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'दलील पेश करने का कौशल इस तरह विकसित करना चाहिए कि यह जज के नज़रिए से मेल खाए : वकीलों को वरिष्ठ एडवोकेट सीएस वैद्यनाथन की सलाह

क़ानून की प्रैक्टिस करने वालों को लेकर लाइव लॉ वेबिनार की शृंखला में वरिष्ठ एडवोकेट सीएस वैद्यनाथन ने "भारत में एडवोकेसी का भविष्य" विषय से संबंधित उन कुछ सर्वाधिक वांछनीय बातों पर प्रकाश डाला, जिन्हें वकीलों को प्रयोग में लाना चाहिए।
शुरू में वैद्यनाथन ने निजी स्वतंत्रता को लेकर भारतीय अदालतों में किसी तरह की आतुरता नहीं दिखाने पर चिंता जतायी। उन्होंने कहा कि बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका को पहले ज़रूरी माना जाता था और इसे शीघ्रता से निपटाया जाता था, लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है।
उन्होंने कहा,
"बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं पर सुनवाई होगी। अगर इसे आज दायर किया जाता है तो कल इसको सूचीबद्ध किया जाएगा। इस तरह के मामले में पहले प्रति-हलफ़नामे का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। इसकी फाइल को पेश करना ज़रूरी होता था और 24 से 48 के भीतर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका का निस्तारण ज़रूरी होता था। मैं समझता हूँ कि पिछले कुछ सालों में हमने इसे खो दिया है। निजी स्वतंत्रता के मामले को लेकर जो शीघ्रता दिखाई जाती थी वह अब दुर्भाग्य से समाप्त हो चुकी है।"
अपने संबोधन के दौरान उन्होंने मौखिक दलील को निरंतर केंद्र में रखने और लिखित बयान को संक्षिप्त रखने की ज़रूरत बतायी। उन्होंने कहा कि यह न एक वक़ील को अपने मामले को प्रभावी ढंग से पेश करने के लिए ज़रूरी है बल्कि इससे मामलों की भीड़ को समाप्त करने में भी मदद मिलेगी। अदालतों में अटके पड़े मामलों पर चिंता ज़ाहिर करते हुए वैद्यनाथन ने कहा कि इस समस्या ने न्याय व्यवस्था में लोगों के विश्वास को हिला दिया है और इसमें विश्वास बना रहे यह ज़िम्मेदारी वकीलों की है।
वक़ील के रूप में हमारी प्रासंगिकता तभी है जब इस संस्थान की विश्वसनीयता शीर्ष पर है और लोगों का इसमें विश्वास और उत्साह शीर्ष पर है। अगर हम न्याय के उपभोक्ताओं को न्याय नहीं दिला पाते हैं तो यह विश्वास हिल जाता है। इस समय हमारी अदालतों में 3.5-4.0 करोड़ मामले लंबित हैं।
उन्होंने कहा…"लोगों को क़ानून अपने हाथ में लेने के लिए उत्साहित नहीं करना चाहिए, उन्हें व्यवस्था से गुजरते हुए न्याय प्राप्त करना चाहिए। एक वक़ील के रूप में हमारी यह भूमिका है कि हम न केवल इस व्यवस्था में लोगों के विश्वास को बनाए रखें बल्कि इस व्यवस्था में उनके विश्वास को बढ़ाएँ भी।"
वैद्यनाथन ने कहा कि वैसे कई संशोधन आदि हुए हैं ताकि इस समस्या से निपटा जा सके पर कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ा है। "मुझे लगता है कि जज और वक़ील दोनों ही, जहां ज़रूरी है, बदलाव लाने को लेकर हिचकिचा रहे हैं", उन्होंने कहा।
इस उद्देश्य को प्राप्त करने और लोगों को बेहतर न्याय व्यवस्था उपलब्ध कराने की बात को संभव बनाने को लेकर वैद्यनाथन ने वकीलों में कौशल विकास को लेकर कुछ सुझाव दिए।
