जिम्बाब्वे हाइकोर्ट ने भारत की सुप्रीम कोर्ट से प्रभावित होकर दिया फैसला, ट्रांसजेंडर्स के खिलाफ भेदभाव को खत्म किया

LiveLaw News Network

30 Nov 2019 11:07 AM GMT

  • जिम्बाब्वे हाइकोर्ट ने भारत की सुप्रीम कोर्ट से प्रभावित होकर दिया फैसला, ट्रांसजेंडर्स के खिलाफ भेदभाव को खत्म किया

    कोर्ट रिकी नैथनसन द्वारा हर्जाने के लिए दायर किए गए एक मुकदमे पर विचार कर रहा था, जिसमें उसने आरोप लगाया था कि उसे गैरकानूनी तरीके से हिरासत में रखा गया, उस पर आरोप लगाया गया कि " वो एक पुरुष है और महिला होने का नाटक कर रही है।"

    एक ऐतिहास‌िक फैसले में जिम्बाब्वे हाईकोर्ट ने माना है कि ट्रांसजेंडर नागरिक जिम्बाब्वे के समाज का हिस्सा हैं और उनके अधिकारों को भी अन्य नागरिकों की तरह मान्यता प्रदान की जानी चाहिए।

    जिम्बाब्वे की कोर्ट, जिसने मुख्य रूप से भारत की सुप्रीम कोर्ट द्वारा नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ के मामले में दिए फैसले पर भरोसा किया और कहा कि कहा कि हमारा संविधान ट्रांसजेडर नागर‌िकों से भेदभाव नहीं करता है।

    जज बेरे ने अपने फैसले में कहा कि मौजूदा मामला जिम्बाब्वे में अल्पसंख्यक अधिकारों को लेकर सवाल उठाता है और उम्मीद बंधती है कि ये निर्णय इन मुद्दों पर राष्ट्रीय स्तर खुली बहस छेड़ने में मदद करेगा, जिन पर खुली चर्चा करने के मामले में हम शर्मीले या कम उत्साही दिखाई देते हैं।

    कोर्ट रिकी नैथनसन द्वारा हर्जाने के लिए दायर किए गए एक मुकदमे पर विचार कर रहा था, जिसमें उसने आरोप लगाया था कि उसे गैरकानूनी तरीके से गिरफ्तार किया गया और हिरासत में रखा गया, उस पर आरोप लगाया गया कि " वो एक पुरुष है और महिला होने का नाटक कर रही है।" कोर्ट ने उसके दावे को स्वीकार करते हुए प्रतिवादियों को गैरकानूनी गिरफ्तारी के लिए $100 000-00, दुर्भावनापूर्ण मुकदमा चलाने के लिए $100 000-00, भावनात्मक कष्ट और अपमान के लिए $200 000-00 हर्जाने के रूप में भरने का आदेश दिया।

    जज बेरे ने अपने फैसले में नवतेज सिंह जौहर के मामले में दिए जस्टिस दीपक मिश्रा के फैसले का उद्घरण दिया। उन्‍होंने लिखाः

    मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि यद्यप‌ि भारत की सुप्रीम कोर्ट का ध्यान भारतीय नागरिकों के अधिकारों पर रहा होगा, हालांकि ट्रांसजेंडर नागरिकों और उनकी उम्मीदों के विश्लेषण में फैसले में अंतररष्ट्रीय सुवास मौजूद है। मैं अपने देश के संविधान से तुलना करता हूं, जिसके बिल ऑफ राइट्स में नागरिकों के खिलाफ किसी भी प्रकार की भेदभाव की बात नहीं की गई है और मैं ट्रांसजेंडरों के सवालों पर भारतीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा किए गए विश्लेषण से प्रेरणा लेता हूं। ये वे नागरिक हैं जो अन्य बातों के साथ-साथ अपनी हार्मोनल बनावट के कारण जन्म के समय से ही अपने नियत लिंग के मुताबिक न होकर अलहदा हो गए। हम उन्हें जैसा बनाना चाहते हैं, उनका व्यवहार उनके ‌विपरीत रहता है। उन्हें जन्म के समय जो लैंगिक पहचान दी जाती है, उनकी आत्म-पहचान के साथ मेल नहीं खाती। उनका व्यवहार किसी हठ या रोमांच से तय नहीं होता, बल्कि वो जो खुद को समझते हैं, उनका व्यवहार उसी से संचालित रहता है।

    बेंच ने जस्टिस केएस राधाकृष्णन का भी हवाला दिया, जिन्होंने राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ के मामले में फैसला दिया था। हाईकोर्ट ने अपने फैसले के समापन में कहाः

    इस निर्णय को समाप्त करने में, मेरा मानना है कि भारत के विद्वान मुख्य न्यायाधीश, दीपक मिश्रा के ज्ञानपूर्ण शब्दों को उधार लेते हुए, जो लाभदायक और शिक्षाप्रद दोनों है, "किसी व्यक्ति का अद्वितीयता पर जोर उसके जीवन का आधार है। आत्म-अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध मृत्यु का अंमत्रण है। व्यक्तित्व और पहचान की अचलता स्वयं का दिया गया सम्‍मान है। यह अहसास किसी का हस्ताक्षर और स्वयं-निर्धारित डिजाइन है। एक व्यक्ति को ही खुद को परिभाषित करता है। यह व्यक्तित्व का गौरवशाली रूप है।"

