'लोकतंत्र की सफलता के लिए बोलने की आज़ादी ज़रूरी' : मैसूर की अदालत ने 'फ़्री कश्मीर' प्लेकार्ड लहराने वाली युवती को अग्रिम ज़मानत दी

LiveLaw News Network

28 Jan 2020 11:11 AM IST

  • लोकतंत्र की सफलता के लिए बोलने की आज़ादी ज़रूरी : मैसूर की अदालत ने फ़्री कश्मीर प्लेकार्ड लहराने वाली युवती को अग्रिम ज़मानत दी

    मैसूर की एक अदालत ने सोमवार को नलिनी बालाकुमार और मरदेवैया शिवन्ना को अग्रिम ज़मानत दे दी। इन दोनों पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिंसा के ख़िलाफ़ प्रदर्शन के दौरान 'फ़्री कश्मीर' (कश्मीर को आज़ाद करो) का प्लेकार्ड लहराने के आरोप में देशद्रोह का मुक़दमा दायर किया गया था।

    आरोपियों को अग्रिम ज़मानत देते हुए अतिरिक्त सत्र जज जेरल्ड रूडोल्फ़ मेंडोंचा ने कहा,

    "इस कथित अपराध के लिए मिलने वाली सज़ा न तो मौत है और न ही आजीवन कारावास। वह एक छात्रा है। इस समय तक ऐसे कोई साक्ष्य नहीं हैं जो यह बता सके कि विगत में उसकी आपराधिक गतिविधि रही हो या प्रतिबंधित संगठनों से उसका जुड़ाव रहा हो।

    यह भी कि उसने ख़ुद ही यह स्वीकार किया है कि उसने यह प्लेकार्ड लहराया और उसने इस बारे में अपनी सोच को समझाया है। उसकी वजह से जानमाल का कोई नुक़सान नहीं हुआ है। वह जांच में सहयोग दे रही है। यह डर कि वह भाग जाएगी, ऐसा नहीं हो यह सुनिश्चित करने के लिए उस पर अपना पासपोर्ट जमा करने की शर्तें लगाई गई है।"

    अदालत ने उसे ₹50,000 के निजी मुचलके और पुलिस द्वारा गिरफ़्तार किए जाने की स्थिति में इसी राशि और एक श्योरिटी पर उसको ज़मानत देने का आदेश दिया। अदालत ने आदेश दिया कि याचिकाकर्ता अभियोजन के गवाहों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित नहीं करेंगे और जांच अधिकारी को जांच में सहयोग करेंगे।

    मैसूर बार एसोसिएशन का प्रस्ताव

    इससे पहले मैसूर बार एसोसिएशन ने एक प्रस्ताव पास किया था कि कोई भी वक़ील इस युवती की अदालत में पैरवी नहीं करेगा। इसके विरोध में 170 वकीलों ने नलिनी के लिए मुक़दमा लड़ने का प्रस्ताव उसकी ज़मानत की अर्ज़ी में दिया था।

    बोलने की आज़ादी पर अदालत ने कहा,

    "बोलने की आज़ादी किसी मुद्दे के बारे में पूरी और सही सूचना प्राप्त होने के बाद किसी राय पर पहुंचने और उसको प्रकट करने का अधिकार है। यह किसी व्यक्ति को उस स्थिति में भी मदद करता है, अगर उसे किसी दी गई स्थिति में इस मुद्दे पर अपनी राय ज़ाहिर करने के लिए बुलाया जाता है।

    लोकतंत्र की सफलता के लिए यह ज़रूरी है। इसलिए, जो राय दी गई है वह उसकी अपनी होनी चाहिए न कि उस पर बलात थोपी गई है और उसे ऐसा कहने के लिए कहा गया है। एक ज़िम्मेदार नागरिक के रूप में और विशेष रूप से युवा होने और इस वजह से देश का भविष्य होने के कारण, उसे अपने इस अधिकार का प्रयोग करने में सावधानी बरतनी चाहिए कि बोलने की आज़ादी का अधिकार समाज के लिए अच्छा है।

    क्योंकि, कोई यह कह सकता है कि उसे कुछ कहने या करने की आज़ादी है पर उसे पहले इस बात का विश्लेषण करना चाहिए कि ऐसा करना समाज के लिए अच्छा है और उसके अपने अधिकारों के प्रयोग करने से समाज को कोई नुक़सान नहीं होगा। यह ख़ुद पर नियंत्रण लगाने जैसा है जिस पर समाज के हित में आज़ादी के अधिकारों के प्रयोग के दौरान अमल होना चाहिए।"

    अदालत ने आगे कहा,

    " इस मामले में अभियोजन का मामला यह नहीं है कि याचकाकर्ताओं ने नारे लगाए हैं, बल्कि एक प्लेकार्ड लहराया है जिस पर लिखा था "फ़्री कश्मीर"। यह भी याद रखा जाना चाहिए कि यह युवती इस विरोध प्रदर्शन के अग्रिम पंक्ति में नहीं खड़ी थी। वह प्लेकार्ड लिए पीछे खड़ी थी पर उसके प्लेकार्ड पर लिखे शब्द स्पष्ट रूप से पढ़े जा सकते थे।

