यदि जज रिटायरमेंट के बाद की नियुक्तियों की तलाश करते हैं तो हमारे पास स्वतंत्र न्यायपालिका नहीं हो सकती : जस्टिस दीपक गुप्ता

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19 Feb 2023 7:49 AM GMT

  • यदि जज रिटायरमेंट के बाद की नियुक्तियों की तलाश करते हैं तो हमारे पास स्वतंत्र न्यायपालिका नहीं हो सकती : जस्टिस दीपक गुप्ता

    कैम्पेन फॉर ज्यूडिशियल एकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स (CJAR) द्वारा आयोजित सेमिनार ऑन ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट्स एंड रिफॉर्म्स में एक पारदर्शी और जवाबदेह कॉलेजियम बनाने के मुद्दे पर शनिवार को बोलते हुए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस दीपक गुप्ता ने अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने रिटायरमेंट के बाद के लाभों से न्यायिक स्वतंत्रता से समझौता करने पर अपने विचार रखे। उन्होंने कहा -

    "रिटायरमेंट के बाद कोई लाभ नहीं होना चाहिए। यदि इस तरह के लाभ हैं तो हमारी न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं हो सकती। यदि सेवानिवृत्ति की दहलीज़ पर मौजूद न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद के अपनी नियुक्ति की तलाश करने के लिए सत्ता के गलियारों में भीड़ लगाते हैं तो क्या न्याय की उम्मीद की जा सकती है।"

    जस्टिस गुप्ता ने कॉलेजियम प्रणाली में सुधार के तरीकों का सुझाव देते हुए स्वतंत्र न्यायाधीशों के महत्व पर प्रकाश डाला, जिनके पास खुद के लिए खड़े होने और भारत के संविधान की रक्षा करने की रीढ़ है। उन्होंने देश के सर्वोच्च न्यायालय में संवैधानिक व्याख्या में विविधता की राय के महत्व को भी बताया। उनके अनुसार -

    "...अगर सुप्रीम कोर्ट उदार न्यायाधीशों से भरा हुआ है तो वह भी एक बहुत दुखद दिन होगा। इसमें सभी का मिश्रण होना चाहिए।

    उन्होंने दो मुद्दों की ओर इशारा किया, जिनके बारे में उन्होंने सोचा कि कॉलेजियम के कामकाज को मजबूत करने के लिए इसे संबोधित करने की आवश्यकता है। सबसे पहले, सभी संवैधानिक न्यायालयों के न्यायाधीशों के लिए एक सामान्य सेवानिवृत्ति की आयु।

    जस्टिस गुप्ता ने कहा,

    "एक कारण यह कि सुप्रीम कोर्ट के कुछ न्यायाधीश हाईकोर्ट के सीनियर जज पर एक्सरसाइज़ करते हैं... एक और पहलू यह है कि आपके पास ऐसे न्यायाधीश हैं जो प्रशासनिक रूप से अधिक सक्षम हैं, उन्हें हाईकोर्ट में रखा जा सकता है और जो बौद्धिक रूप से इच्छुक हैं वे सुप्रीम कोर्ट में आ सकते हैं।”

    दूसरे अंतत: सेवानिवृत्ति के बाद के लाभों को समाप्त करना। वह हाईकोर्ट स्तर पर सही न्यायाधीशों की नियुक्ति पर जोर देते हैं, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के अधिकांश न्यायाधीश हाईकोर्ट से नियुक्त किए जाते हैं।

    "यदि आप हाईकोर्ट में सही न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं करते हैं तो आपको सुप्रीम कोर्ट में बेहतर न्यायाधीश कैसे मिलेंगे?"

