देश में बीते 20 सालों में हुई फांसियों का ब्यौरा, निर्भया के दोषियों से पहले इन्हें दी गई थी मौत की सजा
LiveLaw News Network
20 March 2020 3:53 PM IST
दिल्ली गैंगरेप के दोषियों- मुकेश सिंह, अक्षय सिंह ठाकुर, विनय शर्मा और पवन कुमार गुप्ता - को शुक्रवार सुबह 5.30 बजे तिहाड़ जेल में फांसी दे दी गई। भारत में आजादी के बाद के चार दोषियों को एक साथ फांसी देने का यह दूसरा उदाहरण है। इससे पहले 25 अक्टूबर, 1983 को पुणे की यरवदा जेल में एक साथ पांच दोषियों को फांसी दी गई थी।
1970 के दशक में जोशी-अभ्यंकर हत्या के मामले में 10 लोगों की हत्या के लिए यरवदा जेल में राजेंद्र जक्कल, दिलीप सुतार, शांताराम जगताप और मुनव्वर एस को फांसी दी गई थी।
शुक्रवार को दिल्ली गैंगरेप में हुई फांसी से पहले बीते 20 सालों में यानी साल 2000 से भारत में चार बार फांसी की सजा दी गई है।
पढ़िए उन सजाओं का ब्योरा-
धनंजय चटर्जी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2004)
धनंजय चटर्जी, 18 वर्षीय छात्रा हेतल पारेख की हत्या और बलात्कार का दोषी था। एक अपार्टमेंट में वह सुरक्षा गार्ड के रूप में काम करता था। पीड़िता भी उसी अपार्टमेंट में रहती थी। 5 मार्च 1990 की दोपहर को पीड़िता को उसकी मां ने घर में ही मृत पाया था। हत्या के बाद धनंजय को उस इलाके में दोबारा नहीं देखा गया, इसलिए बलात्कार और हत्या का आरोप उस पर लगा।
कोलकाता पुलिस ने 12 मई 1990 को उसे बलात्कार, हत्या और घड़ी की चोरी के आरोप में गिरफ्तार किया था। धनंजय को सभी अपराधों में धनंजय को दोषी पाया गया और अलीपुर सत्र न्यायालय ने 1991 में उसे मौत की सजा सुनाई। इस फैसले को कलकत्ता हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा।
धनंजय ने पश्चिम बंगाल के राज्यपाल और राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के समक्ष दया याचिका दायर की। हालांकि दोनों ने याचिका खारिज कर दी। 14 अगस्त, 2004 को सुबह 4:30 बजे धनंजय को उसके 39 वें जन्मदिन पर अलीपुर सेंट्रल जेल, कोलकाता में फांसी दी गई थी।
मोहम्मद अजमल आमिर कसाब बनाम महाराष्ट्र राज्य (2012)
कुख्यात 26/11 मुंबई हमले को कसाब समेत 9 आतंकवादियों ने अंजाम दिया था। उन्होंने शहर में एक साथ कई जगहों पर गोलीबारी और बमबारी की थी। आतंकवादियों ने मुंबई के कई प्रमुख स्थलों को निशाना बनाया था। अजमल कसाब और इस्माइल खान ने मुंबई स्थित सीएसटी स्टेशन पर हमला किया था, जिसमें 58 लोग मारे गए और 100 से अधिक लोग घायल हुए थे।
कसाब की उम्र उस समय मात्र 21 वर्ष थी और उसे उन हमलों में जिंदा पकड़ा गया था। उन हमलों में 166 लोग मारे गए थे। कसाब पर भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने और हत्या समेत 86 अपराधों में मुकदमा चला था। मामले की सुनवाई के दरमियान अभियोजन पक्ष ने कहा कि उन्होंने कबूल किया है कसाब ने आरोप स्वीकार किए हैं, जबकि कसाब के वकीलों का कहना था कि उसे बयान देने के लिए मजबूर किया गया है।
