"एनआई एक्ट की धारा 138 के मामलों की जल्द सुनवाई की जाए" : सुप्रीम कोर्ट ने एमिकस क्यूरी की रिपोर्ट पर सभी हाईकोर्ट से जवाब मांगा
LiveLaw News Network
28 Oct 2020 9:30 AM IST
सर्वोच्च न्यायालय ने मंगलवार को एमिकस क्यूरी द्वारा प्रस्तुत की गई प्रारंभिक रिपोर्ट पर सभी हाईकोर्ट से जवाब मांगा है। इस रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 138 के तहत चेक बाउंस मामलों की सुनवाई जल्द पूरी की जाए।
भारत के मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे और न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव की खंडपीठ ने एक स्वत संज्ञान (In Re Expeditious Trial of Cases Under Section 138 of the N.I Act) मामले में यह आदेश दिया है।
न्यायालय ने सभी राज्यों के राज्य पुलिस प्रमुखों से भी जवाब मांगा है। जिसमें यह भी पूछा गया है कि चेक बाउंस के मामलों में अभियुक्तों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं।
सीजेआई ने कहा कि,''मुख्य अड़चन समन तामील करवाने की है।''
शीर्ष अदालत द्वारा नियुक्त एमिकस क्यूरी में से एक वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ लूथरा ने पीठ को बताया कि 11 अक्टूबर को एक प्रारंभिक रिपोर्ट पेश की गई थी। उन्होंने बताया कि केवल तीन उच्च न्यायालयों - राजस्थान, मध्य प्रदेश और सिक्किम ने इस रिपोर्ट पर अपना जवाब दिया है।
इस मामले में नियुक्त एक अन्य एमिकस क्यूरी अधिवक्ता के परमेश्वर ने बताया कि रिपोर्ट सभी उच्च न्यायालयों के रजिस्ट्रार जनरलों और सभी राज्य सरकारों के स्थायी सलाहकारों को भेज दी गई थी।
राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण की ओर से पेश अधिवक्ता गौरव अग्रवाल ने कहा कि एनएएलएसए ने धारा 138 के मामले में मध्यस्थता के लिए एक मसौदा योजना तैयार किया है। उन्होंने कहा कि नोटिस की सेवा, शिकायत दर्ज करने आदि के लिए कानून द्वारा सख्त समय सीमा दी गई है, इसलिए थोड़े समय में मध्यस्थता संभव नहीं हो सकती है।
वरिष्ठ अधिवक्ता लूथरा ने प्रस्तुत किया कि मध्यस्थता पूर्व-मुकदमेबाजी स्तर पर संभव नहीं हो सकती है, क्योंकि अधिनियम शिकायत दर्ज करने के लिए एक सख्त समयरेखा प्रदान करता है। उन्होंने सुझाव दिया कि मध्यस्थता योजना को पुनर्गठित किया जाना चाहिए।
अंत में, बेंच ने निम्नलिखित आदेश पारित किया-
''11 अक्टूबर 2020 को एमिकस क्यूरी की तरफ से दायर प्रारंभिक रिपोर्ट रिकार्ड पर है। हमें सूचित किया गया है कि प्रारंभिक रिपोर्ट पर प्रतिक्रिया केवल मध्य प्रदेश, राजस्थान और सिक्किम के उच्च न्यायालयों द्वारा दायर की गई है। अन्य हाईकोर्ट ने अपनी प्रतिक्रिया नहीं दी है। मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण हैं और मामले में उच्च न्यायालयों के विचारों और भविष्य की भागीदारी की आवश्यकता है। इसलिए हम निर्देश देते हैं कि सभी हाईकोर्ट मामले की अगली सुनवाई तक प्रारंभिक रिपोर्ट पर अपनी प्रतिक्रिया दायर करें।''
इसके अलावा, अदालत ने सभी हाईकोर्ट से एनएएलएसए द्वारा बनाई गई मसौदा योजना पर भी उनकी प्रतिक्रिया देने के लिए भी कहा है।
