जस्टिस एपी शाह के‌‌ खिलाफ रंजन गोगोई के आरोपः सच्चाई क्या है?

LiveLaw News Network

28 March 2020 4:00 AM GMT

  • जस्टिस एपी शाह के‌‌ खिलाफ रंजन गोगोई के आरोपः सच्चाई क्या है?

    प्रशांत भूषण

    जस्टिस रंजन गोगोई ने, कई पूर्व न्यायाधीशों की आलोचना का सामना, जिनमें कई उनके पूर्व सहयोगी जैसे जस्टिस एके पटनायक, जस्टिस जे चेलमेश्वर, जस्टिस एम लोकुर, जस्टिस के जोसेफ और जस्टिस एपी शाह आदि थे, सेवानिवृत्त‌ि के तुरंत बाद राज्यसभा की सदस्यता के केंद्र सरकार के प्रस्ताव को स्‍वीकार करने और आयोध्या, सबरीमाला, राफेल जैसे मामलों केंद्र सरकार के पक्ष में फैसले देने के बाद, अपना बचाव अपने पुराने सहकर्मियों, जजों और जिन्हें वह वकीलों की 'लॉबी' कहते हैं, जिनमें उन्होंने मुझे और श्री कपिल सिब्‍बल को शामिल किया है, पर आक्रामक होकर किया है।

    उन्होंने मुझ पर सीबीआई निदेशक के रूप में आलोक वर्मा की नियुक्ति पर सवाल उठाने और बाद में आधी रात के तख्तापलट में उनकी बर्खास्तगी, जिसमें उन्हें हटा दिया गया, पर सवाल उठाने का आरोप लगाया।

    तथ्य यह है कि हम, रंजीत सिन्हा की सेवानिवृत्त‌ि के बाद राकेश सिन्हा को सीबीआई का कार्यवाहक निदेशक नियुक्त किए जाने और प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता विपक्ष और भारत के मुख्य न्यायाधीश की टीम के जर‌िए सीबीआई का नियमित निदेशक क्यों नहीं नियुक्त किया गया, इन सवालों को लेकर कोर्ट में गए थे।

    हमारी याचिका के बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को नियमित निदेशक नियुक्त करने के लिए मजबूर करने किया और आलोक वर्मा को नियुक्त किया गया था। हमने कभी भी उनकी नियुक्ति पर सवाल नहीं उठाया, बल्‍कि उस बैठक के मिनट की प्रतियां मांगी, जिसमें उन्हें चुना गया था। इसके बाद, जब आलोक वर्मा को हटाया गया तो हमने उन्हें हटाने को चुनौती दी।

    भले ही गोगोई मुख्य न्यायाधीश के रूप में खुद उस उच्चाधिकार समिति में थे, जिसने वर्मा को हटाने की मंजूरी दी थी, उन्होंने न्यायिक पक्ष की ओर से मामले को सुना, और अंत में वर्मा की सेवानिवृत्ति की पूर्व संध्या पर उन्हें बहाल करने का फैसला सुनाया था, लेकिन मामले को हाई पावर्ड कमेटी को (जिसमें उन्होंने खुद का प्रतिनिधित्व करने के लिए न्यायमूर्ति सीकरी को भेजा ‌था, जोकि उनके बाद सबसे वरिष्ठ नहीं थे।), वर्मा के निष्कासन को मंजूरी देने के लिए वापस भेजा दिया।

    सरकार ने फैसले के ही दिन, तुरंत समिति की बैठक की और वर्मा को हटाने को मंजूरी दे दी। गोगोई अब कहते हैं कि आलोक वर्मा अच्छे अधिकारी थे, जिन्हें आधी रात को अवैध रूप से पद से हटाने की कार्रवाई को वह रोक नहीं पाए थे!

