बिहार में पूरी तरह पुलिस राज, निचले तबके की आजादी का नुकसान अधिक संसाधन वाले किसी अमीर व्यक्ति की तुलना में कम नहीं आंका जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

11 July 2021 9:30 AM GMT

  • बिहार में पूरी तरह पुलिस राज, निचले तबके की आजादी का नुकसान अधिक संसाधन वाले किसी अमीर व्यक्ति की तुलना में कम नहीं आंका जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा, "निचले तबके की आजादी की क्षति अधिक संसाधन वाले किसी अमीर व्यक्ति की तुलना में कभी भी निचले पायदान पर नहीं होती।"

    न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एम आर शाह की खंडपीठ पटना हाईकोर्ट के 22 दिसम्बर 2020 के फैसले के खिलाफ विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) की सुनवाई कर रही थी, जिसने पटना पुलिस द्वारा एक ड्राइवर को गैर-कानूनी तरीके से हिरासत में लेने और 35 दिनों तक हिरासत में रखने के लिए पांच लाख रुपये का मुआवजा देने का निर्देश दिया था। बिहार सरकार ने मुआवजे की राशि के खिलाफ एसएलपी दायर की थी।

    राज्य सरकार की ओर से पेश वकील ने कहा, "हमने जिम्मेदार सरकार के रूप कार्य किया और कसूरवार एसएचओ को निलंबित कर दिया गया है तथा अनुशासनात्मक कार्रवाई जारी है।"

    न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा,

    "राज्य सरकार को एसएलपी नहीं दायर करना चाहिए था। आपका तर्क केवल यही है न कि वह एक चालक है और इसलिए उसके लिए पांच लाख रुपये का मुआवजा काफी अधिक है? आजादी की क्षति इस तरह से नहीं आंकी जा सकती कि यदि कोई अमीर आदमी इसमें शामिल होता तो उसके लिए अधिक मुआवजा होगा। जहां आजादी की क्षति का संबंध है, एक निचले तबके का व्यक्ति भी अधिक संसाधन वाले अमीर व्यक्ति के समान ही होता है। हाईकोर्ट द्वारा पांच लाख रुपये का मुआवजा सही है।"

    न्यायाधीश ने पूछा,

    "और आप कह रहे हैं कि अभियुक्त को रिहा कर दिया गया था, लेकिन वह अपनी इच्छा से पुलिस स्टेशन में रुका हुआ था, जहां वह अपनी आजादी का लुत्फ उठा रहा था? आप इस पर भरोसा करने की कोर्ट से अपेक्षा करते हैं?"

    न्यायमूर्ति शाह ने उल्लेख किया, "देखिये आपका ही डीआईजी (हाईकोर्ट के संबंधित फैसले में दर्ज अपनी रिपोर्ट में) क्या कहता है कि समय पर एफआईआर दर्ज नहीं की गयी थी, घायल का बयान दर्ज नहीं किया गया था, वाहन की जांच नहीं की गयी थी और बिना किसी कारण वाहन एवं चालक को गैर-कानूनी तरीके से हिरासत में रखा गया था।"

    न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने आगे कहा,

    "ऐसा प्रतीत होता है कि बिहार में पूर्ण रूप से पुलिस राज है।"

    बेंच ने एसएलपी खारिज कर दी।

    पटना हाईकोर्ट के संदर्भित फैसले में कहा गया है कि मुख्य न्यायाधीश संजय करोल और न्यायमूर्ति एस कुमार की खंडपीठ ने कहा था कि इस मामले में पुलिस अधिकारियों ने स्थापित कानून की प्रक्रिया का स्पष्ट उल्लंघन किया था, वाहन और चालक को बिना प्राथमिकी दर्ज किये अथवा गिरफ्तारी के लिए कानून में वर्णित प्रक्रिया का पालन किये ही हिरासत में लिया गया था तथा 35 दिनों से अधिक समय तक पुलिस हिरासत में रखा गया था।

    इस प्रकार हाईकोर्ट ने व्यवस्था दी कि अधिकारियों ने संविधान के अनुच्छेद 21 और 22 के तहत हिरासती के मौलिक अधिकारों का प्रत्यक्ष उल्लंघन किया था और उसने आदेश जारी किया,