    यह बताया गया कि आजकल हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश 3 या 4 महीने के लिए पद पर नियुक्त होते हैं, जो संबंधित उच्च न्यायालयों के स्थानीय न्यायाधीशों की क्षमताओं का मूल्यांकन करने में सक्षम होने के लिए पर्याप्त समय नहीं है। इसके अलावा, अक्सर हाईकोर्ट के तीन सबसे सीनियर जज जो कॉलेजियम के सदस्य होते हैं, कम कार्यकाल वाले बाहरी लोग होते हैं ।

    उन्होंने सुझाव दिया कि हाईकोर्ट कॉलेजियम की शक्ति संबंधित उच्च न्यायालयों की शक्ति के आधार पर भिन्न हो सकती है। जस्टिस गुप्ता की राय थी कि कॉलेजियम में कम से कम एक न्यायाधीश का होना फायदेमंद होगा जो अपने हाईकोर्ट के स्थानीय न्यायाधीशों को जानता हो।

    जस्टिस गुप्ता ने सुझाव रखा कि राज्य का जवाब देने का समय निर्धारित किया जाना चाहिए, जिसके बाद फ़ाइल स्वचालित रूप से जांच एजेंसियों के पास जाएगी और उनकी रिपोर्ट मांगी जाएगी। उन्होंने माना कि एक उम्मीदवार के खड़े होने के बारे में जानकारी बार सहित सभी स्टेक होल्डर से ली जा सकती है। हालांकि वह बहुत स्पष्ट हैं, उस स्थिति में बार को स्वतंत्र होने की आवश्यकता है।

    जस्टिस गुप्ता ने भेदभाव के गंभीर मुद्दे को उठाया,

    "जब सुप्रीम कोर्ट की बात आती है... सुप्रीम कोर्ट में छोटे हाईकोर्ट की उपेक्षा की जाती है, क्योंकि इन हाईकोर्ट से कोई भी नहीं है जो सुप्रीम कोर्ट में बैठा हो।"

    उन्होंने कहा कि यह सुनिश्चित करने का एक तरीका है कि छोटी अदालतों की सिफारिशों को नजरअंदाज न किया जाए, फाइलों को उनके आते ही लिया जाए। अन्यथा, उन्होंने चिंता व्यक्त की कि न्यायाधीशों की वरिष्ठता प्रभावित होगी।

    “नामों को हमेशा कालानुक्रमिक (chronological manner) तरीके से लिया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के स्तर पर विभिन्न हाईकोर्ट के बीच भेदभाव क्यों होना चाहिए? क्योंकि सरकार जो कर रही है, कॉलेजियम भी कर रहा है।”

    जस्टिस गुप्ता ने खुलासा किया कि उम्मीदवार का धर्म सरकार के उनके नामों पर विचार करने की समय सीमा को कैसे प्रभावित कर रहा है। यदि किसी सिफारिश को सरकार द्वारा अनुमोदित होने में 100 दिन लगते हैं, यदि उम्मीदवार ईसाई है तो 266 दिन और मुस्लिम होने पर 350 से अधिक दिन लगते हैं।

    "मुझे पता चला है, लेकिन वैरिफाइड नहीं है कि सरकार द्वारा सिफारिश को मंजूरी देने में आम तौर पर 100 दिन लगते हैं। यदि वह ईसाई है तो 266 दिन लगते हैं, यदि वह मुसलमान है तो 350 से अधिक दिन लगते हैं।"

    उन्होंने चिंता व्यक्त की-

    "अगर ये आंकड़े सही हैं और मैं उन्हें सही मानता हूं, तो यह एक बहुत ही खतरनाक प्रथा है तो आप यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि वे कभी सीनियर जज न बनें, सीजे न बनें और कभी सुप्रीम कोर्ट न पहुंचे, इसलिए यह पब्लिक डोमेन में होना चाहिए, ताकि हम सवाल पूछ सकें।”

    जस्टिस गुप्ता ने जोर देकर कहा कि समय-सीमा निर्धारित की जानी चाहिए और उसका पालन किया जाना चाहिए। उन्होंने जोड़ा -

    “सुप्रीम कोर्ट को जरूरत पड़ने पर व्हिप को क्रैक करना चाहिए, अगर सरकार द्वारा पुनरावृत्तियों को स्वीकार नहीं किया जाता है तो उन्हें इसे स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। यह कानून का शासन लागू करना है, अन्यथा हम अराजकता की ओर बढ़ रहे हैं।”

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