सुप्रीम कोर्ट में एनसीपीसीआर ने हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी, जिसमें माना गया कि 16 वर्षीय मुस्लिम लड़की वैध विवाह में प्रवेश कर सकती है

Sharafat

29 Aug 2022 1:16 PM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट में एनसीपीसीआर ने हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी, जिसमें माना गया कि 16 वर्षीय मुस्लिम लड़की वैध विवाह में प्रवेश कर सकती है

    राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट के हालिया फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक याचिका दायर की है। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि एक 16 वर्षीय मुस्लिम लड़की वैध विवाह में प्रवेश कर सकती है। इस फैसले को एनसीपीसीआर ने शीर्ष न्यायालय में चुनौती दी है।

    एडवोकेट स्वरूपमा चतुर्वेदी के माध्यम से विशेष अनुमति याचिका दायर की गई है।

    पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने इस फैसले में मुस्लिम लड़की (16 वर्ष की उम्र) को सुरक्षा प्रदान की थी, जिसने अपनी पसंद के मुस्लिम लड़के (21 वर्ष) से ​​शादी की।

    अदालत एक जोड़े (दोनों मुस्लिम) द्वारा दायर एक प्रोटेक्शन पिटिशन पर सुनवाई कर रही थी, जिन्होंने मुस्लिम रीति-रिवाजों और समारोहों के अनुसार शादी की थी। कोर्ट ने कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत लड़की की उम्र विवाह योग्य है।

    हाईकोर्ट ने कहा था,

    " कानून, जैसा कि ऊपर उद्धृत विभिन्न निर्णयों में निर्धारित किया गया है, यह स्पष्ट है कि एक मुस्लिम लड़की की शादी मुस्लिम पर्सनल लॉ द्वारा शासित होती है। सर दिनशाह फरदुनजी मुल्ला की पुस्तक 'प्रिंसिपल्स ऑफ मोहम्मडन लॉ' के अनुच्छेद 195 के अनुसार, याचिकाकर्ता नंबर दो 16 वर्ष से अधिक होने के कारण अपनी पसंद के व्यक्ति के साथ विवाह के अनुबंध में प्रवेश करने के लिए सक्षम है।

    याचिकाकर्ता नंबर 1 की उम्र 21 वर्ष से अधिक बताई गई है। इस प्रकार दोनों याचिकाकर्ता मुस्लिम पर्सनल लॉ द्वारा परिकल्पित विवाह योग्य आयु के हैं।

    सर दिनशाह फरदुनजी मुल्ला की पुस्तक 'प्रिंसिपल्स ऑफ मोहम्मडन लॉ' के अनुच्छेद 195 के अनुसार, स्वस्थ दिमाग का प्रत्येक मुसलमान, जिसने यौवन प्राप्त कर लिया है, विवाह के अनुबंध में प्रवेश कर सकता है और पन्द्रह वर्ष की आयु पूर्ण करने पर साक्ष्य के अभाव में यौवन माना जाता है।"

    एनसीपीसीआर की याचिका के अनुसार, हाईकोर्ट का फैसला बाल विवाह की अनुमति दे रहा है और यह बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 का उल्लंघन है। याचिका में कहा गया है कि अधिनियम के प्रावधान धर्मनिरपेक्ष हैं और सभी धर्मों पर लागू होते हैं।

    इसके अलावा, निर्णय लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (The Protection Of Children From Sexual Offences Act, 2012) की भावना के खिलाफ है, जो एक धर्मनिरपेक्ष कानून भी है। कानून के मुताबिक 18 साल से कम उम्र का कोई भी बच्चा वैध सहमति नहीं दे सकता।

    याचिका में आगे तर्क दिया गया कि बाल संरक्षण कानूनों को जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देने वाले संविधान के अनुच्छेद 21 के साथ अलग नहीं देखा जा सकता।

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