भीमा कोरेगांव हिंसा :मुख्य न्यायाधीश के बाद अब जस्टिस गवई ने भी गौतम नवलखा की याचिका पर सुनवाई से खुद को अलग किया

LiveLaw News Network

1 Oct 2019 7:49 AM GMT

  • भीमा कोरेगांव हिंसा :मुख्य न्यायाधीश के बाद अब जस्टिस गवई ने भी गौतम नवलखा की याचिका पर सुनवाई से खुद को अलग किया

    भीमा कोरेगांव हिंसा मामले के आरोपी एक्टिविस्ट गौतम नवलखा की उस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बी आर गवई ने सुनवाई से खुद को अलग कर लिया जिसमें बॉम्बे उच्च न्यायालय के 13 सितंबर के फैसले को चुनौती दी गई थी। इससे पहले सोमवार को भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने भी सुनवाई से खुद को अलग कर लिया था।

    मंगलवार को जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस आर सुभाष रेड्डी और जस्टिस बी आर गवई की पीठ के सामने ये मामला आया तो जस्टिस गवई ने कहा कि वो सुनवाई से अलग हो रहे हैं। इसके बाद मामले को फिर से CJI के पास भेजा गया है ताकि नई पीठ का गठन हो सके।

    हाईकोर्ट ने FIR को रद्द करने से कर दिया था इनकार

    दरअसल हाईकोर्ट ने नवलखा के खिलाफ 1 जनवरी 2018 को पुणे पुलिस द्वारा दर्ज FIR को रद्द करने से इनकार कर दिया था। गौरतलब है कि बॉम्बे हाईकोर्ट में न्यायमूर्ति रंजीत मोरे और न्यायमूर्ति भारती डांगरे की पीठ ने अतिरिक्त लोक अभियोजक अरुणा पई द्वारा सीलबंद लिफाफे में प्रस्तुत दस्तावेज का हवाला देते हुए कहा था कि 65 वर्षीय एक्टिविस्ट के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला बनता है।

    पुलिस ने दावा किया कि उनके पास माओवादी साजिश में नवलखा की 'गहरी संलिप्तता' है। अदालत ने कहा, अपराध भीमा-कोरेगांव हिंसा तक सीमित नहीं है इसमें कई पहलू हैं । इसलिए हमें जांच की जरूरत लगती है।

    यह था मामला

    दरअसल एल्गार परिषद द्वारा 31 दिसंबर 2017 को पुणे जिले के भीमा-कोरेगांव में कार्यक्रम के एक दिन बाद कथित रूप से हिंसा भड़क गई थी। पुलिस का आरोप है कि मामले में नवलखा और अन्य आरोपियों का माओवादियों से लिंक था और वे सरकार को उखाड़ फेंकने की दिशा में काम कर रहे थे।

    अदालत ने प्राधिकरण की दलीलों से सहमति जताई और याचिका खारिज कर दी। जहां तक प्राधिकरण द्वारा मुआवजा न देने के संबंध में आदेश देने से पहले, याचिकाकर्ता को उसका पक्ष रखने का मौका न देने का मामला था, उसके बारे में अदालत ने कहा

    ''हालांकि,मामले के अजीबोगरीब तथ्य की स्थिति में, प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत लागू नहीं होते हैं। यह कानून में अच्छी तरह से तय है कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत एक ऐसे मामले पर लागू नहीं होते हैं जहाँ स्वीकार किए गए तथ्यों पर केवल एक निष्कर्ष संभव है।''

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