पुरुष सत्ता से उन्मुक्ति का "निर्णय"
LiveLaw News Network
21 Oct 2022 5:25 PM IST
डॉ. निरुपमा अशोक
अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फ़ैसले (एक्स बनाम प्रिन्सिपल सेक्रेटेरी, हेल्थ एंड फ़ैमिली वेलफ़ेयर) में अभिनिर्धारित किया है कि विवाहित तथा अविवाहित सभी महिलाओं को सुरक्षित तथा क़ानूनी गर्भपात का अधिकार है तथा वह गर्भ ठहरने के 24 सप्ताह तक कराया जा सकता है।
शीर्ष न्यायालय का कहना है कि लिव-इन रिश्ते में रहने वाली, एकाकी, विधवा, परित्यक्ता, दुष्कर्म पीडि़ता, दिव्यांग और नाबालिग आदि सभी को इस हेतु समान अधिकार हैं। कोर्ट ने निर्णय दिया है कि विवाहित तथा अविवाहित का भेद कृत्रिम, अतार्किक तथा अवैज्ञानिक है तथा क़ानून के समक्ष समता के सिद्धांत के प्रतिकूल होने के कारण अविधिमान्य है।
भारत के उच्चतम न्यायालय के जज जस्टिस डी.वाई. चन्द्रचूड़, जस्टिस ए.एस. बोपन्ना और जस्टिस जे.बी. परदावाला की पीठ ने स्त्री-स्वातन्त्र्य विधिशास्त्र में एक अत्यन्त प्रगतिशील अध्याय जोड़ते हुए यह फ़ैसला 25 वर्षीया एक अविवाहिता की अपील पर दिया जिसमंे उसने 24 सप्ताह के गर्भ को गिराने की अनुमति चाही थी।
दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार में दायर की गई रिट याचिका को ख़ारिज कर दिया था क्योंकि महिला ने स्वयं कहा था कि वह सहमति से बनाए गए सम्बन्ध के चलते गर्भवती हुई थी।
सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश को पलटते हुए व्यवस्था दी कि महिलायें अपने शरीर की पूर्णता तथा स्वायत्तता की हक़दार हैं, उन्हें प्रजनन का अधिकार है तथा इस सम्बन्ध में वे स्वयं निर्णय लेने में सक्षम और समर्थ हैं।
उक्त निर्णय इसलिये और महत्वपूर्ण है क्योंकि अभी इसी वर्ष मई में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने अपने पचास वर्ष पूर्व दिए गये उस निर्णय को पलट दिया है जिसके द्वारा वहाँ की महिलाओं को गर्भपात के अधिकार को सांविधानिक मान्यता दी गई थी।
दरअसल 22 जनवरी 1973 को रो बनाम वेड के निर्णय में कोर्ट ने फ़ैसला दिया था कि महिलाओं को गर्भपात का अधिकार है जो उनकी निजता व गरिमा से जुड़ा हुआ है तथा प्रजननात्मक स्वायत्तता का अभिन्न अवयव है।
मई में दिए गये फ़ैसले पर वहाँ प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई है तथा नारी स्वातन्त्र्य से जुड़े संगठन गर्भपात को मान्यता देने के लिये क़ानून बनाने की माँग कर रहे हैं। ज्ञातव्य है कि वहाँ कई प्रांतों में गर्भपात ग़ैर क़ानूनी घोषित है।
भारत में गर्भपात को नियंत्रित करने हेतु गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम, 1971 लागू है लेकिन यह सभी स्त्रियों को प्रत्येक परिस्थिति में गर्भपात की अनुमति नहीं देता। नारी संगठनों की माँग पर 2021 में संशोधन कर इसमें विवाहित होने की शर्त हटा दी गई थी तथा अवधि भी 24 सप्ताह कर दी गई थी लेकिन सहमति से बनाए गये संबंधो पर यह गर्भपात की अनुमति नहीं देता था।
इस बीच उच्च न्यायालयों तथा उच्चतम न्यायालय में कई याचिकाएँ डाली गईं जिनमे कतिपय करणों से गर्भपात की अनुमति चाही गई थी। सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा निर्णय से स्थिति स्पष्ट हो गई है तथा इस हेतु अब सरकारी या मान्यता प्राप्त अस्पतालों में यह सुविधा उपलब्ध होगी। कोर्ट ने यह भी निर्देशित किया है गर्भपात कराने की इच्छुक महिला से अनावश्यक प्रश्न न पूँछे जायँ तथा उसकी गोपनीयता बनाये रखी जाये।
सुप्रीम कोर्ट ने इस अहम तथा दूरगामी प्रभाव वाले फ़ैसले में यह भी कहा है कि पत्नी को जबरन गर्भवती करना वैवाहिक दुष्कर्म (रेप) माना जाना चाहिये और ऐसे मामलों में भी महिला 20 से 24 सप्ताह तक गर्भ का समापन करा सकती है। शीर्ष अदालत ने कहा है कि ऐसी महिला को बलात्कार पीडि़त या रेप सरवाईवर की श्रेणी में रखा जाएगा।
वह चिकित्सकीय गर्भ समापन अधिनियम के अंतर्गत चौबीस सप्ताह की अवधि में गर्भ को समाप्त करने की माँग कर सकती हैं। यहाँ कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यह आदेश सिर्फ़ गर्भपात कराने तक ही सीमित रहेगा तथा इसे अपराध नहीं माना जायेगा, न ही इसके बारे में कोई आपराधिक शिकायत ही की जा सकेगी।