    "बिहार सरकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों के हनन के लिए हिरासती जितेन्द्र कुमार उर्फ संजय कुमार को पांच लाख रुपये के मुआवजे का भुगतान करेगी। इस राशि का भुगतान आज से छह सप्ताह की अवधि के भीतर निश्चित तौर पर करना होगा।"

    कोर्ट ने अभिव्यक्त किया कि भारत में ट्रक डाइवर अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए न केवल अंतहीन दबाव में होते हैं, बल्कि राज्य के कानून और व्यवस्था से संबंधित अधिकारियों के कोप की दृष्टि से भी अति संवेदनशील होते हैं।

    इसने कहा,

    "उनका जीवन बड़ी कठिनाई और बलिदान से परिभाषित होता है। वे छोटी अवधि में लंबी यात्राएं पूरी करने के लिए लगातार दबाव में रहते हैं; भरपूर नींद नहीं ले पाने की स्थिति में भी काम करते रहते हैं; राजमार्गों और सड़कों पर उचित स्वच्छता सुविधाओं की कमी झेलते हैं; भोजन और पानी भी उन्हें उचित तरीके से नहीं मिल पाता, और उन्हें अपना अधिकांश समय अपने परिवारों से दूर बिताना पड़ता है। इन भीषण प्रतिकूलताओं के साथ, वे राजमार्गों पर डकैतों के लगातार खतरे से खुद को बचाने का प्रयास करते हुए पुलिस और सरकारी अधिकारियों का कोपभाजन बनते हैं।"

    इस प्रकार इसने कहा था कि बिहार और देश भर में ट्रक ड्राइवरों की स्थिति में सुधार की त्वरित आवश्यकता है। हाईकोर्ट ने ट्रक चालकों के संरक्षण और कल्याण के लिए दिशानिर्देशों की एक सीरिज जारी की थी, जिसे रिपोर्ट के अंत में पेश किया जा रहा है।

    ट्रक चालकों की भूमिका एवं समस्याएं

    बेंच ने कहा कि भारत में ट्रक चालकों में असुरक्षा की भावना हमेशा उन्हें मानव सभ्यता के स्याह पक्ष की उपेक्षा की ओर उन्मुख करते हैं। इसने आगे कहा कि जहां ट्रक ड्राइवर राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी होते हैं, वहीं वे हमारे समाज के सर्वाधिक कमजोर वर्गों में से एक हैं।

    बेंच ने टिप्पणी की,

    "राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ गरीबों के अथक और निरंतर प्रयासों और श्रम पर निर्भर है, जिनमें से ज्यादातर अनपढ़ और कमजोर हैं। ट्रक ड्राइवरों की कड़ी मेहनत और परिश्रम के अभाव में, पूरे देश में आर्थिक गतिविधि का ठहर जाना तय है। ट्रक ड्राइवर अपने काम के तौर पर उच्च तनाव और दबाव का सामना करते हैं। अधिकारियों द्वारा विद्वेष और यातना के जरिये अतिरिक्त परेशानी और आघात दिया जाना गंभीर मानवीय अन्याय के समान है। इस तरह की परम्पराएं दुनिया के प्रत्येक नागरिकों के लिए निर्धारित मानवाधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन हैं।"

    इसने कहा कि सरकारी संस्थानों को समझना चाहिए कि किसी भी लोकतंत्र में कानून के शासन एवं सुशासन के दायरे में गरिमा और आत्म-सम्मान के साथ जीने के अधिकार को नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता।

    कोर्ट ने ट्रक ड्राइवरों के लिए उचित शिक्षा और उनके स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित करने को कहा है, क्योंकि वे राज्य और राष्ट्र दोनों की समृद्धि और विकास के लिए अमूल्य हैं।

    इस संदर्भ में कोर्ट ने बिहार सरकार को ट्रक ड्राइवरों की स्थिति में सुधार लाने के लिए प्रयास करने और उनकी स्वास्थ्य देखभाल; भोजन तक पहुंच; काम करने के घंटे; मजदूरी के भुगतान; साक्षरता और प्रौद्योगिकी तक पहुंच के मुद्दों पर विचार करने का निर्देश दिया है।

    पीठ ने जोर दिया,

    "ट्रक ड्राइवरों को अपनी यात्रा के दौरान अधिकारियों के साथ लगातार समस्याओं का सामना करना पड़ता है। उन्हें राज्यों / केंद्रशासित प्रदेशों को पार करते समय कई चौकियों को पार करना पड़ता है। अधिकारी ट्रक चालकों के खिलाफ इन चौकियों पर विशेष रूप से भेदभावपूर्ण हो सकते हैं।

