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दो पुलिस अधिकारियों ने दर्ज की आईटी एक्ट की धारा 66 ए के तहत एफआईआर, कर्नाटक हाईकोर्ट ने मांगा मुकदमे की लागत का खर्च

LiveLaw News Network
17 Jan 2020 7:04 AM GMT
दो पुलिस अधिकारियों ने दर्ज की आईटी एक्ट की धारा 66 ए के तहत एफआईआर, कर्नाटक हाईकोर्ट ने मांगा मुकदमे की लागत का खर्च
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कर्नाटक हाईकोर्ट ने दो पुलिस अधिकारियों को सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 (ए) के तहत एफआईआर दर्ज करने के लिए, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया था, 10-10 हजार रुपए की लागत का भुगतान करने का निर्देश दिया है।

जस्टिस पी एस दिनेश कुमार ने सहायक उप निरीक्षक एम सोमन्ना और पुलिस निरीक्षक रवि पाटिल को निर्देश दिया है कि वे चार सप्ताह के भीतर हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल के समक्ष लागत का भुगतान करें।

कोर्ट ने कहा "यह एक ऐसा मामला है जिसमें पुलिस ने कानून के उन प्रावधानों को लागू करके आपराधिक कार्यवाही शुरू की है, जो कि कानून की किताब में है ही नहीं। पुलिस ने शुरुआत में शिकायत को एनसीआर के रूप में दर्ज किया। यह कानून की प्रक्रिया का स्पष्ट दुरुपयोग है और नागरिक को परेशान करने के अलावा कुछ भी नहीं है।"

शारदा डीआर ने 25 अप्रैल, 2019 को श्रीरामपुरा पुलिस स्टेशन में दर्ज एफआईआर और कार्यवाही को रद्द करने की मांग करते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया था। याचिकाकर्ता की ओर से पेश अधिवक्ता एम अरुणा श्याम ने दलील दी थी कि पुलिस ने उस अपराध के लिए जांच शुरू कर दी है, जिसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द कर दिया गया है।

कोर्ट ने दोनों अधिकारियों को अपने व्यक्तिगत हलफनामे दाखिल करने का निर्देश दिया, जिसमें उन्होंने बिना शर्त माफी मांगी और कहा कि भविष्य में गलती नहीं दोहराई जाएगी। कोर्ट ने याचिका की अनुमति देते हुए रजिस्ट्रार जनरल को निर्देश दिया कि वह राशि की प्राप्ति की रिपोर्ट कोर्ट को दें।

पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर नोटिस जारी किया था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के ध्यान में लाया गया था कि 2015 के श्रेया सिंघल मामले के रद्द कर दिए जाने के बावजूद बावजूद पुलिस द्वारा धारा 66 ए आईटी अधिनियम का निरंतर उपयोग किया जा रहा है।

दलीलों की की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए जस्टिस रोहिंटन नरीमन और जस्टिस विनीत सरन की पीठ ने कहा कि यदि इसके आदेश का उल्लंघन किया गया है तो संबंधित अधिकारियों को गिरफ्तार किया जाएगा।

धारा 66 ए को "कठोर" माना गया था, क्योंकि इसके कारण कई निर्दोष लोगों की गिरफ्तारी हुई थी, जिसके बाद इसे रद्द किए जाने की मांग उठी थी।

इसके चलते सुप्रीम कोर्ट ने मार्च, 2015 में श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ के मामले में इसे असंवैधानिक करार दिया। अदालत ने फैसला दिया था कि इस प्रावधान ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) द्वारा गारंटीकृत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन किया है और यह अनुच्छेद 19 (2) के तहत दिए गए उचित प्रतिबंधों के अंतर्गत नहीं है।

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