    अपने सहयोगियों जस्टिस मदन लोकुर और कुरियन जोसेफ के बारे में गोगोई कहते हैं कि वे महत्वाकांक्षाओं में विफल रहे, हालांकि वे उनके अच्छे दोस्त थे। यह उल्लेखनीय है कि वह अपने सहकर्मियों पर इतनी लारवाही से विफल महत्वाकांक्षाओं का आरोप लगाते हैं, जबकि उन्होंने उच्चतम न्यायालय में छह वर्ष से ज्याद वक्त तक उनके साथ काम किया, और जनवरी 2018 की प्रेस कॉन्फ्रेंस में उनके साथ शामिल थे।

    जब वे गोगोई के बाद सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त किए गए थे, तभी वे जानते थे कि गोगोई मुख्य न्यायाधीश बनेंगे और वे नहीं। जब तक गोगोई यह संकेत न दे रहे हों कि वे सभी भी राज्यसभा सीट की फिराक में थे लेकिन सरकार ने यह तोहफा केवल उन्हें ही दिया, तब तक विफल महत्वाकांक्षाओं का सवाल कहां उठता है ? दो सबसे ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ जजों खिलाफ ये आरोप, क्षुद्र, घमंड से भरे और बेतुके हैं।

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    जस्टिस गोगोई ने मद्रास और दिल्ली उच्च न्यायालयों मुख्य न्यायाधीश रह ह चुके जस्टिस एपी शाह के खिलाफ परोक्ष रूप से गंभीर आरोप लगाया है। गोगोई का कहना है कि जस्टिस एपी शाह के खिलाफ "एक अभिनेत्री" के संबंध में, संपत्ति के दो मामलों में शिकायतें थीं। उन्होंने कहा कि ये रिकॉर्ड पर है और अपने साक्षात्कारकर्ता से आग्रह किया कि इन जानकार‌ियों को वह आरटीआई (जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट से) के जर‌िए मांग लें।

    उन्होंने यह नहीं बताया कि 5 अगस्त 2019 को, सुप्रीम कोर्ट के एक रिपोर्टर धनंजय महापात्रा ने अपने एक लेख में गोगोई द्वारा लगाए गए इन आरोपों का उल्लेख किया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि मद्रास हाईकोर्ट के कुछ वकीलों की शिकायत में ये आरोप शामिल थे, जो कि उन्होंने उस समय के भारत के मुख्य न्यायाधीश को भेजी थी, जिसकी वजह से उस समय जस्टिस शाह की सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति रोक दी गई थी।

    महापात्रा ने यह बात जस्टिस शाह के एक व्याख्यान के शीर्षक, "Judging the Judges: need for transparency and accountability" का संदर्भ देते हुए लिखा था, जिसमें जस्टिस शाह ने कहा कि गोगोई के यौन उत्पीड़न के मामले का विस्तार से उल्लेख किया था। महापात्रा ने अपने आलेख में आरोपों के बारे में विस्तार से नहीं लिखा था।

    हालांकि, जस्टिस शाह ने एक मर्मभेदी प्रत्युत्तर में कहा था, "उन्हें एक पत्र पर भरोसा है, जिसे लेकर उनका दावा है कि 2008 में कथित तौर पर कुछ वकीलों द्वारा तत्कालीन सीजेआई को भेजा गया था, जो कथित तौर पर मेरे चरित्र पर लांछन लगाया गया था। उन्होंने यह भी कहा था कि उस पत्र के बार में बहुत कम लोगों को ही जानकारी है, और तत्कालीन सीजेआई ने उस पर कोई कार्रवाई नहीं की थी।

    मेरा पक्ष यह है कि यह पहली बार है जब मैंने इस तरह के पत्र के बारे में सुना है और आपके रिपोर्टर के सभी आरोपों का, उन सभी अवमाननओं के साथ जिसका वह हकदार है, खंडन करता हूं। यह समझा जाता है कि श्री महापात्रा अपनी रिपोर्ट देने से पहले स्रोतों और तथ्यों की जांच करने और दूसरे पक्ष की राय जानने के बुनियादी पत्रकारिता सिद्धांतों का उपयोग करते। लेकिन उन्होंने ऐसे कुछ नहीं किया।"

    यह कहना पर्याप्त है कि शिकायत पर कभी भी किसी मुख्य न्यायाधीश ने कार्रवाई नहीं की थी और न ही न्यायमूर्ति शाह को किसी भी स्तर पर उनकी प्रतिक्रिया के लिए उस शिकायत की प्रति भेजी गई थी।

    फिर भी गोगोई ने अपने साक्षात्कारकर्ता से कहा कि वह आरटीआई के तहत यह शिकायत प्राप्त कर सकती हैं, वह भी ऐसे समय में जब सुप्रीम कोर्ट ने आरटीआई के तहत न्यायाधीशों की संपत्ति, लंबित निर्णयों, नियुक्तियों पर कोलेजियम की बैठकों के मिनट आदि के बारे में कोई भी जानकारी साझा करने से इनकार कर दिया है!

