राजनीतिक दलों को चुनावी बॉन्ड के माध्यम से चंदे की योजना को केंद्र सरकार ने आगे बढ़ाया, सुप्रीम कोर्ट में अभी तक नहीं हुई सुनवाई

LiveLaw News Network

1 Oct 2019 11:28 AM IST

  • राजनीतिक दलों को चुनावी बॉन्ड के माध्यम से चंदे की योजना को केंद्र सरकार ने आगे बढ़ाया, सुप्रीम कोर्ट में अभी तक नहीं हुई सुनवाई

    भारत के चुनाव आयोग सहित कई वर्गों की उन आलोचनाओं को अनदेखा करते हुए कि गुमनाम चुनावी बॉन्ड योजना राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है, केंद्र सरकार चुनावी बॉन्ड जारी करने के एक और दौर को मंजूरी देने के लिए गंभीरता से आगे बढ़ी है।

    महाराष्ट्र और हरियाणा में आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर केंद्र सरकार ने सोमवार को भारतीय स्टेट बैंक की शाखाओं के माध्यम से 1 से 10 अक्टूबर तक चुनावी बांड जारी करने की घोषणा की है। इन बांडों का इस्तेमाल व्यक्तियों और कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को गुमनाम रूप से चंदा देने के लिए किया जा सकता है। सरकार ने शायद चुनावी बॉन्ड योजनाओं की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को तय करने में सुप्रीम कोर्ट की ओर से की गई बेवजह की देरी के चलते ये कदम उठाया है।

    सुप्रीम कोर्ट ने सभी राजनीतिक दलों को बॉन्ड के जरिये प्राप्त योगदान का पूरा ब्योरा चुनाव आयोग को देने को कहा था

    दरअसल 12 अप्रैल को राजनीतिक दलों को चंदे की चुनावी बॉन्ड योजना में दखल न देने की केंद्र सरकार की दलीलों को दरकिनार रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक अंतरिम निर्देश पारित किया था जिसमें सभी राजनीतिक दलों को यह निर्देश दिया गया था कि वे 15 मई तक चुनावी बॉन्ड के माध्यम से प्राप्त योगदान का पूरा ब्योरा चुनाव आयोग को दें। हालांकि पीठ ने बॉन्ड पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था।

    चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अगुवाई वाली पीठ ने यह कहा था कि चुनावी बॉन्ड और उनकी पारदर्शिता की कमी एक "वजनदार" मुद्दा है और इसके लिए गहन सुनवाई की आवश्यकता है।

    30 मई तक दिया जाना था दानकर्ता का ब्यौरा

    इसके साथ ही अदालत ने सभी राजनीतिक दलों को प्रत्येक दान-दाता के विवरण, प्राप्त राशि के साथ चुनावी बॉन्ड का पूरा ब्योरा सीलबंद लिफाफे में 30 मई तक चुनाव आयोग को देने के निर्देश दिए थे। चुनाव आयोग को भी कहा गया था कि वो इस ब्योरे को सुरक्षित रखे।

    पीठ ने कहा था कि फिलहाल दोनों पक्षों के बीच संतुलन बनाने के लिए यह अंतरिम आदेश जारी किए गए हैं। पीठ इसके बाद इसकी विस्तृत सुनवाई की तारीख तय करने वाली थी लेकिन अभी तक सुनवाई नहीं हुई है। पीठ ने वित्त मंत्रालय को उसके हालिया नोटिफिकेशन को भी संशोधित करने को कहा था जिसमें जनवरी में 10 दिनों के और अप्रैल में 10 दिनों के अतिरिक्त चुनावी बॉन्ड की खरीद की अनुमति दी गई थी।

    भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने केंद्र सरकार की ओर से पेश हुए अटॉर्नी जनरल के. के. वेणुगोपाल, चुनाव आयोग के लिए वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी और एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (ADR) की ओर से प्रशांत भूषण की दलीलों को सुनने के बाद फैसला फैसला सुरक्षित रखा था।