आदेश में आगे कहा गया है, ''विभिन्न राज्यों के डीजीपी इस रिपोर्ट पर अपने विशिष्ट सुझाव दें,जिसमें सम्मन तामील करवाने और आरोपियों के लिए अपनाई जाने वाली कड़ी प्रक्रियाओं के बारे में विशेषतौर पर बताया जाए।''
मामले को अब चार सप्ताह के बाद सूचीबद्ध किया जाएगा।
इस साल 7 मार्च को सीजेआई बोबडे और न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव की खंडपीठ ने एनआई एक्ट की धारा 138 के मामलों की त्वरित सुनवाई के तरीकों पर विचार करने करने के लिए स्वत संज्ञान लेते हुए मुकदमा दर्ज किया था।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि,
''एक मामला जिसे छह महीने में ट्रायल कोर्ट द्वारा सरसरी तौर पर निपटाया जाना चाहिए, इस मामले को ट्रायल कोर्ट के स्तर पर निस्तारित करने में सात साल लग गए। इस तरह की प्रकृति के मामले विभिन्न अदालतों में 15 साल तक लंबित पड़े रहते है,जो न्यायालयों के समय व स्पेस को ले रहे हैं।''
न्यायालय ने तब निम्नलिखित सुझाव/ अवलोकन किए थे-
प्रक्रिया का गैर निष्पादन
पूर्वोक्त माध्यमों से जारी किए गए सम्मन की सेवा के बावजूद, आगे की प्रक्रिया को अंजाम न देने की समस्या बनी रहती है। उपरोक्त विधियों के माध्यम से समन जारी किया जा सकता है, परंतु जमानती वारंट और गैर-जमानती वारंट का निष्पादन सीआरपीसी की धारा 72 के अनुसार पुलिस के माध्यम से किया जाता हैं। कई बार, पुलिस सेवा करने वाली एजेंसी के रूप में, निजी शिकायतों में जारी प्रक्रिया पर ध्यान नहीं देती है।
न्यायालय भी इस तथ्य के प्रति ऐम्बिवलन्ट रहते हैं कि शिकायतकर्ता को बार-बार अनुचित प्रक्रिया शुल्क का भुगतान करने की आवश्यकता होती है और लापरवाह पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जाती है। आरोपी की उपस्थिति को सुरक्षित के लिए कड़े कदमों का सहारा शायद ही कभी लिया जाता है अर्थात् सीआरपीसी की धारा 82 और 83 के तहत जब्त करने की कार्यवाही। हमे लगता हैं कि अदालत द्वारा जारी की गई सेवा/ निष्पादन के लिए और अभियुक्तों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए एक प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है। जिसमें शिकायतकर्ता, पुलिस और बैंक आदि सभी हितधारकों के ठोस प्रयासों को भी शामिल किया जाए।
बैंकों की भूमिका
'' इस प्रकृति के मामलों में एक महत्वपूर्ण हितधारक होने के नाते बैंकों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे अपेक्षित विवरण प्रदान करें ताकि ऐसे मामलों में कानून द्वारा अनिवार्य त्वरित सुनवाई पूरी की जा सकें। एक सूचना साझाकरण तंत्र विकसित किया जा सकता है जहां बैंक उन अभियुक्तों के सभी आवश्यक विवरण साझा कर सकते हैं,जो उनके ग्राहक हैं। ताकि प्रक्रिया के निष्पादन के लिए शिकायतकर्ता और पुलिस की मदद की जा सकें।
इसमें धारको को चेक बाउंस होने की सूचना देते समय जारी किए गए मैमो या चेक पर संबंधित जानकारी जैसे ईमेल आईडी, पंजीकृत मोबाइल नंबर और खाता धारक का स्थायी पता आदि दिया जा सकता है। भारतीय रिजर्व बैंक, नियामक निकाय होने के नाते बैंकों के लिए दिशानिर्देश भी विकसित कर सकता है ताकि बैंक इन मामलों की मुकदमेबाजी व ऐसे अन्य मामलों की आवश्यकता के लिए अपेक्षित जानकारी उपलब्ध करा सकें। एनआई एक्ट धारा 138 के तहत अपराध से संबंधित मामलों पर नजर रखने और अभियुक्तों से संबंधित प्रक्रिया की सर्विस सुनिश्चित करने के लिए एक अलग सॉफ्टवेयर-आधारित तंत्र विकसित किया जा सकता है।''