कसाब पर मार्च, 2009 से शुरू मुकदमा हुआ था। मई 2010 में उसे एक विशेष अदालत ने मौत की सजा सुनाई थी। कसाब के वकील ने अपनी पैरवी में कहा था कि उसके मुवक्किल का आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा ने ब्रेनवॉश किया हैऔर उसका पुनर्वास किया जा सकता है,
7 मई, 2010 को ट्रायल जज एमएल तहलियानी ने टिप्पणी की था कि कसाब को तब तक फांसी पर लटकाया जाना चाहिए, जब तक वह मर न जाए। उन्होंने कहा था कि कसाब मानवीय व्यवहार का अपना अधिकार खो चुका है।
कसाब ने सजा के खिलाफ अपील की और मुंबई हाईकोर्ट ने अक्टूबर 2010 में मामले की सुनवाई शुरू की थी। शुरुआत में सुरक्षा कारणों से वीडियो लिंक के जरिए उसने कार्यवाही में भाग लिया था। उसने उन्होंने व्यक्तिगत रूप से अदालत में उपस्थित होने की मांग की थी, हालांकि कोर्ट ने मना कर दिया था।
मुंबई हाईकोर्ट ने फरवरी 2011 में उसकी अपील खारिज कर दी थी। जुलाई 2011 में कसाब ने मृत्युदंड के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी।
अदालत में दिए बयान में कसाब ने कहा था कि अभियोजन पक्ष एक उचित संदेह के बाद उस पर लगाए गए आरोपों को साबित करने में विफल रहा है। उसने कहा था कि वह लोगों को मारने और आतंकवादी गतिविधियों का दोषी हो सकता है, लेकिन राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने का दोषी नहीं हो सकता है।
29 अगस्त 2012 को सुप्रीम कोर्ट ने उसकी अपील खारिज कर दी थी और ट्रायल कोर्ट की सजा को बरकरार रखा था। कसाब ने तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के समक्ष दया याचिका भी दायर की थी, हालांकि उसे खारिज कर दिया गया। अजमल कसाब को 21 नवंबर, 2012 को पुणे की यरवदा जेल में जेल में फांसी दी गई थी।
राज्य बनाम मो अफजल व अन्य (अफजल गुरु का मामला, 2013)
13 दिसंबर 2001 को पांच सशस्त्र आतंकियों ने संसद पर हमला किया था, जिसमें ड्यूटी पर तैनात सुरक्षाकर्मियों को भारी नुकसान हुआ था। आतंकियों ने संसद में घुसने की कोशिश की थी। संसद का सत्र उस समय चल रहा था। हमले में आठ सुरक्षाकर्मियों और एक माली सहित नौ लोगों की मौत हुई थी। 13 सुरक्षाकर्मियों सहित 16 लोगों घायल हुए थे।।
15 दिसंबर 2001 को दिल्ली पुलिस के विशेष टीम ने अफजल गुरु को श्रीनगर से, उसके चचेरे भाई शौकत हुसैन गुरु, शौकत की पत्नी अफसाना गुरु और दिल्ली यूनिवर्सिटी में अरबी के लेक्चरर एसएआर गिलानी को कार और सेलफोन से मिले सुराग के आधार पर गिरफ्तार किया था।
सभी आरोपियों के खिलाफ 13 दिसंबर को एफआईआर दर्ज की गई थी और उन पर भारत के खिलाफ युद्ध, साजिश, हत्या, हत्या का प्रयास आदि आरोपों के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। बाद में आतंकवाद निरोधक अधिनियम (पोटा) 2002 के प्रावधानों के तहज भी मुकदमा दर्ज किया गया था।
18 दिसंबर 2002 को विशेष अदालत ने अफजल गुरु, शौकत गुरु और एसएआर गिलानी को मृत्युदंड की सजा दी। शौकत की पत्नी अफसान को साजिश छिपाने का दोषी पाया गया और उसे 5 साल की जेल की सजा सुनाई गई।
