सजा में एकपक्षीय वृद्धि अवैध; अगर आरोपी का प्रतिनिधित्व नहीं है तो हाईकोर्ट एमिकस क्यूरी की नियुक्ति करनी चाहिए: सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

4 Dec 2021 9:01 AM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली

    सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि हाईकोर्ट द्वारा सजा में एकपक्षीय वृद्धि सीआरपीसी के तहत वैधानिक आदेश के खिलाफ है, जिसके तहत आपराधिक पुनरीक्षण में सजा को बढ़ाने से पहले मामला को दिखाने का अवसर प्रदान करता है।

    जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस बेला त्रिवेदी की खंडपीठ ने मद्रास हा्ईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें अपीलकर्ताओं को कानूनी प्रतिनिधित्व ‌दिए बिना और मामले में एमिकस क्यूरी नियुक्त किए बिना सजा को बढ़ाया गया था।

    पीठ ने कहा,

    "ऐसा प्रतीत होता है कि सजा में एकपक्षीय वृद्धि वैधानिक आदेश के खिलाफ है, जैसा कि धारा 401(1) के और दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 386 के पहले प्रावधान संयुक्त पठन में वर्णित है। ये धाराएं आपराधिक पुनरीक्षण में सजा बढ़ाने से पहले मामले को दिखाने की रूपरेखा प्रस्तुत करती हैं।"

    उल्लेखनीय है कि सीआरपीसी की धारा 401 जो हाईकोर्ट को पुनरीक्षण की शक्ति प्रदान करती है, के तहत कहा गया है कि धारा के तहत कोई भी आदेश आरोपी या अन्य व्यक्ति के पूर्वाग्रह नहीं बना सकता है, जब तक कि उसे व्यक्तिगत रूप से या प्लीडर के जर‌िए अपने बचाव में सुनवाई का अवसर न दिया गया हो।

    धारा 386 का प्रावधान जो अपीलीय अदालत की शक्तियों से संबंधित है, कहता है कि सजा को तब तक नहीं बढ़ाया जाएगा जब तक कि आरोपी को इस तरह की वृद्धि के खिलाफ कारण दिखाने का अवसर न मिले।

    वर्तमान मामले में, जहां केवल याचिकाकर्ता और राज्य को सुना गया था और अदालत को अपीलकर्ता आरोपी की ओर से दलीलें पेश करने का लाभ नहीं दिया गया था, बेंच ने कहा कि हाईकोर्ट ने एमिकस क्यूरी की नियुक्ति नहीं करके गलती की थी।

    बेंच ने कहा कि आरोपी की ओर से कोई कानूनी प्रतिनिधित्व नहीं होने की स्थिति में हाईकोर्ट को वकील की अनुपस्थिति में एक एमिकस क्यूरी नियुक्त करना चाहिए था जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने परवीन बनाम हरियाणा राज्य के मामले में कहा था।

    गोविंद रामजी जाधव बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में अपने फैसले का उल्लेख करते हुए, जिसमें कहा गया है कि हाईकोर्ट को आरोपी को कारण दिखाने का एक उचित अवसर देना चाहिए, बेंच ने हाईकोर्ट के 24.10.2018 के आदेश को रद्द कर दिया और मामले को हाईकोर्ट के पास पुनरीक्षण याचिका पर नए सिरे से विचार करने के लिए वापस भेज दिया था।

    हाईकोर्ट के अवलोकन के संबंध में कि अपीलकर्ताओं को नोटिस दिया गया था, खंडपीठ ने देखा कि नोटिस वास्तव में कब दिया गया था और क्या अपीलकर्ताओं को सूचित किया गया था कि अंतिम सुनवाई के लिए आपराधिक पुनरीक्षण किया जाएगा।

    वर्तमान विशेष अनुमति याचिका मद्रास हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती देते हुए दायर की गई थी, जिसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 341, 294 (बी), 506 (ii) और 447 के तहत अपराधों के लिए अपीलकर्ताओं पर लगाए गए दंड को आपराधिक पुनरीक्षण में बढ़ाया गया था।

    आक्षेपित आदेश पीड़ित की ओर से दायर आपराधिक पुनरीक्षण याचिका पर पारित किया गया थाा। पीड़‌ित ने प्रधान सत्र न्यायाधीश, वेल्लोर द्वारा 4 दिसंबर 2006 को पारित निर्णय और सजा के आदेश के खिलाफ पुनरीक्षण याचिका दायर की थी।

    जब 24 अक्टूबर 2018 को लगभग पांच वर्षों के बाद पुनरीक्षण याचिका पर सुनवाई हुई तो यह उल्लेख करते हुए आक्षेपित आदेश पारित किया गया कि अपीलकर्ताओं को नोटिस दिया गया था और उनके नाम वाद सूची में मुद्रित किए गए थे, लेकिन उनकी ओर से कोई प्रतिनिधित्व नहीं पेश किया गया था।

    केस शीर्षक: कृष्णन और अन्य बनाम राज्य पुलिस उपाधीक्षक और अन्य

    सीटेशन: एलएल 2021 एससी 707

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