    चुनाव आयोग ने की थी पारदर्शिता की वकालत

    इस दौरान चुनाव आयोग ने कहा था कि आयोग चुनाव प्रक्रिया में पारदर्शिता सुनिश्चित करना चाहता है, जिसे वर्तमान में चुनावी बॉन्ड के रूप में सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है। इससे राजनीतिक दलों को शेल कंपनियों के माध्यम से बेनामी कॉरपोरेट चंदे के लिए काले धन का उपयोग बढ़ सकता है।

    केंद्र सरकार से असहमति जताते हुए भारतीय चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को यह बताया था कि 'इलेक्टोरल बॉन्ड्स स्कीम' का राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता पर गंभीर प्रभाव पड़ता है और आयोग द्वारा खुलासा किया गया कि उसने इस योजना के लिए आधारशिला रखने के लिए विधायी संशोधन वित्त अधिनियम 2017 के पारित होने के तुरंत बाद मई 2017 में ही इस अधिनियम पर अपनी चिंता व्यक्त कर दी थी।

    आयोग ने यह कहा कि यदि योगदान की रिपोर्ट नहीं की जाती है तो यह पता लगाना संभव नहीं होगा कि राजनीतिक दलों ने सरकारी कंपनियों और विदेशी स्रोतों से चंदा तो नहीं लिया है जो कि जनप्रतिनिधि अधिनियम की धारा 29 बी के तहत निषिद्ध है।

    "2013 का अधिनियम शेल कंपनियों को देगा बढ़ावा"

    आयोग द्वारा कंपनी अधिनियम 2013 में किए गए संशोधनों पर भी सवाल उठाए गए थे। अधिनियम की धारा 182 में संशोधन ने यह प्रतिबंध हटा दिया कि योगदान केवल 3 पूर्ववर्ती वित्तीय वर्षों के शुद्ध औसत लाभ का 7.5% की सीमा तक ही किया जा सकता है। यहां तक ​​कि नई कंपनियों को भी चुनावी बॉन्ड के माध्यम से चंदा देने में सक्षम बनाया गया है। हलफनामे में कहा गया था कि इससे राजनीतिक दलों को चंदा देने के एकमात्र उद्देश्य के लिए शेल कंपनियों के स्थापित होने की संभावना है।

    साथ ही यह भी कहा गया कि धारा 182 (3) में संशोधन ने इस प्रावधान को समाप्त कर दिया कि कंपनियों को अपने लाभ और हानि खातों में अपने राजनीतिक योगदान की घोषणा करनी चाहिए। इसके अलावा यह कदम "पारदर्शिता से समझौता करेगा" और शेल कंपनियों के माध्यम से "राजनीतिक फंडिंग के लिए काले धन के बढ़ते उपयोग" को जन्म दे सकता है।

    चुनाव आयोग का मंत्रालय को सुझाव

    चुनाव आयोग ने मंत्रालय से यह सुनिश्चित करने का आग्रह किया था कि केवल साबित ट्रैक रिकॉर्ड वाली लाभदायक कंपनियों को ही राजनीतिक दान करने की अनुमति दी जाए।

    चुनाव आयोग ने यह कहा था कि उसने आरपीए एक्ट में संशोधन का सुझाव दिया था कि 20,000 रुपये की मौजूदा सीमा से कम नकद दान के लिए भी रिपोर्टिंग को अनिवार्य बनाया जाए अगर कुल नकद योगदान 20 करोड़ या कुल योगदान के 20 प्रतिशत से अधिक हो, जो भी कम हो।

    उसने आगे यह भी सुझाव दिया था कि राजनैतिक दलों के योगदान की रिपोर्ट आयोग की वेबसाइट में अपलोड की जानी चाहिए। आयोग ने यह भी सुझाव दिया था कि 2000 रुपये की वर्तमान सीमा के बजाय इससे ऊपर या उसके बराबर का अनाम योगदान भी निषिद्ध होना चाहिए।

