"अगर कोविड ना होता, तो ये मामला सुना होता " : सीजेआई ने चुनावी बॉन्ड मामले की जल्द सुनवाई पर सहमति जताई
LiveLaw News Network
5 April 2022 12:30 PM IST
भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना मंगलवार को अधिवक्ता प्रशांत भूषण द्वारा किए गए उल्लेख पर चुनावी बॉन्ड योजना को चुनौती देने वाली याचिका पर जल्द सुनवाई के लिए सहमत हुए।
भूषण ने प्रस्तुत किया,
"यह मामला एक साल से अधिक समय से सूचीबद्ध नहीं हुआ। हर दो महीने में, चुनावी बॉन्ड की नई किश्त जारी की जाती है। वास्तव में आज, एक रिपोर्ट है कि कलकत्ता की एक कंपनी ने आबकारी छापे को रोकने के लिए चुनावी बांड के माध्यम से 40 करोड़ रुपये का भुगतान किया है। यह लोकतंत्र को विकृत कर रहा है।"
सीजेआई रमना ने कहा,
"अगर कोविड के कारण ये नहीं होता, तो हमने यह सुना होता। देखते हैं, हम इसे सुनेंगे। "
भूषण एनजीओ एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स द्वारा वित्त अधिनियम 2017 के माध्यम से शुरू की गई चुनावी बॉन्ड योजना को चुनौती देने वाली याचिका का उल्लेख कर रहे थे। याचिका बहुत पहले 2017 में दायर की गई थी। पिछले साल अप्रैल में, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे के नेतृत्व वाली पीठ ने 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव से पहले चुनावी बॉन्ड योजना पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था, यह देखते हुए कि योजना में पर्याप्त सुरक्षा उपाय हैं। पीठ ने कहा कि यह योजना बैंकिंग चैनलों के माध्यम से राजनीतिक चंदा सुनिश्चित करने के लिए शुरू की गई थी। दाता की पहचान न छापने की चिंताओं के संबंध में, पीठ ने कहा था कि सार्वजनिक अधिकारियों के समक्ष दायर रिकॉर्ड से जानकारी निकालकर और "निम्नलिखित का मिलान" करके इसे " भेदा" किया जा सकता है।
पृष्ठभूमि
दरअसल याचिकाकर्ता एनजीओ एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ( एडीआर) ने 2017 में वित्त अधिनियम 2017 के प्रावधानों को चुनौती देते हुए एक रिट याचिका दायर की थी जिसमें गुमनाम चुनावी बॉन्ड का रास्ता खोला गया था।
हाल की मीडिया रिपोर्टों के प्रकाश में कि केंद्र सरकार ने भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और भारतीय चुनाव आयोग ( ईसीआई) द्वारा उठाई गई गंभीर आपत्तियों की अनदेखी करते हुए चुनावी बॉन्ड स्कीम को आगे बढ़ाया, एनजीओ एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ( एडीआर) ने इस विवादास्पद योजना पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक अर्जी दाखिल की है ।
रोक लगाने के आवेदन में, एडीआर ने कहा है कि इन रिपोर्टों से पता चला है कि आरबीआई ने सरकार को चुनावी बॉन्ड स्कीम के खिलाफ बार-बार चेतावनी दी है कि यह "काले धन को बढ़ाने, धन शोधन, सीमा पार से जाली नोट और जालसाजी को बढ़ाने की क्षमता रखता है।
दरअसल 12 अप्रैल 2019 को राजनीतिक दलों को चंदे की चुनावी बॉन्ड योजना में दखल न देने की केंद्र सरकार की दलीलों को दरकिनार रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम निर्देश पारित किया था जिसमें सभी राजनीतिक दलों को निर्देश दिया गया कि वे 15 मई तक चुनावी बॉन्ड के माध्यम से प्राप्त योगदान का पूरा ब्योरा चुनाव आयोग को दें। हालांकि पीठ ने बॉन्ड पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था।
चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अगुवाई वाली पीठ ने कहा था कि चुनावी बॉन्ड और उनकी पारदर्शिता की कमी एक "वजनदार" मुद्दा है और इसके लिए गहन सुनवाई की आवश्यकता है।
अदालत ने सभी राजनीतिक दलों को प्रत्येक दाता के विवरण, प्राप्त राशि के साथ चुनावी बॉन्ड का पूरा ब्योरा सीलबंद लिफाफे में 30 मई 2019 तक चुनाव आयोग को देने के निर्देश दिए थे। चुनाव आयोग को भी कहा गया कि वो इस ब्योरे को सुरक्षित रखे।
पीठ ने कहा था कि फिलहाल दोनों पक्षों के बीच संतुलन बनाने के लिए ये अंतरिम आदेश जारी किए गए हैं। पीठ इसके बाद इसकी विस्तृत सुनवाई की तारीख तय करेगी लेकिन अभी तक सुनवाई नहीं हुई है।
पीठ ने वित्त मंत्रालय को उसके हालिया नोटिफिकेशन को संशोधित करने को कहा था जिसमें जनवरी में 10 दिनों के और अप्रैल में 10 दिनों के अतिरिक्त चुनावी बॉन्ड की खरीद की अनुमति दी गई थी।
भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने केंद्र सरकार की ओर से पेश हुए अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल, चुनाव आयोग के लिए वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी और एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) की ओर से प्रशांत भूषण की दलीलों को सुनने के बाद फैसला सुरक्षित रखा था।
इस दौरान चुनाव आयोग ने कहा था कि आयोग पारदर्शिता सुनिश्चित करना चाहता है, जिसे वर्तमान में चुनावी बॉन्ड के रूप में सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। इससे राजनीतिक दलों को शेल कंपनियों के माध्यम से बेनामी कॉरपोरेट चंदे के लिए काले धन का उपयोग बढ़ सकता है।
केंद्र सरकार से असहमति जताते हुए भारतीय चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि 'इलेक्टोरल बॉन्ड्स स्कीम' का राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता पर गंभीर प्रभाव पड़ता है और आयोग द्वारा खुलासा किया गया कि उसने इस योजना के लिए आधारशिला रखने के लिए विधायी संशोधन वित्त अधिनियम 2017 के पारित होने के तुरंत बाद मई 2017 में ही इस पर चिंता व्यक्त कर दी थी।
आयोग ने कहा कि यदि योगदान की रिपोर्ट नहीं की जाती है तो यह पता लगाना संभव नहीं होगा कि राजनीतिक दलों ने सरकारी कंपनियों और विदेशी स्रोतों से चंदा तो नहीं लिया है जो कि जनप्रतिनिधि अधिनियम की धारा 29 बी के तहत निषिद्ध है।
आयोग द्वारा कंपनी अधिनियम 2013 में किए गए संशोधनों पर भी सवाल उठाए गए।अधिनियम की धारा 182 में संशोधन ने यह प्रतिबंध हटा दिया कि योगदान केवल तीन पूर्ववर्ती वित्तीय वर्षों के शुद्ध औसत लाभ का 7.5% की सीमा तक ही किया जा सकता है। यहां तक कि नई कंपनियों को भी चुनावी बॉन्ड के माध्यम से चंदा देने में सक्षम बनाया गया है।
हलफनामे में कहा गया कि इससे राजनीतिक दलों को चंदा देने के एकमात्र उद्देश्य के लिए शेल कंपनियों के स्थापित होने की संभावना है। साथ ही धारा 182 (3) में संशोधन ने इस प्रावधान को समाप्त कर दिया कि कंपनियों को अपने लाभ और हानि खातों में अपने राजनीतिक योगदान की घोषणा करनी चाहिए। यह कदम "पारदर्शिता से समझौता करेगा" और शेल कंपनियों के माध्यम से "राजनीतिक फंडिंग के लिए काले धन के बढ़ते उपयोग" को जन्म दे सकता है।
आयोग ने मंत्रालय से यह सुनिश्चित करने का आग्रह किया था कि केवल साबित ट्रैक रिकॉर्ड वाली लाभदायक कंपनियों को ही राजनीतिक दान करने की अनुमति दी जाए।