    अपने मतों को व्यक्त करते हुए हमें सावधान रहने की ज़रूरत है ख़ासकर अभी की स्थिति में जहां किसी शब्द की ग़लत व्याख्या कोई अपने निजी स्वार्थ के लिए कर सकता है और विवाद बढ़ाने और क़ानून और व्यवस्था के लिए समस्या उत्पन्न कर सकता है।"

    नलिनी ने इस घटना के तुरंत बाद जनता और पुलिस से माफ़ी मांग ली थी।

    इस बारे में अदालत ने कहा,

    "उसने अपने मां-बाप से माफ़ी मांगी है। जब कोई बच्चा कुछ करता है तो इसका तत्काल असर उसके मां-बाप पर होता है। इस स्थिति में हमेशा ही बच्चों के लालन-पालन के तरीक़े पर उंगलियां उठाई जाती हैं। याचिकाकर्ता जैसे युवाओं के लिए पहले अपने मां-बाप के लिए अच्छा बेटा या बेटी होना ज़्यादा ज़रूरी है और तब जाकर वे एक बेहतर दुनिया बना सकते हैं, क्योंकि अपने मां-बाप के लिए आप ही उनकी दुनिया हैं और आपके परिवार में आपकी जगह कोई नहीं ले सकता।

    एक कोई एक अच्छा बेटा या बेटी नहीं है वह एक अच्छा नागरिक नहीं हो सकता। क़ानून का आदर सभी नागरिकों का कर्तव्य है…और उन्हें क़ानून और व्यवस्था को बनाए रखने में मदद करनी चाहिए। अगर याचिकाकर्ता देश के निर्माण में सहयोग करना चाहती है तो उसे ज़्यादा ज़िम्मेदार बनना होगा और उसे अपना अनुभव दूसरों के साथ साझा करना चाहिए कि उसे किस तरह की बुरी स्थितियों से गुज़रना पड़ा है ताकि दूसरे युवा इस तरह की ग़लतियां नहीं करें क्योंकि ऐसे कई माध्यम हैं विशेषकर सोशल मीडिया जहाँ परिणाम के बारे में सोचे बिना ही टिप्पणियां की जाती हैं।"

    अदालत ने युवाओं से कहा,

    "देश के युवा…ग़लती के ख़िलाफ़ विरोध प्रकट करते हुए यह नहीं भूलें कि उन्हें क़ानून और क़ानून को लागू करने वाली एजेंसी का सम्मान करना है। अगर वे सिर्फ़ पांच मिनट के लिए यह कल्पना करें कि क्या होगा अगर पूर्व सूचना से सभी क़ानून निलंबित कर दिए जाएं और सारे थाने बंद कर दिए जाएं। एक ज़िम्मेदार नागरिक के रूप में उन्हें ख़ुद ही क़ानून और क़ानून लागू करने वाली एजेंसियों के ख़िलाफ़ आदर का भाव जाग जाएगा।

    …क़ानून और क़ानून को लागू करने वाली एजेंसियों की इज़्ज़त करना सभी नागरिकों का कर्तव्य है ताकि विरोध के दौरान जान-माल का कोई नुक़सान नहीं हो। अगर किसी की जान जाती है तो उसे वापस नहीं किया जा सकता और उस परिवार को बहुत बड़ा नुक़सान होगा जिसे अपने एक सदस्य को गंवाना पड़ेगा।"

    अदालत ने कहा कि विरोध प्रदर्शन से पहले सावधानी बरती जानी चाहिए।

    अदालत ने कहा कि विरोध प्रदर्शन से पहले युवाओं को सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को ध्यान में रखना चाहिए जो उसने कोदूंगाल्लुरु फ़िल्म सोसायटी बनाम भारत संघ मामले में दिया था। इसके साथ ही उन्हें सार्वजनिक संपत्तियों का नुक़सान निवारण अधिनियम, 1984 के प्रावधानों को भी ध्यान में रखना चाहिए साथ ही शनिफ के बनाम केरल राज्य मामले में केरल हाईकोर्ट के फ़ैसले का भी उल्लेख किया गया।

    इसमें अदालत ने कहा था कि अगर कोई शांतिपूर्ण विरोध भीड़ की हिंसा में तब्दील होता है जिसकी वजह से निजी और सार्वजनिक संपत्तियों को नुक़सान पहुंचता है और किसी की जान जाती है तो उस स्थिति में उसे तब तक ज़मानत नहीं मिलेगी जब तक कि वह इस हिंसा में हुए नुक़सान का नक़द भरपाई नहीं करता।" इस मामले में वक़ील सीएस द्वारकानाथ ने नलिनी बालाकुमार की और केसी रघुनाथ ने शिवन्ना की पैरवी की।


    आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें




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