कंपनी बंद कराने संबंधी याचिका दायर करने की निर्धारित मियाद के लिए डिफॉल्ट की तारीख ही प्रासंगिक : सुप्रीम कोर्ट
LiveLaw News Network
28 Sept 2019 10:22 AM IST
उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी है कि एक कंपनी को बंद कराने संबंधी याचिका (वाइंडिंग अप पिटीशन) दायर करने की निर्धारित मियाद के लिए डिफॉल्ट की तारीख ही प्रासंगिक है। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि निर्धारित मियाद तभी शुरू होगी जब कंपनी वाणिज्यिक तौर पर इन्सॉलवेंसी (दिवाला) में गयी हो या अपने कारोबार का आधार खो चुकी है।
इस आधार पर न्यायमूर्ति रोहिंगटन फली नरीमन, न्यायमूर्ति सुभाष रेड्डी और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की पीठ ने जिग्नेश शाह और पुष्पा शाह की कंपनी 'ला-फिन फाइनेंशियल सर्विस' के खिलाफ इंफ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एंड फाइनेंस सर्विसेज लिमिटेड (आईएलएंडएफएस) की ओर से शुरू की गयी इन्सॉलवेंसी कार्रवाई 'कालातीत' (टाइम-बार्ड) करार देते हुए निरस्त कर दी।
तथ्यात्मक पृष्ठभूमि
आईएलएंडएफएस ने कंपनी अधिनियम 1956 की धारा 433(ई) के तहत 21 अक्टूबर 2016 को बॉम्बे हाईकोर्ट में ला-फिन को बंद कराने की याचिका दायर की थी। दिसम्बर 2016 में इन्सॉलवेंसी एवं बैंकरप्सी कोड (दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता) लागू होने के बाद यह मामला राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (एनसीएलटी), मुंबई में स्थानांतरित हो गया तथा इसे संहिता की धारा सात के तहत दायर याचिका मानी गयी।
यह याचिका ला-फिन की अनुषंगी कंपनी एमसीएक्स-एसएक्स के 442 लाख शेयर आईएलएंडएफएस से पुन:क्रय करने संबंधी अंडरटेकिंग पर कथित तौर पर अमल न करने को लेकर दायर की गयी थी। आईएलएंडएफएस ने ये शेयर 2009 में खरीदे थे। ला-फिन की अंडरटेकिंग पर अमल की अंतिम अवधि अगस्त 2012 थी।
इस प्रकार कोर्ट के समक्ष यह सवाल था कि क्या अगस्त 2012 में दी गयी अंडरटेकिंग के कथित उल्लंघन के मामले में अक्टूबर 2016 में दायर वाइंडिंग अप पिटीशन 'टाइम बार्ड' अर्थात कालातीत मानी जायेगी।
एनसीएलटी ने इस याचिका को धारा सात के तहत स्वीकार कर लिया, जिसे जिग्नेश शाह और पुष्पा शाह ने राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण (एनसीएलएटी) में चुनौती दी। एनसीएलएटी ने यह कहते हुए याचिका को सुनने योग्य करार दिया कि इस मामले में याचिका को निर्धारित अवधि के बाद दायर (टाइम बार्ड) नहीं समझा जायेगा क्योंकि वाइंडिंग अप पिटीशन संहिता के अस्तित्व में आने की तारीख से तीन साल (एक दिसम्बर 2016) के भीतर थी।
आईबीसी वाइंडिंग अप पिटीशन को समय समाप्त होने के बाद नहीं शुरू कर सकती
अपीलकर्ता जिग्नेश शाह की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी ने मामले के गुण-दोष पर जिरह नहीं की, बल्कि उन्होंने आईएलएंडएफएस को कानूनी तौर पर मिली मियाद का मुद्दा उठाया।
