COVID-19:सुप्रीम कोर्ट ने किशोर न्याय बोर्ड और बाल न्यायालयों से बच्चों की अंतरिम ज़मानत पर विचार करने को कहा
LiveLaw News Network
4 April 2020 12:59 PM IST
COVID-19 महामारी के मद्देनजर बाल देखभाल संस्थानों में भीड़ कम करने के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को किशोर न्याय बोर्ड और बाल न्यायालयों को निर्देश दिया है कि वे उन सभी बच्चों को अस्थाई जमानत पर रिहा करने पर विचार करें, जो कथित तौर पर कानून के साथ संघर्ष के चलते इन गृहों में रखे गए हैं, बशर्ते जेजे अधिनियम, 2015 की धारा 12 के परंतुक लागू होने के लिए स्पष्ट और वैध कारण न हो।
न्यायमूर्ति एल .नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की खंडपीठ ने यह आदेश देशभर के बाल संरक्षण गृहों की दशा पर स्वत संज्ञान लेते हुए दिया है।
पीठ ने बाल कल्याण समितियों, किशोर न्याय बोर्ड और बाल न्यायालयों, बाल देखभाल संस्थानों (सीसीआई) और राज्य सरकारों को बच्चों के बीच कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश भी जारी किए।
पीठ ने मामले में स्वत संज्ञान लेते हुए कहा कि-
''ऐसे बच्चे हैं जिन्हें देखभाल और ध्यान की आवश्यकता होती है,परंतु उनको इन होम में रखा गया है। वहीं कानून के साथ संघर्ष कर रहे बच्चों को भी विभिन्न प्रकार के होम में रखा जाता है। ऐसे बच्चे भी होते हैं जिन्हें पालक और रिश्तेदारी की देखभाल में रखा जाता है। इन परिस्थितियों में, यह महसूस किया गया है कि इन बच्चों के हित पर ध्यान दिया जाना चाहिए।''
अदालत ने इन सभी संस्थानों को यह विचार करने के लिए कहा है कि क्या बच्चों के सर्वोत्तम हित, स्वास्थ्य और सुरक्षा की चिंताओं को देखते हुए इन बच्चों को संबंधित संस्थानों में रखा जाना चाहिए। यह निर्देश दिया गया है कि परिवारों को यह परामर्श दिया जाए कि संस्थागतकरण एक अंतिम उपाय है। इसके अलावा, उन्हें संस्थानों में सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वच्छता उत्पादों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए भी कहा गया है।
अदालत ने सुझाव दिया है कि इन संस्थानों को वास्तविकता की तरफ मुड़ना चाहिए ताकि सहायता डेस्क उपलब्ध कराया जा सकें। वहीं अपेक्षित पूछताछ और सुनवाई आयोजित की जा सकें।
पीठ ने इन बच्चों की सुरक्षा के बारे में भी चिंता व्यक्त की और कहा कि उन्हें यौन और लिंग आधारित हिंसा सहित सभी तरह की हिंसा से बचाना महत्वपूर्ण है। जो बीमारी के डर व लॉकडाउन से उत्पन्न हुई चिंता और तनाव के चलते तेज हो सकती हैं।
साफतौर पर, निम्नलिखित निर्देश दिए गए थे-
बाल कल्याण समितियों द्वारा किए जाने वाले उपाय
-जिन बच्चों को उनके परिजनों के पास वापिस भेजा जाए,उनके मामलों में टेलिफोन के जरिए निगरानी की जाए व जिला बाल संरक्षण समितियों के जरिए संमवय किया जाए। वहीं पालक की देखभाल में रखे गए बच्चों के लिए पालक देखभाल और गोद लेने वाली समितियों (एसएफसीएसी) के माध्यम से समन्वय किया जाए।
-सीसीआई में रखे गए बच्चों और कर्मचारियों के संबंध में जानकारी लेने के लिए राज्य स्तर पर सहायता डेस्क और सपोर्ट सिस्टम स्थापित किए जाएं।
किशोर न्याय बोर्ड और बाल न्यायालयों द्वारा किए जाने वाले उपाय
- पूछताछ के लिए ऑनलाइन वीडियो सेशन करवाएं।
- कथित तौर पर कानून के साथ संघर्ष के चलते अवलोकन या निगरानी होम में रखे गए बच्चों के मामले में जेजेबी सभी बच्चों को जमानत पर रिहा करने के लिए कदम उठाए। बशर्तें जेजे अधिनियम, 2015 की धारा 12 के परंतुक लागू होने का कारण स्पष्ट और वैध कारण न हो।
-बिना किसी तरह के संपर्क के मामलों को तेजी से निपटाने के लिए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग या ऑनलाइन सुनवाई की जा सकती हैं।
सरकारों द्वारा किए जाने वाले उपाय
-सीसीआई और जिला बाल संरक्षण इकाइयों के प्रभारी व्यक्तियों के साथ मिलकर बात की जाए ताकि सीसीआई कर्मचारियों के आपसी संपर्क को कम करने के लिए उनको रोटेशन पर नियुक्त किया जाए।
-सभी सरकारी पदाधिकारियों के कुशल परिश्रम को सुनिश्चित किया जाए। और जेजे मॉडल रूल्स, 2016 के नियम 66 (1) के अनुसार ड्यूटी में किसी भी तरह की चूक के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए।
- महामारी के प्रभावी प्रबंधन के कारण बढ़ने वाली लागतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त बजटीय आवंटन सुनिश्चित करें।
सीसीआई को निर्देश
- सकारात्मक स्वच्छता व्यवहारों के अभ्यास, प्रचार और प्रदर्शन के लिए आवश्यक कदम उठाएं और उनको अपनाए जा रहा है या नहीं इसकी निगरानी की जाए।
-संस्थानों में रखे गए बच्चों की नियमित जांच की जाए और हेल्थ रेफरल सिस्टम का पालन हो।
अदालत ने स्पष्ट किया है कि इस तरह के निर्देश पालक और रिश्तेदारों की देखभाल में रखे बच्चों पर भी लागू होंगे। अदालत ने अंतिम टिप्पणी करते हुए कहा है कि राज्य सरकार और नोडल विभाग सरकार द्वारा समय-समय पर जारी की जाने वाली सभी प्रासंगिक सलाह और परिपत्रों का ध्यान रखें व जहां आवश्यक हो दिशानिर्देश जारी किए जाने चाहिए।
पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को निर्देश दिया था कि वे 'उच्च स्तरीय समिति गठित' करें, जो कैदियों की उस श्रेणी का निर्धारण कर सके, जिनको चार से छह सप्ताह के लिए पैरोल पर रिहा किया जा सके। यह भी कहा गया था कि जेलों में भीड़ कम करने के लिए उन कैदियों को पैरोल दी जा सकती है, जिनको सात साल तक की सजा हो चुकी है या जिन पर ऐसे आरोपों के तहत केस चल रहा है, जिनमें सात साल तक की सजा का प्रावधान है।