    ट्रक चालकों के बीच साक्षरता की कमी और राज्य के कानूनों में महत्वपूर्ण असमानता उनकी अनवरत यात्रा में एक बड़ी बाधा हो सकती है। जमीनी स्तर पर ड्राइवरों को अधिकारियों से निपटने की आवश्यकता होती है, और उचित ज्ञान की कमी के कारण अधिकारियों को चालकों को परेशान करने का पर्याप्त मौका मिलता है, जिससे ट्रकों के पहिये भी थम जाते हैं। इस अनावश्यक प्रक्रिया के कारण राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के साथ-साथ राज्य की अर्थव्यवस्था को भी भारी मात्रा में नुकसान होता है।

    यह स्पष्ट है कि वे अर्थव्यवस्था के संचालन के लिए अमूल्य धरोहर हैं और व्यापक भेदभाव और निरंतर कठिनाइयों का सामना करते रहते हैं। सरकार को इन मुद्दों के समाधान के लिए एक निकाय के गठन पर विचार करना चाहिए। उनके मानवाधिकारों के उल्लंघन को संबोधित करने की तत्काल आवश्यकता है।"

    पृष्ठभूमि

    ट्रक मालिक द्वारा याचिका दायर की गई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि पुलिस ने उसके वाहन (दूध टैंकर) को उसके चालक, जितेंद्र कुमार के साथ, बिना कोई प्राथमिकी दर्ज किए और/या व्यक्ति की हिरासत दर्ज करने या वाहन को जब्त करने की उचित प्रक्रियाओं का पालन किए बिना अवैध रूप से हिरासत में लिया, जो जब्ती को गैरकानूनी और हिरासत को अवैध बनाता है।

    पुलिस बयान के अनुसार, दूध के टैंकर और हिरासती (ड्राइवर) को एक पैदल यात्री को जख्मी करने के कारण पकड़ा गया था। कथित तौर पर बंदी दुर्घटनास्थल से फरार हो गया और बाद में दूसरे थाने यानी दरियापुर थाने के अधिकारियों ने वाहन को रोककर परसा थाने के अधिकारियों को सौंप दिया। प्राथमिकी तुरंत दर्ज नहीं की गई क्योंकि प्रभारी अधिकारी घायल व्यक्ति का पता नहीं लगा सके थे। इसके अलावा, चालक (निरोधक) को कभी भी हिरासत में नहीं लिया गया और वह स्वेच्छा से पुलिस परिसर के बाहर खड़े वाहन के अंदर बैठ गया।

    बंदी चालक के अनुसार, हालांकि हिरासत में लिए गए टैंकर वाहन को परसा थाना क्षेत्र में जब्त किया गया था, लेकिन टैंकर का दूध बाहर निकालने के लिए पास की एक डेयरी में ले जाया गया और उसके बाद पुलिस स्टेशन में हिरासत में लिया गया, जहां हिरासत में लिए गए व्यक्ति को न्यायिकेतर हिरासत में रखा गया था।

    निष्कर्ष

    अवैध हिरासत और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन

    कोर्ट ने पाया कि उक्त घटना को लेकर पुलिस का बयान काफी 'अविश्वसनीय' था, क्योंकि यह कई आवश्यक सवालों के जवाब देने में विफल रहा, जिससे उसकी कहानी में तारतम्य नहीं था, जैसे :

    (i) पुलिस ने तुरंत प्राथमिकी दर्ज क्यों नहीं की जब बंदी द्वारा चलाए जा रहे वाहन को पकड़ा गया था?

    (ii) वाहन को जब्त क्यों नहीं किया गया?

    (iii) ड्राइवर को न्यायालय के समक्ष क्यों नहीं पेश किया गया?

    (iv) जब दुर्घटना के साक्षी व्यक्ति का कोई बयान नहीं था, तो पुलिस को ऐसे तथ्यों का पता कैसे चला?

