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निष्पक्ष सुनवाई की अवधारणा में आरोपी, पीड़ित, समाज एवं समुदाय के हितों के बीच संतुलन ज़रूरी: इलाहाबाद हाईकोर्ट

LiveLaw News Network
31 Oct 2019 3:50 AM GMT
निष्पक्ष सुनवाई की अवधारणा में आरोपी, पीड़ित, समाज एवं समुदाय के हितों के बीच संतुलन ज़रूरी: इलाहाबाद हाईकोर्ट
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इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक बार फिर कहा है कि मुकदमा वापस लेने के लिए लिखित अनुमति का अधिकार राज्य सरकार के पास है, साथ ही उसने मुकदमा वापस लेने की अभियोजन पक्ष की अर्जी ठुकराने का आदेश निरस्त कर दिया। हाईकोर्ट ने अभियोजन पक्ष की अर्जी पर फिर से विचार करने का भी ट्रायल कोर्ट को आदेश दिया।

न्यायमूर्ति राजीव सिंह ने इस बाबत राज्य सरकार द्वारा आपराधिक मुकदमे की वापसी (2017) के मामले में हाईकोर्ट की पूर्ण पीठ द्वारा निर्धारित उस दृष्टिकोण का हवाला दिया जिसमें यह व्यवस्था दी गयी थी कि

"निष्पक्ष सुनवाई की अवधारणा के तहत सरकारी एजेंसियों की मदद से आरोपी, पीड़ित, समाज एवं समुदाय के हित में संतुलन कायम करना अपरिहार्य है। उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार को कानून संशोधन के जरिये आवश्यकतानुसार, मुकदमा वापसी की लिखित अर्जी को मंजूरी देने का अधिकार हासिल है। इस प्रकार के अधिकार की मंजूरी निश्चित तौर पर राज्य सरकार द्वारा अभियोजन से संबंधित मामलों में अपने संप्रभु अधिकार जताने और इसे बार-बार इस्तेमाल करने के लिए दी जाती है। राज्य सरकार इस योजना के तहत जिस संवैधानिक अधिकार का इस्तेमाल करती है, वह कार्यपालिका के अधीन आता है।"

यह आदेश राम प्रकाश यादव की ओर से दंड संहिता प्रक्रिया (सीआरपीसी) की धारा 482 के तहत दायर अर्जी मंजूर करते हुए पारित किया गया। यादव के खिलाफ भ्रष्टाचार निरोधक कानून 1988 की धारा सात और 13(एक)(डी) तथा धारा 13(दो) के तहत मुकदमा चल रहा था।

यह आरोप था कि यादव ने 26,594 रुपये के बिजली बिल में सुधार के लिए शिकायतकर्ता से 25 हजार रुपये घूस मांगे थे। बाद में जाल बिछाकर उसे गिरफ्तार किया गया था और उसके खिलाफ मुकदमा शुरू किया गया था।

यादव ने दलील दी थी कि सहायक सरकारी वकील ने मुकदमा वापस लेने की अनुमित के लिए सीआरपीसी की धारा 321 के तहत अर्जी दायर की थी, लेकिन लखनऊ स्थित भ्रष्टाचार निरोधक कानून संबंधी विशेष अदालत-चतुर्थ द्वारा खारिज कर दी गयी थी। यह भी दलील दी गयी थी कि संबंधित आदेश में अर्जी को खारिज करने के लिए किसी तरह का कोई आधार या टिप्पणी नहीं की गयी थी।

यह भी दलील दी गयी थी कि अर्जी लखनऊ के जिला मजिस्ट्रेट के निर्देश पर दायर की गयी थी, जिसने पूरे मामले की जांच की थी तथा यह निष्कर्ष दिया था कि आरोपी के खिलाफ मुकदमा जारी रखना अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा।

न्यायमूर्ति सिंह ने कहा कि निचली अदालत 'राज्य सरकार द्वारा आपराधिक मुकदमा वापस लेने से संबंधित मामले' में हाईकोर्ट की पूर्ण पीठ के सिद्धांतों पर अमल करने में असफल रही है। उन्होंने कहा,

"राज्य सरकार अधीनस्थ अदालतों में लंबित आपराधिक मामलों की निर्धारित मानकों के तहत यह समीक्षा करने को स्वतंत्र है कि ऐसे मामलों को सीआरपीसी की धारा 321 के तहत वापस लेने की आवश्यकता है या नहीं, क्योंकि यह नीतिगत फैसले के दायरे में आता है। इस मामले में फैसला राज्य सरकार द्वारा लिया जाता है और सीआरपीसी की धारा 321 के तहत मुकदमा वापस करने की अर्जी दायर करते वक्त संबंधित मानकों का ध्यान रखना होता है।"

हाईकोर्ट ने इस मामले में 'राहुल अग्रवाल बनाम राकेशा जैन एवं अन्य (2005)' के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी भरोसा जताया, जिसने कहा था,

"जब सीआरपीसी की धारा 321 के तहत अर्जी को अनुमति दी जाती है तो कोर्ट के लिए सभी प्रासंगिक परिस्थितियों पर विचार करना और यह तय करना अपरिहार्य होगा कि मुकदमा वापस लेने से न्याय हो रहा है या नहीं? सीआरपीसी की धारा 321 के तहत मुकदमा वापस लेने के विशेषाधिकार का इस्तेमाल मामले को दबाने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। मुकदमा वापस लेने की अनुमति दी जा सकती है, यदि ऐसा प्रतीत हो कि अंतत: आरोपी को बरी होना ही है और मामले को जारी रखने से आरोपी का केवल उत्पीड़न ही हो रहा है अथवा मुकदमा बंद कर देने से संबद्ध पक्षों के बीच सौहार्द पैदा होगा।"

उपरोक्त तथ्यों के अलावा कोर्ट ने यह भी विचार किया कि आवेदनकर्ता का 26,594 रुपये के बकाये बिल को दुरुस्त करने के लिए शिकायतकर्ता से 25,000 रुपये घूस मांगना असम्भव प्रतीत होता है।

कोर्ट ने इस बात पर भी विचार किया कि बिल में सुधार का अधिकार कार्यकारी अभियंता (राजस्व) को था, न कि आवेदनकर्ता के अधिकार क्षेत्र में।

इन टिप्पणियों के साथ हाईकोर्ट ने संबंधित आदेश निरस्त कर दिया तथा मामले को पुनर्विचार के लिए ट्रायल कोर्ट के पास भेज दिया।

याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता नंदित कुमार श्रीवास्तव, अधिवक्ता ऐश्वर्य मिश्रा, मनोज कुमार दीक्षित, प्रांजल कृष्णा, प्रशांत सिंह गौर और सुधांशु मिश्रा तथा प्रतिवादी राज्य सरकार की ओर से सहायक सरकारी वकील अनिरुद्ध कुमार सिंह ने मामले की पैरवी की।



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