यूएई को पारस्परिक देश घोषित किए जाने का क्या मतलब है? सेक्शन 44A सीपीसी का विश्लेषण
LiveLaw News Network
21 Jan 2020 6:41 PM IST
आदित्य जैन, प्रणव शर्मा
सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 की धारा 44A पारस्परिकता के सिद्धांत अर्थात भारत में किसी विदेशी देश द्वारा पारित आदेश का निष्पादन करना और करने की विधि, का संक्षिप्तिकरण करती है।
उक्त प्रावधान निम्नानुसार है:
44A-पारस्परिक क्षेत्र में कोर्ट द्वारा पारित निर्णयों का निष्पादन-
(1) जहां किसी भी पारस्परिक क्षेत्र के उच्चतर न्यायालयों के आदेश की प्रमाणित प्रति जिला न्यायालय में दाखिल की गई हो, आदेश को (भारत) में वैसे ही निष्पादित किया जा सकता है, जैसे कि यह जिला न्यायालय द्वारा पारित किया गया हो।
(2) आदेश की प्रमाणित प्रति के साथ उच्चतर न्यायालय से प्राप्त एक प्रमाण पत्र दाखिल किया जाएगा, जिस पर उस सीमा का उल्लेख होगा, जिस सीमा तक, यदि कोई हो, आदेश को संतुष्ट या समायोजित किया जाएगा और इस प्रकार का प्रमाण पत्र, इस सेक्शन के तहत प्रोसिडिंग्स के उद्देश्य से, संतुष्टि या समायोजन की सीमा का निर्णायक प्रमाण होंगी।
(3) सेक्शन 47 के प्रावधान, इस सेक्शन के तहत आदेश निष्पादित करने वाले जिला न्यायालय की कार्यवाही पर लागू होने वाले आदेश की प्रमाणित प्रति के दाखिल होने से हैं, और जिला न्यायालय ऐसे किसी भी आदेश के निष्पादन से इनकार कर देगा, यदि वह न्यायायल की संतुष्टि के लिए दिखाया गया हो कि धारा 13 के खंड (ए) से (एफ) में निर्दिष्ट किसी भी अपवाद के अंतर्गत आता हो।
स्पष्टीकरण 1 - "पारस्परिक क्षेत्र" का अर्थ है भारत के बाहर का कोई देश या क्षेत्र है, जिसे केंद्र सरकार आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, इस सेक्शन के प्रयोजनों के लिए पारस्परिक क्षेत्र घोषित कर सकती है; और "उच्चतर न्यायालय", किसी भी संदर्भ में; ऐसे किसी भी क्षेत्र को, से तात्पर्य ऐसे न्यायालयों का से है, जिसे उक्त अधिसूचना में निर्दिष्ट किया जा सकता है।
स्पष्टीकरण 2- एक उच्चतर न्यायालय के संदर्भ में "आदेश" का अर्थ है, ऐसी अदालत का कोई आदेश या निर्णय, जिसके तहत धनराशि का भुगतान देय हो, हालांकि वह करों के संबंध में या इसी प्रकृति के अन्य शुल्कों के संबंध में या जुर्माना या अन्य दंड के संबंध में न हो, हालांकि किसी भी मामले में मध्यस्थता निर्णय शामिल नहीं हो सकता है, भले ही इस तरह का निर्णय आदेश के रूप में लागू हो।)
एक विदेशी निर्णय या आदेश निर्णायक होनी चाहिए। एक विदेशी निर्णय या आदेश की निर्णायकता के परीक्षण का आधार सीपीसी की धारा 13 के तहत निर्धारित किया गया है, जिसमें कहा गया है कि एक विदेशी निर्णय तब तक निर्णायक होगा जब तक कि:
- यह सक्षम न्यायालय द्वारा स्पष्ट नहीं किया गया हो;
-यह मामले के गुणवत्ता पर नहीं दिया गया हो;
-कार्यवाही के मद्देनजर प्रतीत होता हो कि वह अंतर्राष्ट्रीय कानून की दृष्टि से गलत न हो, उन मामलों में, जिनमें भारत के कानून लागू होते हों, उनमें भारत के कानून को मान्यता देने से इनकार किया गया हो।
-जिस कार्यवाही में निर्णय प्राप्त किया गया था, वह प्राकृतिक न्याय के विपरीत है;
-यह धोखाधड़ी द्वारा प्राप्त किया गया है;
-यह भारत में किसी भी कानून के उल्लंघन पर स्थापित दावे का समर्थन करता है।
उक्त प्रावधानों को सरसरी नजरिए से देखने से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि उक्त संहिता का एकमात्र उद्देश्य यह था कि पारस्परिकता के उस सिद्धांत को, जिसे 1943 के पारस्परिकता कानून में मान्यता दी गई है को सुनिश्चित हो और यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन ऑन रिकग्निशन एंड इनफोर्समेंट ऑफ फॉरेन एर्बिट्रेरल अवार्ड्स 1958 पर ध्यान दिया जाए।
इस सिद्धांत का महत्व अंतरराष्ट्रीय कानूनी क्षेत्र में अधिक स्पष्ट हो जाता है, जहां संप्रभु राज्यों के बीच सहयोग अनिवार्य रूप से आवश्यक हो।
आपके अधिकार क्षेत्र में निर्णयों की मान्यता और प्रवर्तन से संबंधित कौन से अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन और द्विपक्षीय संधियां लागू होती हैं?