लिखित बयानों को संक्षिप्त रखने की अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वैद्यनाथन ने कहा कि याचिका कभी भी लंबी नहीं होनी चाहिए। यह सुनिश्चित करने के लिए लोगों को अपनी शिकायत खुद लिखनी चाहिए न कि उसको लिखाना चाहिए। उन्होंने कहा कि आज के समय में वक़ील और जज दोनों तकनीक का दुरुपयोग कर रहे हैं।
उन्होंने कहा,
"अगर आप (शिकायत) लिखा रहे हैं तो यह लंबी होगी और यही हो रहा है। आज जज और वक़ील दोनों ही तकनीक का दुरुपयोग करते हैं क्योंकि 'काटो चिपकाओ' का मतलब यह है कि आप कहीं से भी कुछ उठाकर उसे चस्पा कर दीजिए। मैंने मद्रास हाईकोर्ट के फ़ैसले देखे हैं जो कि हाथ से लिखा आधा या एक पेज का फ़ैसला होता था। जब आप लिखने बैठते हैं तो आपके विचार भी सुलझे होते हैं पर जब आप लिखाते हैं तो ये अव्यवस्थित हो जाते हैं। ड्राफ़्टिंग में सटीक होना महत्त्वपूर्ण बातों में एक है।"
इस संदर्भ में उन्होंने मामले का सारांश बनाने की महत्ता पर भी जोर दिया ताकि जजों का ध्यान खींचा जा सके। अगर आप अपनी बिंदुओं को फ़ोकस में नहीं रखते हैं तो आप अपनी शिकायतों की ओर जजों का ध्यान आकर्षित नहीं कर पाएँगे और अपने मुवक्किल के लिए न्याय पाने का आपका ध्येय पूरा नहीं होगा।
"मैं 13 सालों तक एओआर रहा और मेरा सिनोप्सिस अमूमन एक पेज या ज़्यादा से ज़्यादा डेढ़ पेज का होता था। अगर आप सुप्रीम कोर्ट में किसी मामले को एक पेज में नहीं पेश कर पाए तो जजों का ध्यान आप नहीं खींच पाएँगे। चाहे जो हो, आपको अपनी बातें एक से डेढ़ पेज में कह देनी चाहिए।"
…वक़ील के रूप में हमारा काम अपने मुवक्किलों को न्याय दिलाना है। इसके लिए आपको उस अन्याय की ओर जजों का ध्यान आकर्षित करना होगा जो आपके मुवक्किल के साथ हुआ है, एक ऐसा अन्याय जिसका उपचार नहीं है और यह कि उन्हें इस पर ग़ौर करना चाहिए। अगर आप एक पेज के सिनोप्सिस से यह काम कर पाते हैं, तो जज आपके विवरणों को बहुत ग़ौर से देखेंगे।"
वैद्यनाथन ने यह भी कहा कि जज भारी तनावों के बीच काम करते हैं और इसके बीच अपने मुवक्किल के लिए न्याय प्राप्त करने के लिए अपनी बात पर फ़ोकस करते हुए इसे पेश करना बेहद ज़रूरी होता है।
मौखिक दलील का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि वकीलों को ऐसा कौशल विकसित करना होगा कि वे अपनी बात को बहुत ही प्रभावी ढंग से रख सकें।
उन्होंने कहा कि समय का प्रबंधन बहुत ज़रूरी है। चेन्नई में अपने शुरुआती दिनों का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा, "उन दिनों जज मामलों को पढ़कर समझते नहीं थे जैसा कि इस समय सुप्रीम कोर्ट में होता है। 2-3 मिनटों में बहुत ही प्रभावी ढंग से दलील देनी होती थी। पूर्वार्ध में 70-80 मामलों को सुन लिया जाता था। अपील डेढ़-दो पेज से बड़े नहीं होते थे। क़ानून के बहुत ही संक्षिप्त और तेज सवाल इसमें होते थे। एक दिन में 25-30 अपीलों पर ग़ौर किया जाता था।
