इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा, न्यायिक प्रक्रिया को अनावश्यक उत्पीड़न का औजार नहीं होना चाहिए

LiveLaw News Network

28 Dec 2019 3:15 PM GMT

  • इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा, न्यायिक प्रक्रिया को अनावश्यक उत्पीड़न का औजार नहीं होना चाहिए

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मानहानि के एक मामले में एक समाचार पत्र के संपादकीय कर्मियों के खिलाफ दिए सम्म‍न के आदेश को रद्द करते हुए अदालतों को अपने विवेकाधिकारों का प्रयोग करने में सावधानी बरतने को कहा है।

    "प्रेस की ये जिम्‍मेदारी है कि वह सरकार और उसके पदाधिकारियों को, अगर वे गलत व्यवहार करते हैं या कानून और संवैधानिक सिद्धांतों के खिलाफ काम करते हैं तो उन्हें बेनकाब करे। यदि प्रेस को लगता है कि उसे मुकदमे फंसाने की धमकी जी रही है रहा है तो वह अपना कर्तव्य नहीं निभा सकता है, और यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत प्रदत्त स्वतंत्र भाषण और स्वतंत्रता के अधिकार को बुरी तरह से प्रभावित करता है. जस्टिस दिनेश कुमार सिंह ने ये टिप्पणी की।"

    बैकग्राउंडः

    अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने एक हिंदी समाचार 'राष्ट्रीय सहारा' के समूह संपादक, स्थानीय संपादक और प्रेस रिपोर्टर (आवेदक) को तत्कालीन ऊर्जा मंत्री (उत्तरदाता) द्वारा दायर मानहानि मामले में तलब किया था।

    आवेदकों ने कथित तौर पर प्रतिवादी के खिलाफ झूठी खबर प्रकाशित की थी, जिसमें प्रतिवादी को एक सिविल इंजीनियर से 10 लाख रिश्वत मांगने की बात कही गई थी और पैसे न देने के कारण उसे स्थानांतरित कर दिया गया था।

    प्रतिवादी ने दलील दी थी कि आवेदकों ने एक-दूसरे के साथ मिलीभगत की थी, और उपरोक्त समाचार को प्रकाशित किया था, जिसका उद्देश्य उन्हें बदनाम करना था, साथ ही साथ जनता की नजरों में राज्य की प्रतिष्ठा को गिराना था।

    जांच के नतीजे

    कोर्ट, जिसे सम्मन के आदेश की स्थिरता को तय करना था, दो मोर्चों पर मामले का आकलन किया। कोर्ट ने कहा कि मानहानी के अपराधा के मामलों का तय करने में "इरादा" पहला महत्वपूर्ण कारक है।

    कोर्ट ने कहा, "धारा 499 आईपीसी के तहत मानहानि के अपराध तय करने के लिए आरोप होना चाहिए, और इसे नुकसान पहुंचाने के इरादे से लगाया गया हो या यह मानने का कारण हो कि यह आरोप किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाएगा. शिकायतकर्ता को ये स्पष्‍ट करना होगा कि अभियुक्त का इरादा था या अभियुक्त के पास यह मानने का उचित कारण था कि उसके द्वारा लगाया गया आरोप शिकायतकर्ता की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाएगी।''

    अदालत ने कहा कि विवाद‌ित समचार तथ्यात्मक रूप से दो पत्रों पर आधारित था। प्रतिवादी ने उन पत्रों को विकृत करने की कोशिश नहीं की। कोर्ट ने कहा,

    "समाचार तथ्यात्मक रूप से दो पत्रों पर आधारित था। यदि कोई आरोप नहीं है, तो यह नहीं कहा जा सकता है कि मानहानि का अपराध अभियुक्त द्वारा किया गया है। शिकायत में यह नहीं कहा गया है कि कि ये दोनों पत्र जाली हैं। यदि इन दो पत्रों से इनकार नहीं किया जाता है तो समाचारों को किसी भी तरीके से मानहानि नहीं कहा जा सकता है। "

    दूसरा पहलू मानहानि के मुकदमे की स्थिरता के संबंध में था, खासकर सीआरपीसी की धारा 199 के संदर्भ में। इस प्रावधान के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति किसी मंत्री को, उसके सार्वजनिक कार्यों के निर्वहन के संबंध में दोषी ठहराता है तो सत्र न्यायालय, इस तरह के अपराध का संज्ञान ले सकता है. हालांकि, मौजूदा मामले में उत्तरदाता द्वारा इस आवश्यकता को पूरा नहीं किया गया था। कोर्ट ने कहा,

    "मजिस्ट्रेट के सामने शिकायत कायम नहीं रह सकती क्योंकि विशिष्ट प्रावधान है कि यदि मानहानि का आरोप धारा 199 (2) सीआरपीसी में तहत किसी व्यक्ति द्वारा सार्वजनिक कर्तव्य के ‌निर्वहन के संबंध में लगाया गया है तो शिकायत को सरकारी वकील के माध्यम से सत्र न्यायालय में दायर किया जाना चाहिए।" वर्तमान मामले में, राज्य सरकार में ऊर्जा मंत्री के कामकाज के संबंध में समाचार प्रकाशित किया गया था, शिकायत, निर्धारित रूप में मंजूरी लेने के बाद, केवल लोक अभियोजक के माध्यम से दायर की जा सकती थी।"

    अदालतों को विवेकाधिकार के प्रयोग के मामले में सावधानी बरतने और विवेकपूर्ण व्यवहार करने की हिदायत देते हुए कोर्ट ने कहा,

    "आपराधिक मानहानि के अपराध के लिए शिकायत की जांच करने की जिम्‍मेदारी मजिस्ट्रेट की है, और उसे स्वयं तय करना है धारा 499 आईपीसी के तहत सभी बिंदुओं की पु‌‌‌ष्ट‌ि हो रही हो। मजिस्ट्रेट को शिकायत के मामले में संज्ञान लेने और आरोपी को तलब करने से पहले, अपना न्यायिक विवेक भी प्रयोग करना चाहिए "

    पेप्सी फूड्स लिमिटेड व अन्य बनाम विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट व अन्य (1998) 5 एससीसी 749 के मामले में सुप्रीम कोर्ट को हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा,

    "यह अच्छी तरह से तय किया गया है कि न्यायिक प्रक्रिया को संचालन या अनावश्यक उत्पीड़न का साधन नहीं होना चाहिए। न्यायालय को विवेक का उपयोग करने में चौकन्‍ना और न्यायिक होना चाहिए और सभी प्रासंगिक तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखने के बाद ही प्रक्रिया शुरु करनी चाहिए। न्यायिक प्रक्रिया किसी व्यक्ति को परेशान करने के लिए शिकायतकर्ता के हाथों में एक उपकरण नहीं होनी चाहिए।"

    मामले का विवरण:

    केस: रणविजय सिंह व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश व अन्य

    केस नं: आवेदन यू / एस 482 नंबर 284/2013

    कोरम: जस्टिस दिनेश कुमार सिंह

    वकील: एडवोकेट संतोष श्रीवास्तव, जनार्दन सिंह और मुहम्मद आसिफ सरवर (आवेदकों के लिए); सरकारी वकील मनोज कुमार द्विवेदी (उत्तरदाताओं के लिए)

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