हालांकि भारत नागरिक और वाणिज्यिक मामलों में कन्वेंशन ऑन द रिकोग्निशन एंड एन्फोर्समेंट ऑफ फॉरेन जजमेंट की पार्टी नहीं है, इसने विभिन्न देशों के साथ द्विपक्षीय संधियां की हैं, जिनका संबंध विदेशी निर्णयों और आदेशों के प्रवर्तन के संबंध में सहयोग और पारस्परिकता से है।
न्यायशास्त्र का विकास कैसे हुआ है?
चेट्टियार बनाम पिल्ले (एआईआर 1914 मैड 556) में अपने ऐतिहासिक फैसले में, मद्रास उच्च न्यायालय ने उन परिस्थितियों को निर्धारित किया है जिनके तहत योग्यता निर्धारित की जानी है। संक्षेप में, सक्षमता इस बात पर आधारित होगी कि क्या प्रतिवादी:
- देश का नागरिक है, जिसमें निर्णय पारित किया गया था;
- उस देश का निवासी है, जिसमें कार्रवाई शुरू की गई थी;
- एक ही मंच के मुकदमा दायर मामले में शामिल हो
- स्वेच्छा से प्रकट हुआ हो , और
- विदेशी अदालत के अधिकार क्षेत्र में खुद को प्रस्तुत करने का अनुबंध किया है।
इसके अलावा, हाल ही में बॉम्बे हाईकोर्ट ने मरीन जियोटेक्निक एलएलसी बनाम कोस्टल मरीन कंस्ट्रक्शन एंड इंजीनियरिंग लिमिटेड के मामले में बताया कि भारतीय कानून के तहत विदेशी आदेशों को दो व्यापक श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है, पहली पारस्परिक क्षेत्र के आदेश और दूसरी गैर पारस्परिक क्षेत्र के आदेश। ऐसे क्षेत्रों के आदेश, जिन्हें केंद्र सरकार ने सेक्शन 44 ए सीपीसी के तहत 'पारस्परिक' के रूप में अधिसूचित किया गया है, ऐसे देशों के आदेश को पारस्परिक की श्रेणी में रखा जाता है, बाकी सभी आदेशों को गैर पारस्पारिक की श्रेणी में रखा जाता है।
अदालत ने आगे स्पष्ट किया कि यदि आदेश एक मान्यताप्राप्त क्षेत्र व मान्यता प्राप्त न्यायालय का है, तो वह उसे सेक्शन 44 ए और ऑर्डर XXI और सीपीसी के रूल 22 की प्रक्रियाओं के तहत सीधे अमल में लाया जाएगा।
यूएई को एक पारस्परिक देश के रूप में अधिसूचित करने के निहितार्थ?
17 जनवरी, 2020 को विधि और न्याय मंत्रालय ने यूएई पारस्परिक देश घोषित किया। इसका तात्पर्य यह है कि अब संयुक्त अरब अमीरात के उच्चतर न्यायालयों के आदेशों को अब भारतीय न्यायालयों द्वारा लागू किया जा सकता है, हालांकि ऐसे आदेश संहिता की धारा 13 के तहत निर्धारित शर्तों के अधीन होंगे।
यूएई को पारस्परिक देश घोषित करने के बाद सिविल मामले दोषियों और लोन डिफाल्टरों पर प्रभाव पड़ेगा। विशेषकार ऐसे अपराधी जोयूएई की अदालतों में अभियोजन से बचने के लिए भारत भाग आते हैं। अब यूएई के "उच्चतर न्यायालयों" के आदेशों और निर्णयों को कानून की उचित प्रक्रिया का पालन करके भारत की जिला अदालतों के माध्यम से निष्पादित किया जा सकता है।
भारतीय वकीलों के लिए इसके क्या मायने हैं?
भारत के वकील अब यूएई के वकीलों का सहयोग कर सकते हैं, और उन मामलों को उठा सकते हैं, जिनकी भारत में निष्पादन की आवश्यकता है। इसके अलावा, इस तरह के "विदेशी आदशों और यूएई के न्यायालय के निर्णयों को निष्पादित करना" वकालत का नया आला क्षेत्र बन सकता है, और युवा वकीलों के लिए आय के विभिन्न रास्ते खोल सकता है। हालांकि, इसके लिए, संयुक्त अरब अमीरात के नागरिक कानून की समझ प्राप्त करना आवश्यक है।
आदित्य जैन राजस्थान हाईकोर्ट में एडवोकेट हैं। उनसे advocateadityajain@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। प्रणव शर्मा राजीव गांधी नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ लॉ, पटियाला में लॉ के प्रथम वर्ष के छात्र हैं।
(इस लेख में व्यक्त की गई राय लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं। लेख में प्रकाशित तथ्य और राय LiveLaw के विचारों को प्रतिबिंबित नहीं करते हैं और उन्हें लेकर LiveLaw की कोई जिम्मेदारी या दायित्व नहीं है।)