…यद्यपि जज फ़ाइलों को विस्तार से पढ़ते नहीं थे, पर वे बहुत शीघ्रता से बिंदुओं को उठाते थे। वकीलों का दलील पेश करने का कौशल इस तरह की स्थिति में बहुत ही अहम हो जाता है क्योंकि वे कुछ मिनटों में ही अपने मामलों को जजों के समक्ष पेश कर देते थे।"
बहुत ही प्रभावी ढंग से अपनी दलील पेश करने के लिए वरिष्ठ वक़ील सुनवाई के लिए बहुत ही सटीक ढंग से तैयारी पर ज़ोर डालते थे। उन्होंने कोर्ट आने से पहले जिस तरह की तैयारी की जानी चाहिए इस पर काफ़ी विस्तार से चर्चा की।
"अपनी दलील पेश करने से पहले चेम्बर में इस पर गहन विचार होता है। आप बिंदुओं पर चुनिंदा रूप से ग़ौर नहीं कर सकते और फिर आप उस स्थिति में पहुँचते हैं जहां जज आपको ज़्यादा समय देने को लेकर लचीला रुख रखते हैं। दलील देने से पहले, अपने विचारों को लिखिए और उनको संक्षिप्त और फ़ोकस्ड तरीक़े से नोट कीजिए।"
अपनी दलील की समझ के बारे में बोलना और यह जानना कि किस बिंदु पर जोर डालना है, इसकी चर्चा करते हुए वरिष्ठ वक़ील ने कहा, "आप उस बहस के बारे में जानते हैं जो सबसे ज़्यादा अपील करती है। हर बिंदुओं पर एक समान जोर देकर बोलने की ज़रूरत नहीं है। अगर मैं अपने दो मुख्य बिंदुओं के बारे में जज को आश्वस्त नहीं कर सकता तो इस मामले में मेरे सफल होने की संभावना बहुत कम होगी।"
उन्होंने यूके में मामलों के प्रबंधन को लेकर प्रयुक्त होने वाली तकनीक की चर्चा की और कहा कि इसी तरह अमेरिकी अदालत में भी पूर्व-निर्धारित समय दिए जाते हैं। उन्होंने बताया कि अमेरिकी और यूके में अपने वक़ील मित्रों की तुलना में भारतीय वक़ील को सुनवाई की तैयारी के लिए समय देना होता है, यह रिहर्सल की तरह होता है जिसमें आप अपनी दलील के समय का ध्यान रखते हैं और उन प्रश्नों के बारे में सोचते हैं जो जज पूछ सकते हैं और उनका जवाब तैयार रखना होता है।
"तरीक़े में बदलाव की ज़रूरत होती है, एक नए कौशल की ज़रूरत होती है ताकि इस तरह की तैयारी की जा सके। हर वक़ील को आवश्यक रूप से इस तरह के कौशल प्रशिक्षण से गुजारना चाहिए या खुद ही इस तरह का प्रशिक्षण लेना चाहिए।"
सिर्फ़ वक़ील ही नहीं, जजों को भी एक ज़्यादा सक्षम न्याय व्यवस्था के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए इस तरह का प्रशिक्षण देना चाहिए। "कुछ सीखी हुई बातों को भुलाने और कुछ नयी बातों को सीखने की ज़रूरत होती है। यह सिर्फ़ वकीलों को ही नहीं बल्कि जजों को भी करने की ज़रूरत है। समय समय पर जजों को प्रशिक्षण देने की ज़रूरत है विशेषकर इस समय ई-कोर्ट और ऑनलाइन सुनवाई की जो नयी बात हो रही है।"
अदालत के समय के बेहतर प्रबंधन को समझाने के लिए वैद्यनाथन ने अयोध्या भूमि विवाद को लेकर हुई सुनवाई का हवाला दिया।
"अयोध्या फ़ैसले के बारे में लोगों की राय अलग हो सकती है, लेकिन अदालतों के प्रबंधन की दृष्टि से समय को जिस तरह मैनेज किया गया, उसको देखते हुए हमें पूरा श्रेय देना होगा। पर्याप्त समय दिया गया पर समय की सीमा को नहीं बढ़ाया गया। सभी पांचों जज भी इस बात को लेकर काफ़ी इच्छुक थे कि समय का ध्यान रखा जाए। और यही कारण है कि हमने सुनवाई निर्धारित समय से दो दिन पहले ही पूरी कर ली। सभी वकीलों ने जो इस बारे में पूर्व तैयारी की उसकी वजह से हम समय की सीमा का पालन कर पाए।"