    अदालत ने यह भी कहा कि, इस मामले में वादी के साथ हुई घटना की पुनरावृत्ति से बचने के लिए, यह समझदारी भरा होगा कि सार्वजनिक स्थानों पर रेस्टिंग रूम के अलावा यूनिसेक्स शौचालय का निर्माण भी किया जाए। निर्णय इस प्रकार रहाः "ट्रांसजेंडर नागरिक जिम्बाब्वे के समाज का हिस्सा हैं। उनके अधिकारों को अन्य नागरिकों की तरह मान्यता मिलनी चाहिए। हमारा संविधान उनके साथ भेदभाव की इजाजत नहीं देता है। ये ट्रांसजेंडर्स के अधिकारों की कामना करने के लिए भ्रमपूर्ण सोच के अलावा कुछ भी नहीं है।"

    जिम्‍बाब्वे हाईकोर्ट के फैसले में उद्धृत सुप्रीम कोर्ट ऑफ इं‌डिया के फैसले के अंश

    "राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ व अन्य के मामले में, जिसे नालसा केस के रूप में जाना जाता है, पहचान का गौरव स्पष्‍ट रूप से बताया गया है, जहां कोर्ट ने ट्रांसजेंडरों की स्थिति पर विचार किया था। राधाकृष्णन जे ने कुछ अंतरराष्‍ट्रीय संविदाओं और फैसलों की शृंखला का हवाला देते हुए राय दी थी कि लिंग की पहचान जीवन के सबसे बुनियादी पहलुओं में से एक है जो किसी व्यक्ति के पुरुष, महिला या ट्रांसजेंडर व्यक्ति होने की आंतरिक भावना को संदर्भित करता है। एक व्यक्ति का लिंग निर्धारण आमतौर पर जन्म के समय होता है, लेकिन व्यक्तियों का अपेक्षाकृत एक छोटा समूह ऐसे शरीर के साथ पैदा हो सकता है, जिसमें पुरुष और महिला दोनों का, दोनों के शरीरों के मनोविज्ञान को कुछ पहलु शामिल हों।

    विद्वान न्यायाधीश ने आगे कहा कि कई बार, जननांग शरीर रचना की समस्याएं कुछ व्यक्तियों में इस अर्थ में उत्पन्न हो सकती हैं कि उनकी खुद के बारे में जन्मजात धारणा जन्म के समय निर्धारित उनके लिंग के अनुरूप नहीं होती है, इसमें प्री और पोस्ट ऑपरेटिव ट्रांससेक्सुअल व्यक्ति और वो व्यक्ति भी शामिल हो सकते हैं, जो ऑपरेशन से गुजरना नहीं चाहते या जो ऑपरेशन नहीं करवा सकते हैंऔर ऐसे व्यक्ति भी शामिल हैं जिनके ऑपरेशन सफल नहीं रहे। आगे विस्तार करते हुए उन्होंने कहा: - "लिंग की पहचान प्रत्येक व्यक्ति के लिंग के आंतरिक और व्यक्तिगत अनुभव को गहराई से संदर्भित करती है, जिसमें एक स्वतंत्र रूप से चुना गया, शारीरिक बनावट या क्रिया-कलाप में चिकित्सा, शल्य चिकित्सा या अन्य साधनों द्वारा बदलाव और लिंग के अन्य भाव, जिनमें पोशाक और हावभाव आद‌ि शमिल है। लिंग पहचान इसलिए एक व्यक्ति की पुरुष, महिला, ट्रांसजेंडर या किसी अन्य पहचानी हुई कैटेगरी के रूप में आत्म-पहचान को संदर्भित करता है।" [नवतेज सिंह जौहर]

    "अनुच्छेद 15 और 16 के तहत" सेक्स "के आधार पर भेदभाव में लिंग पहचान के आधार पर भेदभाव भी शामिल है। अनुच्छेद 15 और 16 में प्रयुक्त" सेक्स "की अभिव्यक्ति सिर्फ पुरुष या महिला के जैविक सेक्स तक सीमित नहीं है, उन लोगों को शामिल करने का भी इरादा रखती है, जो खुद को न तो पुरुष मानते हैं और न ही महिला "[नवतेज सिंह जौहर]

    " खुद पहचाना गया लिंग पुरुष या महिला या ट्रांसजेंडर हो सकता है। हिजड़ों की पहचान तीसरे लिंग के व्यक्तियों के रूप में की जाती है और उन्हें पुरुष या महिला के रूप में पहचाना नहीं जाता है। लिंग पहचान, जैसा कि पहले ही संकेत दिया गया है, किसी व्यक्ति की आंतरिक पुरुष, महिला या एक ट्रांसजेंडर होने की आंतर‌िक समझ से जुड़ा होता है, उदाहरण के लिए हिजड़े स्‍त्री जननांगों और प्रजनन क्षमता की कमी के कारण महिला के रूप में खुद की पहचान नहीं करते हैं। यह भेद उन्हें पुरुष और महिला दोनों लिंगों से अलग बनाता है और वे खुद को न तो पुरुष मानते हैं और न महिला, बल्कि एक "तीसरा लिंग" मानते हैं।" [NALSA]

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