चुनावी बॉन्ड योजना की सुनवाई अब दो अप्रैल को, CJI ने मामले को दूसरी पीठ को भेजा
Live Law Hindi
29 March 2019 12:14 PM IST
चुनावी बॉन्ड को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई अब 2 अप्रैल को होगी। मंगलवार को चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा कि इस मुद्दे पर अब कोई दूसरी पीठ सुनवाई करेगी क्योंकि 27 मार्च से उनकी अध्यक्षता वाली संविधान पीठ सुनवाई के लिए बैठ रही है।
इससे पहले केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे में कहा है कि चुनावी बॉन्ड की योजना राजनीतिक दलों द्वारा प्राप्त धन और दान में पारदर्शिता को बढ़ावा देती है। ये हलफनामा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) व अन्य द्वारा दायर की गई याचिका के जवाब में दाखिल किया गया है।
2 जनवरी, 2018 को केंद्र ने चुनावी बॉन्ड के लिए योजना को अधिसूचित किया था जो कि एक भारतीय नागरिक या भारत में निगमित निकाय द्वारा खरीदे जा सकते हैं। ये बॉन्ड एक अधिकृत बैंक से ही खरीदे जा सकते हैं और राजनीतिक पार्टी को ही जारी किए जा सकते हैं। पार्टी 15 दिनों के भीतर बॉन्ड को भुना सकती है। दाता की पहचान केवल उसी बैंक को होगी जिसे गुमनाम रखा जाएगा।
केंद्र का कहना है कि "यह योजना वैध केवाईसी और ऑडिट ट्रेल के साथ बॉन्ड प्राप्त करने की एक पारदर्शी प्रणाली बनाने की परिकल्पना करती है। जो लोग इन बॉन्डों को खरीदते हैं, वे बैलेंस शीट में किए गए ऐसे दान के बारे में बताएंगे। चुनावी बॉन्ड योजना दानकर्ताओं को बैंकिंग मार्ग से दान करने के लिए प्रेरित करेगी। यह पारदर्शिता, जवाबदेही और चुनावी सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम सुनिश्चित करेगा।"
योजना के बारे में बताते हुए केंद्र का कहना है कि ये बॉन्ड केवल भारतीय स्टेट बैंक से खरीदे जा सकते हैं क्योंकि इसमें खरीदार केवाईसी मानदंडों का अनुपालन करता है। बॉन्ड जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर के महीनों के दौरान केवल 10 दिनों के लिए खरीद के लिए उपलब्ध होंगे। उन्हें 1,000 रुपये, 10,000 रुपये, 1 लाख रुपये, 10 लाख रुपये या 1 करोड़ रुपये के गुणकों में खरीदा जा सकता है। दाता का नाम बताया नहीं जाएगा।
यह बॉन्ड जारी होने की तारीख से लेकर अगले 15 दिनों के लिए वैध होगा जिसके भीतर उसे भुगतानकर्ता-राजनीतिक पार्टी द्वारा भुनाना होगा। बॉन्ड के अंकित मूल्य को आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 13 ए के तहत आयकर से छूट के उद्देश्य से योग्य राजनीतिक दल द्वारा प्राप्त स्वैच्छिक योगदान के माध्यम से आय के रूप में गिना जाएगा।
केंद्र ने आगे कहा है कि उक्त पार्टी को भारत निर्वाचन आयोग के समक्ष रिटर्न दाखिल करना होगा कि चुनावी बॉन्ड के माध्यम से उसको कितना पैसा प्राप्त हुआ है, जोकि जवाबदेही का एक प्रावधान है। तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली के एक लेख का हवाला देते हुए हलफनामे में कहा गया है कि नकद चंदा लेने वाले राजनीतिक दलों की पारंपरिक प्रणाली पारदर्शी नहीं थी और यह चुनावी बॉन्ड राजनीतिक धन तंत्र को "शुद्ध" कर देगा। हलफनामे में कहा गया है कि निजता को सुरक्षित रखने के लिए पहचान गोपनीय रखी गई है।
