''गलत अभियोजन के पीड़ितों को मुआवजा दिया जाए'': सुप्रीम कोर्ट के समक्ष याचिका, केंद्र को निर्देश देने की मांग
LiveLaw News Network
11 March 2021 8:45 PM IST
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक याचिका दायर कर मांग की गई है कि केंद्र सरकार को निर्देश दिया जाए कि वह गलत(अनधिकृत) अभियोजन के पीड़ितों को मुआवजा देने के लिए दिशानिर्देश तय करे और अदालत की गलती (मिसकैरेज ऑफ जस्टिस) पर विधि आयोग की रिपोर्ट संख्या -277 की सिफारिशों को लागू करे।
अधिवक्ता और भाजपा नेता अश्विनी कुमार उपाध्याय की तरफ से दायर इस याचिका में राज्यों को भी निर्देश देने की मांग की गई है ताकि वह गलत अभियोजन के पीड़ितों को मुआवजा देने के लिए केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए दिशा-निर्देश को लागू कर सके और अदालत की गलती पर विधि आयोग की रिपोर्ट में की गई सिफारिशों की मूलभावना के अनुसार निर्दोष लोगों को मुआवजा दे सके। उन्होंने न्यायालय से आग्रह किया है कि वह गलत मुकदमों के पीड़ितों को मुआवजा देने के मामले में दिशानिर्देश तय करने के लिए अपनी पूर्ण संवैधानिक शक्ति का उपयोग करें और केंद्र व राज्यों को निर्देश दें कि जब तक कि मिसकैरेज ऑफ जस्टिस पर लॉ कमीशन रिपोर्ट -277 की सिफारिशों को पूरी तरह से लागू नहीं किया जाता है,तब तक कोर्ट द्वारा तय किए गए दिशा-निर्देश को लागू किया जाए।
याचिकाकर्ता के अनुसार, वर्तमान याचिका की कार्रवाई का कारण 28 जनवरी 2021 को इलाहाबाद हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच द्वारा पारित एक आदेश है,जिसमें बेंच ने श्री विष्णु तिवारी को निर्दोष घोषित किया था,जबकि विष्णु को वर्ष 2000 में एससी/एसटी अधिनियम और बलात्कार के मामले में गिरफ्तार किया गया था। विष्णु द्वारा जेल में बीस साल बिताने के बाद बेंच ने उसे निर्दोष मानते हुए कहा था कि प्राथमिकी दर्ज करवाने का मुख्य मकसद भूमि विवाद था।
याचिका में कहा गया है कि गलत दुर्भावनापूर्ण मुकदमों और बेगुनाह होते हुए भी उत्पीड़न के शिकार लोगों को अनिवार्य मुआवजा प्रदान करने के लिए प्रभावी वैधानिक या कानूनी योजना का अभाव संविधान के आर्टिकल 14 और 21 के तहत मूलभूत अधिकारों की गारंटी का उल्लंघन करता है।
यह भी कहा गया है कि,''झूठों मामलों के चलते पुलिस और अभियोजन पक्ष के कदाचार का शिकार हुए निर्दोष लोग कई बार आत्महत्या भी कर लेते हैं क्योंकि वह उम्मीद छोड़ देते हैं और गैर-प्रभावी मशीनरी की वजह से मामलों की सुनवाई में होने वाली बरसों की देरी उनके परिजनों के जीवन को भी नष्ट कर देती है। वहीं दुर्भावना की अनुपस्थिति और अच्छे विश्वास में की गई गलती की रक्षा के तहत अधिकारियों के दुर्व्यवहार और गलत शिकायतकर्ताओं के खिलाफ न्यायालयों द्वारा एक नियमित तरीके से दंडात्मक कार्रवाई करने से इनकार करना या अनिच्छा दिखाना, मिसकैरेज ऑफ जस्टिस का कारण बनता है।''