यह फ़ैसला इस मामले में अहम है कि सुप्रीम कोर्ट वर्तमान में भारतीय दंड संहिता की धारा 375 (बलात्संग) के एक अपवाद (2) की सांविधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर विचार कर रहा है,जो वैवाहिक बलात्कार को बलात्कार के अपराध से छूट देता है। पीठ ने स्पष्ट किया है कि हम यह नहीं कह रहे हैं कि वैवाहिक बलात्कार अपराध है लेकिन स्त्री की प्रजननात्मक स्वायत्तता उसकी शारीरिक स्वायत्तता का अभिन्न अवयव है।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, विवाहित महिलायें भी यौन हिंसा का हिस्सा बन सकती हैं। बलात्कार का सामान्य अर्थ बिना सहमति या इच्छा के विरुद्ध किसी व्यक्ति के साथ यौन सम्बन्ध बनाना है भले ही इस प्रकार बना जबरन सम्बन्ध विवाह के संदर्भ में हो या न हो। एक महिला, पति द्वारा किए गये बिना सहमति सम्भोग के परिणाम स्वरूप गर्भवती हो सकती है। पीठ ने वैवाहिक परिवेश में हिंसा को कठोर वास्तविकता बताया और कहा, यदि हम इसे नहीं स्वीकारेंगे तो हम चूक जाएँगे। यह ग़लत धारणा है कि अजनबी ही यौन हिंसा के लिये उत्तरदायी हैं।दहेज प्रतिषेध अधिनियम, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम तथा लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम समेत कई क़ानूनों में पारिवारिक हिंसा के विभिन्न रूपों के निदान के प्रावधान मौजूद हैं।
उच्चतम न्यायालय ने सांविधानिक पहलुओं की व्याख्या करते हुए अभिनिर्धारित किया कि प्रजननात्मक स्वायत्तता, निजता, समता तथा गरिमा पूर्ण जीवन जीने का अधिकार प्रत्येक महिला में अंतर्निहित है जिसे सांविधानिक संरक्षण प्राप्त है। इसी परिप्रेक्ष्य में गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम के प्रावधानों का निर्वचन किया जाना चाहिए।
मूलतः इस अधिनियम में गर्भ निरोध उपायों का असफल हो जाने, लैंगिक हिंसा का शिकार होने तथा सम्बंधित स्त्री या उसके गर्भ में पल रहे भ्रूण में कोई दोष होने पर ही बीस सप्ताह तक गर्भपात अनुमत था।
एस. ख़ुशबू बनाम कन्नाइम्मल (2010) के वाद में सुप्रीम कोर्ट की ही तीन जजों की बेंच ने निर्णय दिया था कि विवाह पूर्व सेक्स तथा लिव-इन रिश्तों का अपराधीकरण नहीं किया जाना चाहिए। कई देशों में लिव-इन रिश्तों को क़ानूनी जामा पहनाया जा चुका है लेकिन भारत में अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि न्यायालयों ने बिना पति की सहमति से गर्भपात कराने के पत्नी के अधिकार को मान्यता दे रखी है तथा अब इसे वैवाहिक क्रूरता की श्रेणी में नहीं गिना जाता है। इस आधार पर पति को विवाह-विच्छेद का अधिकार नहीं है। मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 में विवाहित या अविवाहित महिला का विभाजन समाप्त कर दिया गया है।
हिंदू दत्तक तथा भरणपोषण अधिनियम, 1956 में सभी महिलाओं को दत्तक गृहण का अधिकार है। संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 में हर एक स्त्री को संरक्षक बनने का क़ानूनी अधिकार है।
गीता हरिहरन बनाम रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया (1999) के वाद में सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया था कि पिता के जीवित रहते हुए माता भी नैसर्गिक अभिभावक है। अर्थात् दत्तकगृहण, उत्तराधिकार, विवाह तथा मातृत्व लाभ प्राप्त करने में सभी स्त्रियों को निर्णय लेने में का समान अधिकार है। अतः गर्भपात कराने में भी उनके अधिकारों को मान्यता देना अपरिहार्य है।
के.एस. पुत्तास्वामी बनाम भारत संघ (2018) के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की बेंच ने निजता के अधिकार को संविधान के प्राण तथा दैहिक स्वतंत्रता के मूल अधिकार का अंग करार दिया है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने शरीर तथा मस्तिष्क पर स्वायत्तता बरकरार रखने के लिए समर्थ बनाने हेतुनिजता के अधिकार को आवश्यक बताया गया था।
इसी क्रम में नवतेज सिंह जोहर बनाम भारत संघ (2018) के वाद में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 (समलैंगिकता) को असाँविधानिक बताते हुए निर्णय दिया था कि यह धारा मानवीय गरिमा, निर्णयात्मक स्वायत्तता और निजता के मौलिक अधिकार का अतिक्रमण करती है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने यौन अभिविन्यास चुनने, साहचर्य की तलाश करने और अपने निजी स्थान के भीतर इसका प्रयोग करने की स्वतंत्रता है।
सुप्रीम कोर्ट ने "सांविधानिक नैतिकता" को संविधान के आदर्शों और एक समवेशी समाज का निर्माण करने वाले मूल्यों के रूप में वर्णित किया। समाज को बदलने के लिए संविधान को एक उपकरण के रूप में मान्यता दी। न्यायालय का मानना है कि कोई प्रतिबंधात्मक प्रावधान मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है या नहीं, इस पर निर्णय सांविधानिक नैतिकता के सिद्धांतों द्वारा निर्देशित होना चाहिये न कि सामाजिक नैतिकता द्वारा।
यह निर्णय भारत ही नहीं बल्कि अन्य राष्ट्रों के लिए अत्यधिक प्रेरक मूल्य रखता है जो इक्कीसवी सदी में भी पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था के तहत स्त्री-पुरुष के लिंग अभिविन्यास में विभेद करता है। पुरुष सत्ता से विमुक्ति का यह "निर्णय" स्त्री अधिकारों में मील का पत्थर बन चर्चित हो रहा है।