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    चूंकि गोगोई ने मद्रास उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति शाह के कार्यकाल का उल्लेख किया है, इसलिए मैंने यह जानने के लिए न्यायमूर्ति शाह और मद्रास उच्च न्यायालय के अन्य अधिवक्ताओं से पूछताछ की कि अभिनेत्री और संपत्ति के दो मामलों के ये आरोप क्या हो सकते हैं।

    किसी अभ‌िनेत्री से जुड़ा एक मात्र केस, जिसे जस्टिस शाह ने निस्तार‌ित किया था, वह अभ‌िनेत्री खुशबू के खिलाफ उन ‌शिकायतों का था, जो उनकी प्री-मेरिटल सेक्स को लेकर की गई एक टिप्‍पणी के खिलाफ दायर की गई‌ थीं। जस्टिस शाह ने उन शिकायतों पर रोक लगा दी थी, जिन्हें बाद में सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया था।

    संपत्ति के मामलों में एक मामला एक चैरिटेबल ट्रस्ट, कांची कामकोटि पीठम द्वारा एक अस्पताल और उसकी जमीन बेचे जाने का प्रतीत होता है। ट्रस्ट ने मूल रूप से इसे मैसर्स चेट्टीनाड हॉस्पिटल्स को 105 करोड़ रुपए में बेचने की पेशकश की थी, जिसे मद्रास उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश ने अस्वीकार कर दिया।

    बाद में दायर अपील पर, न्यायमूर्ति शाह की अध्यक्षता वाली एक खंडपीठ ने प्रमुख समाचार पत्रों में विज्ञापन देकर सार्वजनिक नीलामी के जर‌िए बेचने का आदेश दिया।

    दो सबसे ज्यादा बोली लगाने वालों में एक मैसर्स ग्लोबल अस्पताल था, जोकि अस्पतालों की एक श्रृंखला चलाने वाली एक प्रतिष्ठित कंपनी है, जिसने 257 करोड़ की बोली लगाई और दूसरी कंपनी एक एक प्रतिष्ठित रियल एस्टेट कंपनी, मेसर्स श्रीराम प्रॉपर्टीज थी, जिसने 265 करोड़ की बोली लगाई (बाद में बढ़कर 280 करोड़ हो गई)।

    चूंकि, अस्पताल और जमीन एक धर्मार्थ ट्रस्ट की संपत्त‌ि थी, जिनका उद्देश्य उपनगरीय क्षेत्र में एक अस्पताल को चलाना था, ताकि आसपास के गांवों की जरूरतों को पूरा किया जा सके, इस‌लिए अस्पताल की बिक्री एक ऐसी इकाई को करने का विचार था, जो उस आवश्यकता पूरा करे।

    न्यायमूर्ति शाह की बेंच ने मेसर्स ग्लोबल हॉस्पिटल्स को बिक्री की अनुमति देते हुए शर्त लगाई कि अस्पताल को धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए चलाया जाए। इसका इस्तेमाल रियल एस्टेट के लिए नहीं किया जाएगा और कम से कम 50 बेड गरीब मरीजों के लिए बिना किसी भुगतान के आरक्षित रखने होंगे।

    यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि रियल एस्टेट कंपनी इन शर्तों से सहमत नहीं थी। बाद में उन्होंने एक निवेदन किया कि वे मणिपाल अस्पताल की साझेदारी में ये अस्पताल चलाएंगे, लेकिन चूंकि उन्होंने सुधार करने पर विचार किया है, इसलिए वे मौजूदा अस्पताल को चलाने में असमर्थ होंगे।

    न्यायमूर्ति शाह की पीठ ने इन शर्तों को स्वीकार नहीं किया था, इस बात का भी कोई विश्वसनीय प्रमाण नहीं था कि मणिपाल अस्पताल वास्तव में अस्पताल चलाएगा और इसलिए बिक्री की अनुमति मैसर्स ग्लोबल अस्पताल को की गई।

    मैंने इस मामले में पारित आदेशों को पढ़ा है, जिनसे यह स्पष्ट है कि ट्रस्ट इस आदेश पर सहमत था। आदेश के खिलाफ कोई अपील भी दायर नहीं की गई और यह अंतिम आदेश हो गया।