याचिका में ब्लैकस्टोन के सिद्धांत का हवाला भी दिया गया है जिसमें कहा गया है कि ''एक निर्दोष पीड़ित के परेशान होने से बेहतर दस दोषी व्यक्ति का बच जाना है''। उन्होंने मौलाद अहमद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए आदेश का भी हवाला दिया है, जिसमें कहा गया था कि ''यदि कोई पुलिस अधिकारी रिकॉर्ड जैसे पुलिस डायरी आदि में हेरफेर करता है, तो यह ईमानदार जांच का अंत होगा; और इस तरह के अपराधों को आईपीसी की धारा 218 के तहत निवारक दंड प्राप्त होगा।''
याचिकाकर्ता के अनुसार मौजूदा कानूनी उपाय जटिल, मनमानी, प्रासंगिक और अनिश्चित है और इसलिए किसी भी प्रभावी वैधानिक और कानूनी तंत्र की अनुपस्थिति में, पुलिस और अभियोजन आचरण के कारण गलत मुकदमों के शिकार लोगों को मुआवजा देने के लिए विशिष्ट दिशानिर्देशों तय करने की सख्त आवश्यकता है।
राज्य अपने कर्मचारियों के अत्याचारपूर्ण कार्यों के लिए जिम्मेदार है और उसे अपने अधिकारियों द्वारा नागरिकों को पहुचांए नुकसान की भरपाई पर्याप्त मौद्रिक और गैर मौद्रिक क्षतिपूर्ति द्वारा करनी चाहिए।
याचिका में कहा गया है कि,''संप्रभु प्रतिरक्षा की रक्षा संवैधानिक उपाय के खिलाफ उपलब्ध नहीं है। इसलिए, उपरोक्त सिद्धांतों को सभी न्यायालयों द्वारा एक अभ्यास के रूप में क्षतिपूर्ति देने के लिए नियमित रूप से ध्यान में रखा जाना चाहिए, जो कि अच्छे विश्वास में की गई गलती की रक्षा के तहत शायद ही कभी किया जाता है और बड़े पैमाने पर मिसकैरेज ऑफ जस्टिस का कारण बनता है।''
दलील में कहा गया है कि केंद्र प्रत्येक नागरिक के जीवन, स्वतंत्रता और सम्मान के अधिकार की रक्षा और सुरक्षा के अपने दायित्व से दूर नहीं हो सकता है। इसलिए केंद्र को आईपीसी और सीआरपीसी में उचित संशोधनों के जरिए मिसकैरेज ऑफ जस्टिस के मामले को संबोधित करते हुए गलत तरीके से चलाए गए मुकदमों के शिकार लोगों के संबंध में आर्टिकल 21 के तहत गारंटीकृत नागरिक अधिकारों को संबोधित करने और उनकी सुरक्षा के लिए उपयुक्त वैधानिक और कानूनी तंत्र विकसित करना चाहिए।
इसके अलावा, याचिकाकर्ता के अनुसार जब तक संशोधन नहीं किए जाते हैं, तब तक एक विशिष्ट दिशानिर्देश राज्य व इसकी एजेंसियों के लिए जारी करना आज की जरूरत है ताकि पुलिस और अभियोजन के उस कदाचार को रोका जा सके,जो उन निर्दोष लोगों के जीवन को बुरी तरह से नष्ट कर रहा है, जिन्हें गलत तरीके से फंसाया जाता है और कई सालों बाद यह कहते हुए बरी कर दिया जाता है कि ''अभियोजन पक्ष संदेह के परे मामले को साबित नहीं कर पाया'' और राज्य के तिरस्कारपूर्ण रवैये के कारण उनको कभी भी न्याय नहीं मिल पाता है,जो 40 मिलियन से अधिक मामलों की पेंडेंसी का एक कारक है।
याचिका में बबलू बनाम राज्य सरकार ,दिल्ली के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा की गई टिप्पणी का भी हवाला दिया गया है, जिसमें जुर्माना लगाने और डिफॉल्ट सजा देने के मुद्दों पर विचार किया जा रहा था। इस मामले में कोर्ट ने निर्दोष व्यक्तियों को गलत तरीके से फंसाने व लंबे समय तक जेल में रहने के बाद उनको बरी कर दिए जाने और गलत मुकदमों के शिकार लोगों को राहत देने के लिए एक विधायी ढांचे की कमी पर अपनी चिंता जाहिर की थी।