2003 में दिल्ली हाईकोर्ट ने अफजल गुरु और शौकत गुरु की सजा को बरकरार रखा। मामले में सह-अभियुक्त, एसएआर गिलानी और अफसान गुरु (शौकत हुसैन की पत्नी) को उच्च न्यायालय ने 29 अक्टूबर 2003 को बरी कर दिया था।
24 अगस्त 2005 को सुप्रीम कोर्ट ने अफजल गुरु की मौत की सजा को बरकरार रखा, जबकि शौकत गुरु की मौत की सजा को कम कर 10 साल की कैद में बदल दिया गया। अफजल गुरु ने सुप्रीम कोर्ट में समीक्षा याचिका दायर की थी, हालांकि वह याचिका खारिज कर दी गई।
अक्टूबर 2006 में अफजल गुरु की पत्नी ने भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के समक्ष दया याचिका दायर की। जून 2007 में, सुप्रीम कोर्ट ने मौत की सजा की समीक्षा के लिए दायर गुरु की याचिका खारिज कर दी। 2010 में शौकत हुसैन गुरु को अच्छे आचरण के कारण तिहाड़ जेल से रिहा कर दिया गया था।
3 फरवरी 2013 को राष्ट्रपति ने अफजल गुरु की दया याचिका खारिज कर दिया। अफजल गुरु को 9 फरवरी 2013 को तिहाड़ जेल में सुबह 8 बजे फांसी दी गई थी।
याकूब मेमन बनाम महाराष्ट्र राज्य (2015)
याकूब मेमन मुंबई बम धमाकों के प्रमुख संदिग्धों में से एक टाइगर मेमन का भाई था। पेशे से चार्टर्ड अकाउंटेंट याकूब मेमन पर आरोप था कि वह मुंबई बम धमाकों में शामिल था, जिसके मास्टरमाइंड टाइगर मेमन और अंडरवर्ल्ड माफिया दाऊद इब्राहिम थे। उन धमाकों में 257 लोगों की जान गई थी।
पुलिस ने दावा किया कि याकूब मेमन को 5 अगस्त, 1994 को नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर गिरफ्तार किया गया था। जबकि मेमन का कहना था कि उसने 28 जुलाई, 1994 को नेपाल के काठमांडू में पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया था।
27 जुलाई, 2007 को न्यायमूर्ति पीडी कोडे ने उसे आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (टाडा) के तहत दोषी पाया था। उसे आतंकवादी षडयंत्री, हत्या, आतंकवादी गतिविधियों में सहायता और उकसावे का दोषी पाया गया।
उसे अवैध रूप से हथियार और गोला-बारूद रखने और परिवहन का दोषी भी करार दिया गया था और उसे 14 साल से 10 साल तक की कैद और फांसी की सजा दी गई।
मेमन ने मौत की सजा कम करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी, मगर अपील खारिज हो गई थी। उसने अपनी मौत की सजा की पुष्टि के सुप्रीम कोर्ट के के फैसले पर समीक्षा याचिका दायर की थी।
30 जुलाई, 2013 को न्यायमूर्ति पी सदाशिवम ने मौखिक सुनवाई का उसका आवेदन खारिज कर दिया और उसकी समीक्षा याचिका भी रद्द कर दी। बाद में 1 जून 2014 को जस्टिस जे खेहर और सी नागप्पन ने याकूब मेमन की फांसी पर रोक लगा दी।
महाराष्ट्र सरकार याकूब मेममन की फांसी के लिए 30 जुलाई 2015 तारीख तय की थी। 22 मई 2015 को, मेमन ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक क्यूरेटिव याचिका दायर की। 21 जुलाई 2015 को उसे भी रद्द कर दिया गया।
उसने महाराष्ट्र के राज्यपाल के समक्ष दया याचिका भी दायर, जिसे स्वीकार नहीं किया गया था। याकूब मेमन को 30 जुलाई 2015 को नागपुर सेंट्रल जेल में फांसी दी गई थी।