चुनाव आयोग ने कहा था कि उसने आरपीए एक्ट में संशोधन का सुझाव दिया था कि 20,000 रुपये की मौजूदा सीमा से कम नकद दान के लिए भी रिपोर्टिंग को अनिवार्य बनाया जाए अगर कुल नकद योगदान 20 करोड़ या कुल योगदान के 20 प्रतिशत से अधिक हो, जो भी कम हो।
उसने आगे सुझाव दिया कि राजनैतिक दलों के योगदान की रिपोर्ट आयोग की वेबसाइट में अपलोड की जानी चाहिए। आयोग ने यह भी सुझाव दिया था कि 2000 रुपये की वर्तमान सीमा के बजाय इससे ऊपर या उसके बराबर का अनाम योगदान भी निषिद्ध होना चाहिए।
शुरुआत में एजी ने कहा कि चुनावी बॉन्ड की योजना का उद्देश्य चुनावों में काले धन पर अंकुश लगाना है। उन्होंने कहा था कि काले धन के खात्मे के लिए चुनावी बॉन्ड की योजना शुरू की गई थी और यह पॉलिसी का विषय है। इसे करने की कोशिश के लिए किसी भी सरकार को दोष नहीं दिया जा सकता।
उन्होंने कहा था कि योजना के दुरुपयोग के खिलाफ पर्याप्त सुरक्षा उपाय हैं और ये बॉन्ड केवल भारतीय स्टेट बैंक के माध्यम से प्राप्त किए जाते हैं, जो बॉन्ड के खरीदार की पहचान बनाए रखेंगे। लेकिन जिस पार्टी को बॉन्ड प्राप्त हुआ, वह गोपनीय होगा।
उन्होंने कहा था कि बैंक खरीदार का केवाईसी बनाए रखेगा। एक राजनीतिक दल चुनावी बॉन्ड के लिए केवल एक चालू खाता खोल सकता है। सरकार ने यह सुनिश्चित करने के लिए हर संभव प्रयास किया है कि चुनावी बॉन्ड के माध्यम से चंदा देने वालों की पहचान का खुलासा न हो।
एजी ने कहा था कि हर चुनाव में भ्रष्टाचार और कदाचार हो रहा है और मतदाताओं को लुभाने के लिए हर गैरकानूनी तरीका अपनाया जा रहा है, यही जीवन का तरीका है। चुनावी बॉन्ड की योजना उसी पर अंकुश लगाने का एक प्रयोग है और न्यायालय को कम से कम लोकसभा चुनाव के अंत तक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। नई सरकार के सत्ता में आने के बाद वह इस योजना की समीक्षा करेगी।
इससे पहले 2 जनवरी, 2018 को केंद्र ने चुनावी बॉन्ड के लिए योजना को अधिसूचित किया था जो कि एक भारतीय नागरिक या भारत में निगमित निकाय द्वारा खरीदे जा सकते हैं। ये बॉन्ड एक अधिकृत बैंक से ही खरीदे जा सकते हैं और राजनीतिक पार्टी को जारी किए जा सकते हैं। पार्टी 15 दिनों के भीतर बॉन्ड को भुना सकती है। दाता की पहचान केवल उसी बैंक को होगी जिसे गुमनाम रखा जाएगा।
केंद्र का कहना है कि "यह योजना वैध केवाईसी और ऑडिट ट्रेल के साथ बॉन्ड प्राप्त करने की एक पारदर्शी प्रणाली बनाने की परिकल्पना करती है। जो इन बॉन्डों को खरीदते हैं, वे बैलेंस शीट में किए गए ऐसे दान के बारे में बताएंगे। चुनावी बॉन्ड दानकर्ताओं को बैंकिंग मार्ग से दान करने के लिए प्रेरित करेगा।यह पारदर्शिता, जवाबदेही और चुनावी सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम सुनिश्चित करेगा।
11 मार्च को 2019 सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दलों को चंदे के लिए जारी चुनावी बॉन्ड की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर केंद्र सरकार और चुनाव आयोग को अपना जवाब दाखिल करने को कहा था।
ये कदम भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स व अन्य द्वारा दायर की गई याचिका पर उठाया गया। इस मुद्दे पर दाखिल याचिकाओं में केंद्र सरकार द्वारा वित्त अधिनियम 2017, कंपनी अधिनियम, विदेशी अंशदान विनियम अधिनियम और आयकर अधिनियम के माध्यम से पेश संशोधनों को चुनौती दी गई।