    इस पृष्ठभूमि में न्यायालय ने कहा कि मौजूदा मामला गंभीर स्थिति का संकेत देता है जहां पुलिस अधिकारियों ने कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के विरुद्ध काम किया है।

    अदालत ने कहा,

    "वाहन और बंदी को बिना प्राथमिकी दर्ज किए या कानून में सभी व्यक्तियों को मिलने वाली संवैधानिक सुरक्षा सुनिश्चित किये बिना, गिरफ्तारी की किसी अन्य निर्धारित प्रक्रिया का पालन किए बिना 35 दिनों से अधिक समय तक पुलिस हिरासत में रखा गया।"

    यह माना गया कि हिरासत में लिए गए ट्रक चालक की इस तरह की अवैध हिरासत सीधे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निहित व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करती है और इस प्रकार, वह सार्वजनिक कानून में राहत के तहत मुआवजे का हकदार है।

    गिरफ्तारी की प्रक्रिया का पालन किया जाना आवश्यक

    अदालत ने पाया कि दुर्घटना को देखने वाले किसी भी व्यक्ति का कोई बयान नहीं था। इस प्रकार, पुलिस को इस बात का कोई संदेह नहीं था कि बंदी ने कोई असंज्ञेय अपराध किया है, जैसा कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 41 के तहत कार्रवाई शुरू करने के लिए अनिवार्य है।

    पीठ ने कहा,

    "न तो कोई शिकायत थी और न ही कोई विश्वसनीय जानकारी थी, जिससे किसी मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना हिरासत में लेने की आवश्यकता हो।"

    इसने आगे कहा कि सीआरपीसी की धारा 154 और 'ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (2014) 2 एससीसी 1' मामले में सुप्रीम कोर्ट के अनिवार्य निर्देशों के उल्लंघन के आरोप में अभियुक्त के खिलाफ कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई थी। साथ ही, हिरासती को सीआरपीसी की धारा 56 के तहत आवश्यक 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश नहीं किया गया था, सीआरपीसी की धारा 56ए के तहत अनिवार्य उसकी गिरफ्तारी की सूचना न तो उसके परिजनों या नजदीकी व्यक्ति को दी गयी थी, न ही बुक में दर्ज की गयी थी तथा अभियुक्त को उसकी गिरफ्तारी का आधार भी नहीं बताया गया था, जो सीआरपीसी की धारा 50 के तहत अनिवार्य है। इस प्रकार उसे जमानत मांगने के अधिकार से वंचित किया गया।

    इसके अलावा, पुलिस ने सीआरपीसी की धारा 41ए के तहत वाहन के मालिक या कथित दुर्घटना के समय गाड़ी चलाने वाले व्यक्ति को नोटिस नहीं दिया। इस प्रकार, न केवल उक्त प्रावधान का बल्कि सीआरपीसी की धारा 41बी का भी उल्लंघन हुआ, जिसके तहत गिरफ्तारी के ज्ञापन को तैयार करने की आवश्यकता होती है, जिसमें सही और पूरी जानकारी उपलब्ध होती है, और किसी भी स्वतंत्र व्यक्ति उसकी गवाही के तौर पर हस्ताक्षर करता है।

    इसके अलावा, धारा सीआरपीसी की धारा 41डी के तहत प्राप्त कानूनी सलाह लेने के आरोपी के मूल्यवान अधिकार का उल्लंघन किया गया।

    अन्य बातों के साथ-साथ, 'डीके बसु बनाम पश्चिम बंगाल सरकार, एआईआर 1997 एससी 610', 'जोगिंदर कुमार बनाम उत्तर प्रदेश सरकार, (1994) 4 एससीसी 260', और 'अर्नेश कुमार बनाम बिहार सरकार, (2014) 8 एससीसी 273' मामलों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित गिरफ्तारी और हिरासत के दिशानिर्देशों का भी उल्लंघन किया गया।

    एक निष्पक्ष जांच का अधिकार, जिसे 'गंगाधर @ गंगाराम बनाम मध्य प्रदेश सरकार, 2020 एससीसीसी ऑनलाइन एससी 623' मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्ष सुनवाई का एक पहलू माना गया था, का भी उल्लंघन किया गया। कानून के इस तरह के व्यापक उल्लंघन को देखते हुए, अदालत ने टिप्पणी की कि संबंधित पुलिस अधिकारी आईपीसी की धारा 166 के तहत मुकदमा झेलने के लिए उत्तरदायी हैं।

    बेंच ने आगे कहा,

    "हमारे विचार में केवल अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू करना पर्याप्त नहीं है। पूरे पुलिस बल को बंदियों / अभियुक्तों के संवैधानिक और कानूनी अधिकारों और मानव अधिकारों के दृष्टिकोण से भी संवेदनशील होने की आवश्यकता है।"

