एक प्रामाणिक खरीदार के पीठ पीछे विशिष्ट अदायगी के लिए डिक्री प्राप्त नहीं की जा सकती: सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

19 Jan 2022 8:32 AM GMT

  • एक प्रामाणिक खरीदार के पीठ पीछे विशिष्ट अदायगी के लिए डिक्री प्राप्त नहीं की जा सकती: सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि प्रामाणिक खरीदार के पीठ पीछे विशेष अदायगी के लिए डिक्री हासिल नहीं की जा सकती, खासकर तब जब लेनदेन विशेष अदायगी के लिए मुकदमा दायर करने से पहले किया गया हो।

    जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एम.एम. सुंदरेश ने मद्रास उच्च न्यायालय के एक फैसले को रद्द करते हुए कहा:

    "... हमारे लिए यह स्वीकार करना संभव नहीं है कि एक प्रामाणिक खरीदार की पीठ के पीछे एक डिक्री प्राप्त की जा सकती थी, खासकर जब लेनदेन विशिष्ट अदायगी के लिए मुकदमा शुरू करने से पहले किया गया हो।''

    कोर्ट ने विशिष्ट राहत अधिनियम की धारा 19 (बी) का उल्लेख किया, जो कहता है कि विशिष्ट अदायगी उत्तरवर्ती खरीदार के खिलाफ लागू नहीं की जा सकती है, जिसने मूल अनुबंध के नोटिस के बिना सद्भावना में पैसे का भुगतान किया था।

    मामले की पृष्ठभूमि

    मूल मालिक द्वारा वर्तमान मामले के प्रतिवादी को बेची गई भूमि पर उठे विवाद में विशेष अदालगी को लेकर सवाल उठे। प्रतिवादी ने दावा किया कि सी.डी. वीरराघवन मुदलियार नामक व्यक्ति ने 10.04.1961 को उनके साथ पट्टा संख्या 61 और पैमाइश संख्या 987/1 वाली भूमि में से 50 एकड़ की बिक्री का अनुबंध किया। अपीलकर्ताओं ने दावा किया कि मूल मालिक ने भूमि को नीरजा देवी नामक महिला को बेच दिया, जिसने इसे आगे अपीलकर्ताओं को बेच दिया।

    प्रतिवादी ने दिनांक 10.04.1961 के समझौते की विशेष अदायगी के लिए एक मुकदमा दायर किया। ट्रायल कोर्ट ने मुकदमा खारिज कर दिया था। दूसरी अपील में, मद्रास उच्च न्यायालय ने दिनांक 07.07.1970 के अपने निर्णय अनुसार विशिष्ट अदायगी का आदेश दिया। भूमि के अतिक्रमण और निष्पादन कार्यवाही के लिए बाद के मुकदमे में विशिष्ट अदायगी के लिए डिक्री पर विवाद उत्पन्न हुआ।

    ट्रायल कोर्ट ने यह कहते हुए मुकदमा खारिज कर दिया कि प्रतिवादी को बाद के खरीदारों के बारे में पता था और फिर भी उन्होंने विशिष्ट अदायगी के लिए किये गये मुकदमे में उन्हें पक्षकार नहीं बनाया। हाईकोर्ट ने अपने विवादित फैसले में ट्रायल कोर्ट के फैसले को इस आधार पर खारिज कर दिया कि उसने विशेष रूप से निष्पादन की कार्यवाही के संबंध में सबूतों की उचित व्याख्या नहीं की।

    सुप्रीम कोर्ट के समक्ष, अपीलकर्ताओं के वकील ने प्रस्तुत किया कि खरीदार सूट के आवश्यक पक्षकार थे और उनकी पीठ के पीछे प्राप्त विशिष्ट अदायगी के लिए एक डिक्री आमन्य होगी।

    वकील ने 'लक्ष्मण दास बनाम जगत राम एवं अन्य' पर भरोसा जताया, जहां सुप्रीम कोर्ट कहा ने कहा था कि:

    "किसी पक्ष के विवादित भूमि को हासिल करने और स्वामित्व के अधिकार को प्रभावित पक्ष को उसमें शामिल किए बिना और मामले में सुनवाई का अवसर दिए बिना नहीं छीना जा सकता था, क्योंकि संपत्ति रखने का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 300-ए (पैरा 13) के संदर्भ में एक संवैधानिक अधिकार है।''

    इसके अतिरिक्त, यह तर्क देने के लिए विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 की धारा 19 (बी) पर निर्भरता जताई गई थी कि विशिष्ट अदायगी के लिए डिक्री संपत्ति के खरीदार के साथ धोखाधड़ी के जरिये निस्तारित की गयी थी, जिसे जानबूझकर मुकदमे में शामिल नहीं किया गया था।

    वकील ने तर्क दिया कि चूंकि नीरजा देवी, संबंधित प्रतिवादी द्वारा विशिष्ट अदायगी के लिए मुकदमा चलाये जाने से बहुत पहले एक वास्तविक खरीदार थी, इसलिए उनके या उनके ट्रांसफरीज के खिलाफ विशिष्ट अदायगी लागू नहीं की जा सकती थी, क्योंकि वे ट्रांसफरी के अपवाद के अंतर्गत आते थे, जिन्होंने सद्भावपूर्वक और मूल अनुबंध की जानकारी के बिना पैसे का भुगतान किया था।

    इस पृष्ठभूमि में, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया है कि प्रतिवादी के प्रबंधक ने स्वीकार किया था कि प्रतिवादी को तीसरे पक्ष के बीच उसी भूमि के संबंध में लेनदेन की जानकारी थी और फिर भी उसने खरीदारों को मुकदमे में पक्षकार बनाने का फैसला नहीं किया।

    कोर्ट ने कहा:

    ''प्रतिवादी को उसी संपत्ति के संबंध में पूर्व पंजीकृत लेनदेन के बारे में पूरी तरह से पता था, जो मूल रूप से नीरजा देवी के पक्ष में थी। यह उनके प्रबंधक के बयान के अनुसार है। ऐसे परिदृश्य में हमारे लिए यह स्वीकार करना संभव नहीं है कि एक वास्तविक खरीदार की पीठ के पीछे एक डिक्री प्राप्त की जा सकी, खासकर जब लेनदेन विशिष्ट अदायगी के लिए सूट किये जाने से पहले हुआ था। यह कहना पर्याप्त होगा कि इस दृष्टिकोण को 'विद्याधर बनाम माणिकराव' और मान कौर बनाम हरतार सिंह संघ' में निर्णयों से समर्थन मिलेगा।'' (पैरा 24)

    इस आधार पर, कोर्ट ने देखा कि बाद के खरीददारों का मामला विशिष्ट राहत अधिनियम की धारा 19 (बी) में निर्धारित 'अपवाद' के अंतर्गत आता है, जिन्होंने ट्रांसफरी होने के नाते सद्भावपूर्वक और मूल अनुबंध की सूचना के बिना पैसे का भुगतान किया था। तदनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के दिनांक 06.01.2012 के आक्षेपित निर्णय को रद्द कर दिया और कहा कि ट्रायल कोर्ट के निर्णय के संदर्भ में प्रतिवादी का मुकदमा खारिज किया जाता है।

    केस शीर्षक : सीताकाठी ट्रस्ट मद्रास बनाम कृष्णावेनी

    कोरम : जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस एम एम सुंदरेश

    साइटेशन : 2022 लाइवलॉ (एससी) 58

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