शादी के झांसे में यौन संबंध की सहमति साक्ष्य आधारित मामला, सीआरपीसी की धारा 482 के तहत याचिका का निर्धारण नहीं : इलाहाबाद हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
1 Oct 2019 9:32 AM IST
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक बार फिर दोहराया है कि कोर्ट को दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 482 के तहत दायर याचिका के अंतर्गत साक्ष्य का मूल्यांकन करने का अधिकार नहीं है। साथ ही शादी का झांसा देकर पीड़िता से यौनसंबंध बनाने वाले अभियुक्त का इरादा शादी करने का था या नहीं, यह साक्ष्य का मामला है।
अपीलकर्ता कमल पाल के खिलाफ आरोप था कि वह पीड़िता लड़की को बहला-फुसलकार कहीं ले गया और उसे नशीला पदार्थ खिलाकर उसके साथ दुष्कर्म किया। जब पीड़़िता ने अभियुक्त से विवाह करने को कहा तो उसने ऐसा करने से मना कर दिया, उल्टे पीड़िता का उत्पीड़न किया।
आरोपी ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया
अपीलकर्ता ने वकील संतोष यादव और विमल चंद्र पाठक के जरिये हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था और भारतीय दंड संहिता की धारा 366, 376, 328, 323, 506, 406 के तहत दायर आरोप पत्र, चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट (सीजेएम) द्वारा जारी तत्संबंधी संज्ञान आदेश तथा मामले की पूरी कार्रवाई को निरस्त करने की मांग की।
अभियुक्त ने दावा किया कि उसे इस मामले में गलत तरीके से फंसाया गया है, क्योंकि पीड़िता उससे शादी करना चाहती थी। उसने अपहरण, बलात्कार एवं मारपीट के आरोपों से भी इन्कार किया था और कहा कि पीड़िता को कहीं चोट नहीं लगी थी।
अभियोजन पक्ष ने अभियुक्त की याचिका का यह कहते हुए विरोध किया था कि सीआरपीसी की धारा 482 के तहत दायर अर्जी पर जांच अधिकारी द्वारा संग्रहीत साक्ष्य के मूल्यांकन का अधिकार नहीं है, क्योंकि इसके लिए ट्रायल की आवश्यकता होगी।
कोर्ट ने "मोहम्मद अल्लाउद्दीन खान बनाम बिहार सरकार एवं अन्य के मामले" में दिये गये फैसले पर भरोसा जताते हुए कहा, -
"हाईकोर्ट को सीआरपीसी की धारा 482 के तहत मुकदमे के साक्ष्य के मूल्यांकन का अधिकार नहीं है, क्योंकि गवाहों के बयानों में विरोधाभास या/ और विसंगतियां अनिवार्य तौर पर साक्ष्यों के मूल्यांकन का मसला है और सभी पक्षों की ओर से सम्पूर्ण साक्ष्य प्रस्तुत कर दिये जाने के बाद ज्यूडिशियल मजिस्ट्रट को इसकी समीक्षा करनी चाहिए।"
कोर्ट ने दुष्कर्म के आरोपों के मद्देनजर अनुराग सिंह बनाम छत्तीसगढ़ सरकार 2019 मामले में शीर्ष अदालत के फैसले का उल्लेख भी किया, जिसमें कहा गया था,
"यह स्थापित और साबित हो चुका है कि शुरू से ही आरोपी ने पीड़िता को शादी का वादा किया था, लेकिन उसका इरादा शादी करने का नहीं था। पीड़िता ने अभियुक्त द्वारा शादी का आश्वासन दिये जाने के बाद यौन संबंध की सहमति दी थी और ऐसी सहमति आईपीसी की धारा 90 के तहत गुमराह करके ली गयी सहमति कही जा सकती है। ऐसे मामले में ऐसी सहमति के लिए अभियुक्त को माफ नहीं किया जा सकता और कहा जा सकता है कि अभियुक्त ने आईपीसी की धारा 375 के तहत बलात्कार का अपराध किया है और उसे धारा 376 के तहत दोषी ठहराया जा सकता है।"
उपरोक्त फैसलों को आधार बनाकर न्यायमूर्ति दिनेश कुमार सिंह-प्रथम ने यह कहते हुए अपना फैसला समाप्त किया कि "क्या अभियुक्त लड़की से शुरू से ही शादी करना चाह रहा था या नहीं, क्या पीड़िता द्वारा यौन संबंध के लिए दी गयी सहमति स्वच्छंद सहमति थी या नहीं, यह साक्ष्य से जुड़ा मसला है, जिसका निर्धारण ट्रायल के बाद ही संभव है।"