    इस मामले की कार्यवाही मीडिया में व्यापक रूप से रिपोर्ट हुई थी।

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    यह स्पष्ट नहीं है कि गोगोई ने जिस अन्य संपत्ति मामले का उल्लेख किया है, वह क्या है, लेकिन तय है कि न्यायमूर्ति शाह पर इनमें से कोई भी आरोप कभी भी नहीं लगा। जस्टिस गोगोई की जस्टिस शाह के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी न केवल निराधार और मानहानिकारक है, बल्कि अपमानजनक भी है और परोक्ष रूप से लगाए गए हैं।

    एक पूर्व न्यायाधीश के रूप में, उन्हें जानना चाहिए कि भले ही वह तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश को कुछ वकीलों की ओर से भेजे गए एक पत्र में लगाए गए आरोपों के आधार पर बयान दे रहे हों (जो न तो न्यायमूर्ति शाह को लगाए गए थे और न ही किसी ने उनसे पूछताछ की थी), इस तरह के पत्र के आधार पर कोई भी सार्वजनिक आरोप न केवल लापरवाही भरा है, बल्कि मानहानिकारक भी है। यह दीवानी के साथ-साथ आपराधिक मानहानि क मामला भी है।

    गोगोई केवल सेवानिवृत्ति के बाद केंद्र सरकार की ओर से दी गई राज्यसभा सीट का उपहार स्वीकार करने के दोषी नहीं हैं, बल्कि वह दोषी भी रहे हैं, जैसा कि जस्टिस लोकुर ने हाल के एक लेख में विस्तार से बताया है, जिसमें तीन बहुत ही खराब काम हैं, जिन्होंने न्यायपालिका की स्वतंत्रता से समझौता किया- 1-

    सीलबंद न्यायशास्त्र का उद्भव , जिसके जर‌िए, सीलबंद लिफाफों में अहस्तक्षरित नोटों पर उन्होंने बार-बार सरकार से सूचनाएं मांगी, उन्हें स्‍वीकार किया, उन सूचनाओं का उपयोग किया, (जिन्हें विपक्षी पार्ट‌ियों के साथ साझा तक नहीं किया गया।) और जिनमें से कई तथ्यात्मक रूप से गलत भी रहे (जैसा कि राफेल मामले में सामने आया था)।

    इस सीलबंद न्यायशास्त्र ने कानून और प्राकृतिक न्याय के हर सिद्धांत का उल्लंघन किया है। अदालत को दूसरे पक्ष से छुपाकर फैसले करने का अनुमति दी, दूसरे पक्ष को फैसले का आधार रही सूचनाओं की जानकारी तक नहीं दी गई।

    2-सरकार की इच्छा पर मामलों की सुनवाई/सुनवाई न करने की प्राथमिकता तय करना। 3-सरकार की इच्छा पर न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण।

    यह सच है कि मैंने गोगोई की सराहना की थी, जब उन्होंने बेंच को तय करने की मास्टर ऑफ रोस्टर पॉवर का तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा द्वारा दुरुपयोग किए जाने का मामला उजागर करने के लिए 2018 की प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी। मैंने उनके गोयनका व्याख्यान की भी सराहना की थी, जहां उन्होंने कहा कि देश को न केवल शोरगुल करने वाले पत्रकारों और स्वतंत्र न्यायाधीशों की जरूरत है, बल्कि स्वतंत्र पत्रकारों और शोरगुल करने वाले न्यायाधीशों की भी जरूरत है।

    लेकिन मुख्य न्यायाधीश बनने के और सुप्रीम कोर्ट की एक कर्मचारी का यौन उत्पीड़न करने के बाद वह सरकार की गोद में बैठ गए और न केवल अपनी पूर्ववर्ती की तरह मास्टर ऑफ रोस्टर की अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया, बल्कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता को नष्ट करने के लिए उपरोक्त चीजें भी की।

    आखिर में, वह वही न‌िकले, जो अर्घ्य सेन गुप्ता ने अपने हालिया लेख में उन्हों कहा था, 'जज के भेष में विषाणु'। उन्हें इतिहास में एक ऐसे मुख्य न्यायाधीश के रूप में याद किया जाएगा, जिन्होंने माननीय सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा को कम कर उसे एक कार्यकारी अदालत बना दिया।

    [इस लेख में व्यक्त की गई राय लेखक की निजी राय है। लेख में दिए गए तथ्य और राय LiveLaw के विचारों को प्रतिबिंबित नहीं करते हैं और LiveLaw उनकी कोई जिम्मेदारी या दायित्व नहीं रखता।]

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