    बिना एफआईआर या सीजर मेमो के वाहन को रोकना, वाहनों को रोकने की शक्ति और प्रक्रिया कोर्ट ने कहा कि जिस तरह से पुलिस अधिकारियों ने दूध के टैंकर/वाहन को पकड़ा, वह कानून द्वारा स्थापित जब्ती की प्रक्रिया का पूरी तरह से उल्लंघन है।

    यह नोट किया गया कि संबंधित अधिकारियों ने सीआरपीसी की धारा 102 (किसी भी अपराध के होने के संदेह पर जब्त करने की शक्ति); मोटर वाहन अधिनियम की धारा 207 (अधिनियम के उल्लंघन में वाहन को जब्त करने की शक्ति); और सीआरपीसी की धारा 457 के तहत वर्णित जब्ती की प्रक्रिया, संबंधित अनिवार्य आदेश पर कोई ध्यान नहीं दिया।

    हालांकि, न्यायालय ने कोई भी निर्णय लेने से परहेज किया और याचिकाकर्ता को प्राइवेट कानून के तहत उपयुक्त मंच के समक्ष उपाय तलाशने की स्वतंत्रता दी।

    मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 और 226 के तहत मुआवजे का अधिकार

    चूंकि अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि पुलिस अधिकारियों ने बंदी के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया है, इसलिए यह माना गया कि तत्काल मामला राज्य पर लगाए जाने वाले भारी मुआवजे के लिए उपयुक्त है।

    इसने बिहार सरकार को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत बंदी के मौलिक अधिकार के उल्लंघन के लिए, छह सप्ताह की अवधि के भीतर, उसे मुआवजे के रूप में पांच लाख रुपये की राशि का भुगतान करने का निर्देश दिया।

    न्यायालय ने यह स्पष्ट करने के लिए कई उदाहरणों का उल्लेख किया कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत अपरिवर्तनीय अधिकार के स्थापित उल्लंघन से हुई व्यापक क्षति के लिए अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 के तहत दायर रिट याचिकाओं पर आर्थिक मुआवजे की राहत मंजूरी की जा सकती है।

    न्यायालय ने कहा,

    "सार्वजनिक कानून का उद्देश्य न केवल सार्वजनिक शक्ति को सभ्य बनाना है, बल्कि नागरिकों को यह आश्वस्त करना भी है कि वे एक कानूनी प्रणाली के तहत रहते हैं जिसका उद्देश्य उनके हितों की रक्षा करना और उनके अधिकारों की रक्षा करना है। इसलिए, जब न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 32 या 226 के तहत कार्यवाही में मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन या संरक्षण की मांग वाली याचिका में मुआवजे की राशि मंजूर करके राहत का रूप देता है, तो यह सार्वजनिक कानून के तहत गलत काम करने वाले को दंडित करके और सार्वजनिक गलती के लिए सरकार का दायित्व तय करके करता है, जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों के संरक्षण के अपने सार्वजनिक दायित्व के निर्वहन में असफल रहे हैं।"

    कोर्ट ने कहा कि इस मुआवजे का उद्देश्य उस प्रणाली में नागरिक के विश्वास को बहाल करना है जहां उनके अधिकार और हित संरक्षित हैं।

    कोर्ट ने आगे कहा,

    "ऐसे मामलों में मुआवजे का भुगतान समझ में नहीं आता है, क्योंकि इसे आम तौर पर निजी कानून के तहत नुकसान के लिए एक सिविल कार्रवाई समझा जाता है, लेकिन नागरिक के मौलिक अधिकारों की रक्षा न करने, सार्वजनिक कर्तव्य के उल्लंघन के कारण किए गए गलत के लिए सार्वजनिक कानून के तहत 'मौद्रिक संशोधन' करने के आदेश द्वारा राहत प्रदान करने के व्यापक अर्थों में। मुआवजा अपने सार्वजनिक कानूनी कर्तव्य के उल्लंघन के लिए गलत करने वाले के खिलाफ दिए गए 'दृष्टांत योग्य नुकसान' की तरह है। यह सक्षम क्षेत्राधिकार की अदालत में स्थापित एक मुकदमे के माध्यम से या / और दंडात्मक कानून के तहत अपराधी पर मुकदमा चलाने के लिए निजी कानून के तहत यातना के आधार पर मुआवजे का दावा करने के लिए पीड़ित पक्ष के समक्ष उपलब्ध अधिकारों से स्वतंत्र है।"