चेक का दुरुपयोग
''यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि फर्जी मुकदमेबाजी के लिए चेक का दुरुपयोग करने की अनुमति न दी जाए। भारतीय रिजर्व बैंक चेक के नए प्रोफार्मा को विकसित करने पर विचार कर सकता है ताकि भुगतान के उद्देश्य के साथ-साथ उपरोक्त अन्य सूचनाओं को भी शामिल किया जा सके,जिससे वास्तविक मुद्दों के समाधान की सुविधा प्रदान की जा सकें।''
कड़ी कार्रवाई सहित अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करने का एक तंत्र
''आरोपी की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए एक तंत्र विकसित किया जा सकता है,भले ही इसके लिए कड़ी कार्रवाई करनी पड़े,यदि आवश्यक हो तो सीआरपीसी की धारा 83 का भी इस्तेमाल किया जाए जो संपत्ति की कुर्की भी अनुमति देती है, जिसमें चल संपत्ति शामिल है। इसी तरह एनआई की धारा 143 ए के तहत अंतरिम मुआवजे की वसूली के लिए एक समान समन्वित प्रयास किया जा सकता है। वही सीआरपीसी की धारा 421 के अनुसार जुर्माना या मुआवजा भी वसूलने के लिए भी इसी तरह के प्रयास किए जाएं। बैंक आरोपी के बैंक खाते से अपेक्षित धनराशि को चेक धारक के खाते में स्थानांतरित करने की सुविधा प्रदान कर सकता है, जैसा भी न्यायालय द्वारा निर्देशित किया गया हो।''
प्री लिटिगेशन सेटलमेंट
''एनआई मामलों की बढ़ती संख्या को देखते हुए, इन मामलों में प्री-लिटिगेशन सेटलमेंट के लिए एक तंत्र विकसित करने की आवश्यकता है। विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 की धारा 19 व 20 के तहत एक वैधानिक तंत्र प्रदान किया जाता है,जिसके तहत लोक अदालत द्वारा पूर्व-मुकदमेबाजी स्तर पर मामलों को निपटाया जा सकता है। वहीं अधिनियम की धारा 21, लोक अदालतों द्वारा पारित एक रिवार्ड को एक सिविल कोर्ट के निर्णय के रूप में मान्यता देती है और इसे अंतिम रूप देती है।
पूर्व-मुकदमेबाजी के चरण या पूर्व-संज्ञान चरण में पारित एक रिवार्ड का एक सिविल डिक्री जैसा प्रभाव होगा। राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण, इस संबंध में जिम्मेदार प्राधिकारी होने के नाते प्री-लिटिगेशन स्तर पर ही चेक बाउंस से संबंधित विवाद के निपटारे के लिए एक योजना तैयार कर सकता है अर्थात निजी शिकायत दर्ज करने से पहले ही। प्री-लिटिगेशन एडीआर प्रक्रिया का यह उपाय कोर्ट में आने से पहले ही मामलों को निपटाने में एक लंबा रास्ता तय कर सकता है, जिससे अदालतों का बोझ कम होगा।''
चेक केेस (छोटी राशि के) का गैर-अपराधीकरण
''मेटर्स एंड इंस्ट्रूमेंट्स प्राइवेट लिमिटेड (सुप्रा) में, इस अदालत ने माना था कि धारा 138 के तहत अपराध प्रारंभिक तौर पर सिविल रांग से संबंधित है। वर्ष 1988 में चेक बाउंस का अपराधीकरण आर्थिक लेन-देन के परिणाम को ध्यान में रखते हुए किया गया था। परंतु छोटी राशि के चेक बाउंस के मामलों के गैर-अपराधीकरण पर भी विचार किया जा सकता हैै, जिसे सिविल अधिकार क्षेत्र के तहत निपटाया जा सकता है।''