कृष्ण मुरारी के रिटायरमेंट के कारण, संविधान पीठ का दोबार गठन करना पड़ा।

    अशोक कुमार जैन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया

    यह मामला 79वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1999 की वैधता को चुनौती से संबंधित है, जिसने लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में एंग्लोइंडियन समुदाय, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आरक्षण की अनुमति देने के लिए संविधान के अनुच्छेद 334 को बदल दिया गया था।

    उल्लेखनीय यह है कि यह प्रावधान शुरू में 10 वर्षों के लिए लागू किया जाना था। हालांकि, प्रावधान में बाद के संशोधनों के कारण, एससी/एसटी समुदायों के लिए आरक्षण 80 साल तक बढ़ा दिया गया और एंग्लो-इंडियन समुदाय के लिए आरक्षण 70 साल तक बढ़ा दिया गया।

    यह मामला वर्ष 2000 में स्वीकार किया गया था। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया था कि उपरोक्त संशोधन संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है क्योंकि यह बार-बार प्रतिबंधित आरक्षण को बढ़ाता है, जो उन लोगों के समान प्रतिनिधित्व और लोकतांत्रिक अधिकारों को कमजोर करता है जो आरक्षित समुदायों से संबंधित नहीं हैं।

    2003 में सुप्रीम कोर्ट की एक डिवीजन बेंच ने इस मामले को 5 जजों की संविधान पीठ के पास भेज दिया था। 2009 में संसद ने छठी बार अनुच्छेद 334 में संशोधन किया और एससी/एसटी और एंग्लो-इंडियन समुदायों के लिए आरक्षण को 70 साल की अवधि के लिए बढ़ा दिया।

    सीता सोरेन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया

    झारखंड मुक्ति मोर्चा की सदस्य सीता सोरेन पर 2012 के राज्यसभा चुनाव में एक विशेष उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करने के लिए रिश्वत लेने का आरोप लगाया गया था।

    इसके बाद, केंद्रीय जांच ब्यूरो ने एक आरोप पत्र दायर किया था। इसे चुनौती देते हुए, सोरेन ने इस आधार पर झारखंड ‌हाईकोर्ट के समक्ष एक याचिका दायर की कि उन्हें संविधान, 1950 के अनुच्छेद 194 (2) के तहत छूट प्राप्त है, जो इस बात पर विचार करता है, 'किसी राज्य के विधानमंडल का कोई भी सदस्य विधानमंडल में उनके द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए किसी वोट के संबंध में किसी भी अदालत में किसी भी कार्यवाही के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।'

    हाईकोर्ट ने याचिका खारिज कर दी। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपील की सुनवाई के दौरान पीवी नरसिम्हा राव बनाम राज्य के फैसले पर भरोसा किया गया, जिसने संसद में वोट के संबंध में रिश्वत लेने के मामले में मुकदमा चलाने से अनुच्छेद 194(2) के तहत सांसदों को प्राप्त छूट को बरकरार रखा।

    तब सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को एक संविधान पीठ के पास भेजना उचित समझा, जो पीवी नरसिम्हा राव बनाम राज्य में दिए गए फैसले पर पुनर्व‌िचार कर सके।

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