"प्रणाली का दुरुपयोग": सुप्रीम कोर्ट ने पत्नी की हत्या के आरोपी पुलिस कांस्टेबल पर, ट्रायल को 14 साल से अधिक समय तक 'घसीटने' के कारण एक लाख का जुर्माना लगाया

LiveLaw News Network

10 Aug 2021 7:21 AM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली

    सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को पत्नी की हत्या के आरोपी पुलिस कांस्टेबल पर कानूनी व्यवस्था का दुरुपयोग करने और अपने मामले की सुनवाई को 14 साल तक खींचने के लिए एक लाख का जुर्माना लगाया।

    सीजेआई ने कहा, "आपने 14 साल तक अपने मामले को घसीटा है, एक हत्या का मामला, जहां आप पर अपनी पत्नी की हत्या का आरोप था और दो बार सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर आया। यह बेरहम मामला है! यह दुरुपयोग है, इस प्रणाली का दुरुपयोग है।"

    चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एनवी रमना, जस्टिस विनीत सरन और जस्टिस सूर्यकांत उत्तराखंड हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर विशेष अवकाश याचिका पर सुनवाई कर रही थी। उत्तराखंड हाईकोर्ट ने पुलिस कांस्टेबल द्वारा अपने बयान फिर से रिकॉर्डिंग के लिए दायर आवदेन पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया था, और ट्रायल कोर्ट के 10 फरवरी, 2020 के आदेश को भी रद्द करने से इनकार कर दिया ‌था।

    हाईकोर्ट ने अपने आक्षेपित आदेश में यह भी नोट किया था कि 2013 में उसका बयान दर्ज किए जाने के बाद भी, CrPC की धारा 313 के तहत खुद की जांच दोबारा कराने के लिए दायर याचिका आरोपी की ओर से देरी की रणनीति है।

    सुनवाई के दरमियान जब बेंच को बताया गया कि याचिकाकर्ता आरोपी पुलिस कांस्टेबल है, तो CJI रमना ने टिप्पणी की कि "आपको सेवा से तुरंत हटा दिया जाना चाहिए और एक मिनट के इंतजार के बिना जेल भेज दिया जाना चाहिए।"

    बेंच ने कहा कि 2021 में, आरोपी फिर से धारा 313 के तहत बयान दर्ज करना चाहता है, जो 2013 में बहुत पहले दर्ज किया गया था।

    वकील के इस बयान के जवाब में कि याचिकाकर्ता को एक नया दस्तावेज मिला है, जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि "5 साल बाद आपको कुछ और याद रहेगा, तो फिर इसे रिकॉर्ड किया जाएगा?"

    वर्तमान याचिकाकर्ता पर दहेज निषेध अधिनियम की धारा 3 और 4 के साथ पठित भारतीय दंड संहिता की धारा 302, 304 बी, 201, 234 के तहत अपराध का आरोप लगाया गया है ।

    आक्षेपित आदेश पारित करते हुए हाईकोर्ट ने नोट किया था कि आवेदक के मामले में सत्र की सुनवाई वर्ष 2008 से लंबित है। आरोपी 2013 में अपने बयान दर्ज होने के बाद भी फिर से धारा 313 CrPC के तहत खुद की जांच कराना चाहता था, जो केवल देरी करने की रणनीति के अलावा और कुछ नहीं थी।

    हाईकोर्ट ने कहा था, "कानून उन लोगों की मदद नहीं करेगा जो सेशन ट्रायल की कार्यवाही में देरी कराना चाहते हैं। विलंब की यह रणनी‌ति की अनुमति नहीं है। सेशन ट्रायल के निस्तरण में अनुचित देरी अनावश्यक है। कोई भी बचाव साक्ष्य की आड़ में एक याचिका दायर नहीं कर सकता है...।"

    इसलिए हाईकोर्ट ने माना था कि निचली अदालत ने आवेदक के आवेदन को ठीक ही खारिज किया था। हाईकोर्ट के अनुसार, निचली अदालत ठीक ही इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि इस तरह के आवेदन को दायर करने का उद्देश्य केवल सेशन ट्रायल के फैसले को लंबा करना है, जो कानून में स्वीकार्य नहीं है।

    आरोपी ने पहले भी CrPC की धारा 311 के तहत ट्रायल कोर्ट के समक्ष एक आवेदन दिया था, जिसमें कहा गया था कि कुछ दस्तावेजों को साबित करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण बचाव गवाहों की जांच की जानी चाहिए, जिसे ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दिया था। उस आदेश से व्यथित होकर, आवेदक ने हाईकोर्ट के समक्ष एक और आवेदन दायर किया जिसे 2017 में फिर से खारिज कर दिया गया।

    आरोपी ने तब सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, जिसने 08.11.2019 आदेश में इसे खारिज करने का भी फैसला किया था।

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