बॉन्ड के खरीदार की पहचान को गुप्त रखना भी गुप्त मतदान में उसके मतदान के अधिकार का विस्तार है। पिछले अनुभव से पता चला है कि अगर दाताओं की पहचान का खुलासा हो जाता है तो उन्हें यह योजना आकर्षक नहीं लगेगी और वो नकदी द्वारा दान करने के कम-वांछनीय विकल्प पर वापस चले जाएंगे।
केंद्र ने कहा है कि बॉन्ड खरीदार द्वारा दी गई जानकारी को अधिकृत बैंक द्वारा गोपनीय माना जाएगा और किसी के सामने प्रकट नहीं किया जाएगा। राज्य व व्यक्ति के हितों को संतुलित करने के लिए किसी भी कानून प्रवर्तन एजेंसी द्वारा आपराधिक मामले के पंजीकरण की मांग को छोड़कर, किसी भी अन्य उद्देश्य के लिए इसे गोपनीय ही रखा जाएगा।
इससे पहले 11 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दलों को चंदे के लिए जारी चुनावी बॉन्ड की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर केंद्र सरकार और चुनाव आयोग को अपना जवाब दाखिल करने को कहा था।
एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के वकील प्रशांत भूषण की दलीलें सुनने के बाद चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली 3 जजों की पीठ ने कहा कि वो इस मामले की सुनवाई 26 मार्च को करेंगे। इस मुद्दे पर दाखिल याचिकाओं में केंद्र सरकार द्वारा वित्त अधिनियम 2017, कंपनी अधिनियम, विदेशी अंशदान विनियम अधिनियम और आयकर अधिनियम के माध्यम से पेश संशोधनों को चुनौती दी गई है।
याचिकाकर्ता ने राजनीतिक दलों से नकद चंदे को स्वीकार करने पर रोक लगाने के दिशानिर्देश जारी करने की भी मांग की है। दरअसल वित्त अधिनियम, 2017 को एक मनी बिल के रूप में लागू किया गया था। इसके तहत चुनावी फंडिंग के उद्देश्य से किसी भी अनुसूचित बैंक द्वारा जारी किए जाने वाले चुनावी बॉन्ड की प्रणाली शुरू की गई है।
अधिनियम में राजनीतिक चंदे के लिए कंपनी के औसत 3 साल के शुद्ध लाभ की 7.5 प्रतिशत की पिछली सीमा को भी हटा दिया है। इसके परिणामस्वरूप कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को असीमित चंदा दिया जा सकता है।
यहां तर्क दिया गया है कि नए संशोधन राज्य सभा की मंजूरी को दरकिनार करने का एक कुत्सित प्रयास है जो कानून-निर्माण के संवैधानिक और लोकतांत्रिक ढांचे में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।इन संशोधनों का परिणाम यह है कि कॉरपोरेट राजनीतिक दलों को असीमित दान कर सकते हैं और उन्हें ऐसे चंदे का विवरण देने की भी आवश्यकता नहीं है।
इसके अलावा अब भारत के चुनाव आयोग को दिए जाने वाली राजनीतिक दलों की वार्षिक रिपोर्ट में चुनावी बॉन्ड के माध्यम से योगदान करने वालों के नाम और पते का उल्लेख करने की भी जरूरत नहीं है। यह राजनीतिक दलों के अवैध और विदेशी धन के माध्यम से लोकतंत्र में भ्रष्टाचार और पारदर्शिता पर बड़ा प्रभाव डालता है।
याचिकाकर्ताओं ने ये भी कहा है कि इस बात की आशंका भी है कि अगर यह संशोधन रद्द नहीं किए गए तो इन कॉरपोरेट घरानों और अत्यंत धनी लॉबी के चलते चुनावी प्रक्रिया और शासन व्यवस्था में गड़बड़ी हो सकती है। इस तरह की गतिविधियों को अगर अनुमति दी जाती है तो ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है कि देश के आम नागरिकों की कीमत पर इन कॉरपोरेट्स और लॉबी समूहों के पक्ष में कानून लाए जा सकते हैं।