पीठ के लिए फैसला लिखते हुए न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा है कि धारा 238ए के तहत आईबीसी की प्रक्रिया के लिए मियाद लागू थी। कोर्ट ने कहा,
"आईबीसी के अस्तित्व में आने से पहले ही वाइंडिंग अप पिटीशन दायर की जा चुकी थी और अब यह संहिता के तहत दायर याचिका में बदल गयी है। यहां यह निर्णय करना है कि क्या जिस दिन वाइंडिंग अप पिटीशन दायर की गयी थी वह मियाद के भीतर थी या नहीं। यदि इस तरह की याचिका टाइम-बार्ड पायी जाती है तो संहिता की धारा 238ए के तहत ऐसी टाइम-बार्ड पिटीशन को फिर से विचार नहीं किया जा सकता।
वाइंडिंग अप पिटीशन कंपनी की गड़बड़ी
कंपनी कानून 1956 की धारा 433(ई) के तहत वाइंडिंग अप पिटीशन तभी दायर की जा सकती है जब कोई कंपनी कर्ज का भुगतान करने में अक्षम हो। कोई कंपनी किन परिस्थितियों में कर्ज भुगतान की स्थिति में नहीं कही जा सकती, उसका जिक्र धारा 434 में किया गया है। जब ऐसी कोई परिस्थिति आती है तो वह वाइंडिंग अप पिटशीन के लिए कदम उठाने के अनुकूल होती है। कोर्ट ने कहा,
"प्रतिबंध की कार्रवाई शुरू करने का मुख्य कारण कंपनी द्वारा न किया गया भु्गतान है। निस्संदेह रूप से इस तरह की कार्रवाई तभी शुरू होती है जब गड़बड़ी होती है। उसके बाद ऋण बकाया रह जाता है और भुगतान नहीं किया जाता। यही वह तारीख है जो वाइंडिंग अप पिटीशन दायर करने की मियाद के लिए प्रासंगिक है।"
आईएलएंडएफएस की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता नीरज किशन कौल ने दलील दी कि इनसॉलवेंसी की कार्रवाई तभी शुरू की जा सकती है जब कंपनी वाणिज्यिक दिवालिया हो गयी हो। क्योंकि इनसॉलवेंसी संबंधी मामला 'इन रेम' कार्रवाई का हिस्सा है, न कि कर्ज वूसली का। उन्होंने कहा कि 2013 में ला-फिन की कुल सम्पत्ति 1000 करोड़ रुपये से अधिक थेी, लेकिन वाइंडि्ंग अप पिटीशन तब दायर की गयी जब जग्नेश शाह की कंपनी की सम्पत्ति महज 200 करोड़ रुपये रह गयी थी। कोर्ट में यह भी बताया गया कि आईएलएंडएफएस ने इस बीच अंडरटेकिंग के मसले पर एक विशेष मुकदमा दायर किया था।
कोर्ट ने यह दलील भी खारिज कर दी कि इनसॉल्वेँसी पिटीशन तभी शुरू की जा सकती है जब कंपनी का आधार समाप्त हो चुका हो तथा कहा कि
"यद्यपि यह स्पष्ट है कि वाइंडिंग अप प्रक्रिया 'इन-रेम' प्रक्रिया का हिस्सा है, न कि रिकवरी प्रक्रिया का, और जहां तक वाइंडिंग अप पिटीशन का प्रश्न है तो प्रतिबंध शुरू करने की तारीख डिफॉल्ट की तारीख से शुरू होगी। कॉमर्शियल सॉल्वेंसी का प्रश्न कंपनी कानून 1956 की धारा 434(एक)(सी) के तहत आता है, जहां पहले ऋण को प्रमाणित करना होता है, उसके बाद कोर्ट अन्य क्रेडिटर्स की इच्छाओं पर तथा समग्र रूप में कॉमर्शियल सॉल्वेंसी पर भी विचार करेगा। वह चरण, जब कोर्ट यह तय करता है कि क्या कंपनी कॉमर्शियली इनसॉल्वेंट है, उस वक्त आता है जब वह वाइंडिंग अप पिटीशन को गुण-दोष के आधार पर स्वीकार करने के लिए सुनवाई करता है। इस प्रकार श्री कौल की दलील स्वीकार करना कठिन है कि लिमिटेशन्स की प्रक्रिया के तहत कॉज ऑफ एक्शन में कॉमर्शियल इनसॉल्वेंसी या कंपनी का आधार खोना शामिल होगा।"