पेशे के बारे में कुछ और ज़रूरी बातों का ज़िक्र करते हुए वैद्यनाथन ने जज के नज़रिए को समझने और उनके समक्ष दलील देने से पहले उनकी पृष्ठभूमि को समझने के बारे में विस्तार से चर्चा की। "दलील पेश करने के कौशल को इस तरह चमकाने की ज़रूरत है कि वह जज के नज़रिए को पसंद आए", उन्होंने कहा। उन्होंने वकीलों से कहा कि भले ही उनके मामले की सुनवाई है या नहीं है, पर उन्हें अदालत में होनेवाली सुनवाई में मौजूद रहनी चाहिए।
"इससे आप विभिन्न मुद्दों पर जजों की प्रतिक्रिया को देख पाएँगे और उनके नज़रिए को समझ पाएंगे। इस तरह आप जज को समझने का कौशल विकसित कर लेते हैं। यह ज़रूरी है क्योंकि तब आपको यह पता होगा कि आपको किस बिंदु पर दलील के दौरान जोर देना है।
…अगर जज दयालु स्वभाव का है, तो इसके बावजूद कि क़ानूनी दृष्टि से आप कमजोर स्थिति में हैं, आप मामले को सुलझाने में जज से कुछ न कुछ राहत प्राप्त करने में सफल रहेंगे।"
जहां तक दूसरे कौशल की बात है, वकीलों को इस बारे में आश्वस्त नहीं होना चाहिए और उन्हें हर बात पर सवाल उठाना चाहिए, वैद्यनाथन ने कहा। उन्होंने वकीलों से कहा कि वे बैलेन्स शीट और लाभ और हानि के खाते को पढ़ने की योग्यता हासिल करें ताकि वे किसी परियोजना के टिकाऊ होने के बारे में समझ रख सकें। इस बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने मामलों से जुड़े लोगों पर मामले के असर का अध्ययन करने में विभिन्न साझीदारों की भूमिकाओं की चर्चा की।
"फ़ैसलों के वित्तीय असर का आकलन अवश्य ही होना चाहिए…
"…क़ानून निर्माताओं को न्यायिक असर का आकलन करने की ज़रूरत है जिसके तहत वे न्यायपालिका पर उनके काम के असर का मूल्यांकन करते हैं। जजों को लोगों की जिंदगियों के संदर्भ में, उनके जिंदगियों के वाणिज्यिक पक्षों पर होनेवाले असर का यह मूल्यांकन करना चाहिए।
…एक और प्रश्न जो पूछा जाना चाहिए वह है कि इस मामले का पर्यावरण पर क्या असर होगा।"
ऑनलाइन सुनवाई और इसके भविष्य के बारे में पूछे जाने पर वरिष्ठ वक़ील ने कहा कि ऑनलाइन अदालत वास्तविक अदालत की जगह नहीं ले सकती लेकिन वे उनके पूरक हो सकते हैं। इस पर ज़्यादा प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि "वास्तविक अदालत की वापसी के बाद हमें ऑनलाइन अदालतों को पूरी तरह बंद या इस पर पूरी पाबंदी नहीं लगा देनी चाहिए। हमें एक ऐसी स्थिति की कल्पना करनी चाहिए जहां दोनों ही मौजूद हों।"
एक ऐसी स्थिति की कल्पना करते हुए जिसमें एक वक़ील को अपना सारा काम छोड़कर दूसरे शहर में अपनी दलील पेश करने के लिए जाने की ज़रूरत नहीं होगी, क्योंकि ऑनलाइन सुनवाई उसे देश के विभिन्न हिस्सों में होनेवाली सुनवाई में भाग लेने का मौक़ा देता है, उन्होंने कहा कि यह सुविधा महत्त्वपूर्ण है।
"तकनीक ने हमें यह लाभ दिया है, हमें इसका प्रयोग करना चाहिए।" हालाँकि, उन्होंने कहा कि ऐसे कई मामले में हैं जिनमें ऑनलाइन सुनवाई पर हम निर्भर नहीं रह सकते बल्कि वास्तविक अदालती सुनवाई की ज़रूरत होती है।"
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