मद्रास हाईकोर्ट ने माना, कंपनी एक्ट की धारा 167 (1) (ए) में शामिल शर्त संवैधानिक

LiveLaw News Network

28 Dec 2019 12:30 PM GMT

  • मद्रास हाईकोर्ट ने माना, कंपनी एक्ट की धारा 167 (1) (ए) में शामिल शर्त संवैधानिक

    मद्रास हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने निवेशकों के हितों की रक्षा करते हुए कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 167 (1) (ए) की 'शर्त' की वैधता को बरकरार रखा है।

    मामले में याचिकाकर्ता ने दलील दी थी कि कंपनी अधिनियम, 2013 में शामिल की गई नई शर्त मनमानी है और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों अनुरूप नहीं है, क्योंकि डाइरेक्टर्स को डिफॉल्टर कंपनी में अपनी डाइरेक्टरशिप बरककरार रखते हुए अन्य कंपनियों की डायरेक्टरशिप छोड़नी पड़ेगी।

    बेंच ने इस विवाद को खारिज कर दिया और मामले की विस्तार से जांच की।

    शर्त की आवश्यकता:

    मुकुट पाठक और अन्य बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, 2018 WP.No.9088 के मामले में दिल्‍ली हाईकोर्ट के फैसले पर भरोसा करते हुए कहा गया कि कंपनी अधिनियम 2013 में विवादित शर्त को शामिल करने से पहले, ऐसी कंपनी, जो धारा 164 (2) के तहत ‌‌‌डिफाल्टर है, उसके डाइरेक्टर को केवल उसी कंपनी की डाइरेक्टरशिप छोड़नी पड़ती थी। इस प्रकार एक ‌डिफाल्टर कंपनी के निदेशक पर स्वतः ही धारा 167 (1) लागू हो जाती थी।

    इस प्रकार, कोई भी व्यक्ति उन कंपनियों में निदेशक के रूप में नियुक्त नहीं किया जा सकता था, जो धारा 164 (2) के तहत डिफाल्टर थीं। ऐसी स्थितियों में सुधार करने के लिए संशोधित अधिनियम उक्त शर्त को डाला गया ‌था।

    उद्देश्य:

    खंडपीठ ने विवादित शर्त के विधायी उद्देश्य का परीक्षण किया और सौराष्ट्र सीमेंट लिमिटेड व अन्य बनाम भारत संघ, (2006) SCC ऑनलाइन गुजरात 258 और स्नोसेम इंडिया लिमिटेड व अन्य बनाम भारत संघ, (2004) एससीसी ऑनलाइन बॉम्बे 1085, जहां कंपनी अधिनियम 1956 की धारा 274 (1) (जी) की धाराओं, (जो कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 167 (1) (ए) के समान ही प्रावधान थे) को मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के रूप में चुनौती दी गई थी।

    गुजरात उच्च न्यायालय ने माना कि धारा का उद्देश्य और नीयत गलत निर्देशकों को अयोग्य बनाना, निवेशकों को कुप्रबंधन से बचाना, वार्षिक खातों और वार्षिक रिटर्न दाखिल करने में अनुपालन सुनिश्चित करना है। उक्त प्रावधान का उद्देश्य ऐसे लोगों को दंडित करना नहीं था, जो अयोग्य हैं, बल्‍कि समुदाय को कुप्रबंधन के परिणामों से बचाने के लिए और कॉर्पोरेट प्रबंधकीयता के कुछ मानकों को निर्धारित करना है।

    स्नोसेम इंडिया लिमिटेड व अन्य बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया है कि इस संशोधन ने याचिकाकर्ताओं को किसी भी व्यवसाय, व्यापार या व्यवसाय को जारी रखने से नहीं रोका। ऐसे निदेशकों को केवल अन्य कंपनियों में निदेशक बनने के लिए अक्षम किया गया है।

    यह संशोधन बड़ी संख्या में कंपनियों के डिफाल्टर बनने के मद्देनजर अनिवार्य हो गया और उन्होंने कोई अनुचित वर्गीकरण निर्मित नहीं करता और केवल उन मामलों में एक दंडात्मक था जहां एक निदेशक अपने कर्तव्यों को पूरा करने में विफल रहता था।

    धारा 167 (1) (ए) में शर्त को शामिल किए जाने के पीछे विधायी मंशा भी सुशासन सुनिश्चित करने और पारदर्शिता के माध्यम से निवेशकों में सुरक्षा की भावना पैदा करना और गलती करने वालों निदेशकों पर नियंत्रण करना था, सुप्रीम कोर्ट द्वारा एन नारायणन बनाम एडज्युकेटिंग ऑफिसर, सिक्योरिटी एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया, (2013) 12 एससीसी 152 के मामले में उसी को दोहराया गया।

    यशोधरा श्रॉफ बनाम भारत संघ के मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले को मंजूरी देते हुए डिवीजन बेंच ने कहा कि धारा 167 की उपधारा 1 की उपधारा की वैधता दो आधारों पर थी।

    मद्रास उच्च न्यायालय ने याचिका को खारिज करते हुए कहा कि धारा 167 (1) (ए) में शामिल शर्त न तो प्रकट रूप से मनमानी है और न ही यह भारत के संविधान के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों में पर किसी प्रकार की रोक लगाती है।

    केस का विवरण

    शीर्षक: जी वासुदेवन बनाम भारत संघ

    केस नंबर: WP (c) नंबर .32763 / 2019

    कोरम: मुख्य न्यायाधीश ए पी साही, न्यायमूर्ति सुब्रमणियम प्रसाद

    निर्णय डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



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