    "चुनावी बॉन्ड योजना के जरिये काले धन पर अंकुश"- अटॉर्नी जनरल

    शुरुआत में अटॉर्नी जनरल ने यह कहा था कि चुनावी बॉन्ड की योजना का उद्देश्य चुनावों में काले धन पर अंकुश लगाना है। उन्होंने कहा था कि काले धन के खात्मे के लिए चुनावी बॉन्ड की योजना शुरू की गई थी और यह पॉलिसी का विषय है। इसे लागू करने की कोशिश के लिए किसी भी सरकार को दोष नहीं दिया जा सकता।

    उन्होंने कहा था कि योजना के दुरुपयोग के खिलाफ पर्याप्त सुरक्षा उपाय मौजूद हैं और ये बॉन्ड केवल भारतीय स्टेट बैंक के माध्यम से प्राप्त किए जाते हैं, जो बॉन्ड के खरीदार की पहचान बनाए रखेंगे। लेकिन जिस पार्टी को बॉन्ड प्राप्त हुआ, वह गोपनीय होगा।

    उन्होंने कहा था कि बैंक, बॉन्ड खरीदार का केवाईसी बनाए रखेगा। एक राजनीतिक दल चुनावी बॉन्ड के लिए केवल एक चालू खाता खोल सकता है। सरकार ने यह सुनिश्चित करने के लिए हर संभव प्रयास किया है कि चुनावी बॉन्ड के माध्यम से चंदा देने वालों की पहचान का खुलासा न हो।

    अटॉर्नी जनरल ने कहा था कि हर चुनाव में भ्रष्टाचार और कदाचार हो रहा है और मतदाताओं को लुभाने के लिए हर गैरकानूनी तरीका अपनाया जा रहा है, यही जीवन का तरीका है। चुनावी बॉन्ड की योजना उसी पर अंकुश लगाने का एक प्रयोग है और न्यायालय को इस मामले में कम से कम इस लोकसभा चुनाव के अंत तक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। नई सरकार के सत्ता में आने के बाद वह इस योजना की समीक्षा करेगी।

    क्या है यह पूरा मामला

    इससे पहले 2 जनवरी, 2018 को केंद्र ने चुनावी बॉन्ड के लिए योजना को अधिसूचित किया था जो कि एक भारतीय नागरिक या भारत में निगमित निकाय द्वारा खरीदे जा सकते हैं। ये बॉन्ड एक अधिकृत बैंक से ही खरीदे जा सकते हैं और राजनीतिक पार्टी को ही जारी किए जा सकते हैं। पार्टी 15 दिनों के भीतर बॉन्ड को भुना सकती है। दान-दाता की पहचान केवल बैंक को होगी जिसे गुमनाम रखा जाएगा।

    इसपर केंद्र का कहना था कि "यह योजना वैध केवाईसी और ऑडिट ट्रेल के साथ बॉन्ड प्राप्त करने की एक पारदर्शी प्रणाली बनाने की परिकल्पना करती है। जो इन बॉन्डों को खरीदते हैं, वे बैलेंस शीट में किए गए ऐसे दान के बारे में बताएंगे। चुनावी बॉन्ड दानकर्ताओं को बैंकिंग मार्ग से दान करने के लिए प्रेरित करेगा।यह पारदर्शिता, जवाबदेही और चुनावी सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम सुनिश्चित करेगा।"

    11 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दलों को चंदे के लिए जारी चुनावी बॉन्ड की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर केंद्र सरकार और चुनाव आयोग को अपना-अपना जवाब दाखिल करने को कहा था।

    यह कदम भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स व अन्य द्वारा दायर की गई याचिका पर उठाया गया था। इस मुद्दे पर दाखिल याचिकाओं में केंद्र सरकार द्वारा वित्त अधिनियम 2017, कंपनी अधिनियम, विदेशी अंशदान विनियम अधिनियम और आयकर अधिनियम के माध्यम से पेश संशोधनों को चुनौती दी गई है।

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