    अदालत ने स्पष्ट किया है कि सार्वजनिक कानून के तहत मुआवज़े की मांग करने का बंदी का अधिकार निजी कानून के उपाय के रूप में अन्य हर्जाने का दावा करने के उसके अधिकार से स्वतंत्र है।

    दिशानिर्देश:

    • बिहार सरकार, हिरासत में लिए गए श्री जितेंद्र कुमार @ संजय कुमार को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उनके मौलिक अधिकार के उल्लंघन के लिए 5,00,000/- रुपये (पांच लाख रुपये) की राशि का भुगतान करेगा। यह राशि आज से छह सप्ताह की अवधि के भीतर निश्चित रूप से भुगतान की जाएगी।

    • यह मुआवज़ा निजी कानून में नुकसान के किसी भी उपाय पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना और स्वतंत्र होगा, जिसका लाभ याचिकाकर्ता और/या बंदी लेना चाहते हैं।

    • दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ उचित अनुशासनात्मक कार्रवाई/अनुशासनात्मक कार्यवाही पहले से ही शुरू हो चुकी है, जिसकी कार्यवाही में तेजी लायी जाए और आज से तीन महीने की अवधि के भीतर निश्चित रूप से निष्कर्ष निकाला जाए। कार्रवाई रिपोर्ट 30 अप्रैल, 2021 को या उससे पहले रजिस्ट्री में दाखिल की जाए।

    • बिहार सरकार के पुलिस महानिदेशक दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही शुरू करना सुनिश्चित करेंगे और आज से चार सप्ताह की अवधि के भीतर अपने व्यक्तिगत हलफनामे पर अनुपालन रिपोर्ट दाखिल करेंगे।

    • बिहार सरकार के पुलिस महानिदेशक यह सुनिश्चित करेंगे कि बिहार राज्य में लागू बिहार पुलिस नियमावली, 1978 सहित अन्य कानूनों के तहत दोषी अधिकारियों के खिलाफ तुरंत कार्रवाई शुरू की जाए।

    • बिहार सरकार के पुलिस महानिदेशक यह सुनिश्चित करेंगे कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा पर विशेष ध्यान देने के साथ पूरे पुलिस बल, विशेष रूप से बिहार में सिपाही को संवेदनशील बनाने के लिए उचित कार्रवाई की जाए।

    • बिहार सरकार के पुलिस महानिदेशक राज्य की आम जनता, विशेष रूप से निरक्षर और हाशिए के लोगों के लिए आसानी से सुलभ एक शिकायत निवारण तंत्र के उचित और प्रभावी क्रियान्वयन सुनिश्चित करेंगे।

    • उपयुक्त प्राधिकारी इस मामले के आंख खोलने वाले तथ्यों को बिहार राज्य में प्रक्रिया के दुरुपयोग के उदाहरणों को पुलिस थानों पर बेहतर निगरानी सुनिश्चित करने के अवसर के रूप में लेंगे, ताकि संवैधानिक उल्लंघन के ऐसे मामलों की पुनरावृत्ति को रोका जा सके।

    • बिहार सरकार के पुलिस महानिदेशक पुलिस अधिकारियों/कर्मचारियों के खिलाफ दर्ज शिकायतों की संख्या और प्रकृति के संबंध में एक रिपोर्ट तैयार करवाएंगे और इस तरह के दुराचार की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए उपचारात्मक उपाय करेंगे।

    • बिहार सरकार ट्रक ड्राइवरों के विचारों का प्रतिनिधित्व करने और उन्हें शिकायत निवारण तंत्र प्रदान करने के लिए एक निकाय बनाने पर विचार करेगी।

    • बिहार सरकार ट्रक चालकों की दशा सुधारने के लिए प्रयास करेगी। उन्हें चालकों के स्वास्थ्य की देखभाल, भोजन तक पहुंच; काम करने के घंटे; मजदूरी के भुगतान; साक्षरता और प्रौद्योगिकी तक पहुंच के मुद्दों पर विचार करना चाहिए।

    • बिहार के निवासियों के बीच आम तौर पर पूरे पुलिस बल की सद्भावना के निर्माण में सिविल सोसाइटी को शामिल करें।

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