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कोरोना वायरस COVID 19, नार्थ ईस्ट इंडिया और नस्लीय दुर्व्यवहार

LiveLaw News Network
22 April 2020 2:30 AM GMT
कोरोना वायरस COVID 19, नार्थ ईस्ट इंडिया और नस्लीय दुर्व्यवहार
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प्रज्ञा पारिजात सिंह

भारत का उत्तर पूर्व - सात राज्यों का समूह। अंग्रेजी में इन्हेंं सेवन सिस्टर्स भी कहते हैं। भारत के नक्शे में जैसे ही पूर्व दिशा में बढ़ते जायेंगे, एक संकरा छोर आएगा जिसे "चिकन नेक " यानि मुर्गी की गर्दन कहते हैं - सुराही जैसी, पतली। इसे जैसे ही पार करते हैं, आपका प्रवेश होता है उत्तर पूर्व भारत में।

जी हां,अभी भी भारत ही है, लेकिन यकायक भारत के लोगों का जैसा अमूनन चेहरा होता है, वैसा यहां क्यों नहीं? खाने-पीने की अलग परम्पराएं, वेश-भूषा - परिवेश -शऊर सब अलग। इनको ट्राइब्स कहते हैं, हिंदी में कबीले वाले।

अलग - अलग पहाड़ियों पर रहने वाली ट्राइब्स। गारो, खासी, जैंतिया से लेकर दिहांग, दिबांग तक। ब्रह्मपुत्र, बराक इससे दो हिस्सों में चीरती हुई सिंचित करती है तो वहीं कंचनजंगा की उत्तुंग शिखर सूरज की पहली किरण को दस्तक देती है ।

खनिज, जल - स्त्रोत, झील , तालाब, हरियाली सब तो है यहाँ, तो ट्राइब्स क्यों कहलाते हैं ये? और भारत के संविधान में बनाई गयी जाति - जनजाति की श्रेणी में इन्हें शेड्यूल ट्राइब्स में क्यों डाला गया?

1873 , 1874 , 1919 और 1935 में अंग्रेज़ों द्वारा समय समय पर लाये गए नियमावली और ट्राइब्स को संचालित करने वाले कानून ने भारत के इन राज्यों की पृष्ठभूमि ही बदल दी। इन्हें 1950 के बाद , संविधान के निर्माताओं ने पांचवी और छठी अनुसूची में डालकर विभिन्न अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन हेतु और नियंत्रण के बारे में विस्तृत कानून बनाये हैं, जो इस क्षेत्र को बाकी क्षेत्रों के मुवज़ना अलग बर्ताव करती है । जातीयता और भाषीय अल्पसंख्यकों के आधार पर जहां भारत में अनेक राज्यों का गठन हुआ और वे समय के हिसाब से बढ़ते गए, वहीँ पूर्वोत्तर राज्य इस होड़ में कुछ पीछे छूट गए ।

असीमित संसाधनों से परिपूर्ण ये राज्य कैसे इस कदर पीछे छूट गए कि भारत के अधिकांश लोग इन्हें अपना हिस्सा ही नहीं मानते?

कोरोना वायरस ने जहां पूरे विश्व को स्तब्ध कर रखा है, वहीं मानवता आये दिन शर्मसार हो रही है। वुहान, चीन में पनपे इस पशुजन्य रोग ने पूरी दुनिया में तबाही मचा रखी है। भारत भी इससे बच नहीं पाया और हर दिन इसकी चपेट में आये लोगों की संख्या बढ़ रही है।

कहते हैं मानव से पहले मानवता का नाश होता है। विभीषिका मनुष्य का असली रूप दिखाती है। आये दिन अख़बार की सुर्खियों में मानव अधिकारों के हनन की खबरें रहती हैं। एक मुद्दा जो आज से ही नहीं सदियं से चला आ रहा है वह है, उत्तर पूर्वीय भारतीयों के साथ हो रहे नस्लीय भेदभाव का।

पूर्वजों में कुछ मंगोली नस्ल होने के कारण सामान्यतः यहां के लोग मेनलैंड भारत के लोगों जैसे नहीं दिखते । आंखें छोटी होने के कारण इनको चिंकी , चीनी , नेपाली , बहादुर , मोमो जैसे उपनाम दे दिए जाते हैं जो आम बोल चाल की भाषा में इतने प्रचलित हैं कि बोलने से पहले लोगों में ज़रा भी हिचक नहीं होती।

इनको इनके खाने की वजह से अक्सर लोग ताने देते हैं। पोर्क, बम्बू शूट की सब्ज़ी इनके रोज़ाना खाने में शुमार है जो बाकी भारतीयों की सोच से परे है। ये नस्लीय टिप्पणियां, महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार अनेक वर्षों से चला आ रहा है। दिल्ली में कुछ वर्ष पूर्व नीडो तानिया नाम के लड़के की कथित हत्या से जो भूचाल आया, उससे सब वाकिफ हैं। सरकार ने कमिटी गठित की और बेजबरुआ कमिटी ने अपनी रिकमेन्डेशन दी।

मुख्यतः रिपोर्ट के अनुसार

॰ भारतीय दंड संहिता में संशोधन करके नया कानून लाया जाये जहाँ नस्लीय टिप्पणियों को जघन्य अपराध की श्रेणी में रखा जायेगा

॰ ऐसे कानून संज्ञानात्मक और गैर जमानती माने जायेंगे

॰ इनसे निपटने के लिए फ़ास्ट- ट्रैक कोर्ट बनेंगे जहाँ पब्लिक प्रासीक्यूटर खुद नार्थ ईस्ट से होंगे

॰ ट्रायल 90 दिन के अंदर निपटाने की कोशिश

॰ स्कूल, कॉलेज के विद्यार्थियों को सेन्सिटिज़ेशन क्लासेज दी जाएंगी

॰सोशल मीडिया के माध्यम से युद्ध स्तर पर जागरूकता प्रदान की जाएगी

इस रिकमेन्डेशन को आए 3 वर्ष बीत चुके हैं लेकिन अभी तक इन संस्तुतियों को विधान में निगमित नहीं किया गया है । कारणवश उत्तर पूर्वियों के साथ आज भी वहीं बर्ताव निरंतर जारी है।

कोरोना की वजह से उत्पन्न हुई लॉकडाउन की स्थिति ने लोगों को उनके साथ बुरा बर्ताव करने को और उकसा दिया है। कभी इन लड़कियों के पर चीनी- चिंकी बोलकर थूका जाता है तो कभी सामान खरीदने गयी महिलाओं को वापस भेज दिया जाता है। कानून अक्षम है या लोग विक्षिप्त, ये नहीं मालूम, लेकिन समय को मद्देनज़र रख कर फिलहाल कानून में परिवर्तन लाने की सख्त आवश्यकता है।

वर्त्तमान कानून क्या है ?

फिलहाल यदि किसी उत्तर पूर्वीय राज्य के लोगों को जातिसूचक या नस्लसूचक शब्दों से पुकारा जाता है तो यह कानूनन अपराध माना जायेगा। ऐसी अवस्था में अनुसूचित जाति जनजातियों के संरक्षण के लिए बने कानून SC /ST एक्ट ( अत्याचार निरोधन अधिनियम ) 1989 , बनाया गया था।

यह क़ानून क्या करता है?

यह अधिनियम अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के विरुद्ध किए गए अपराधों के निवारण के लिए है। अधिनियम ऐसे अपराधों के संबंध में मुकदमा चलाने तथा ऐसे अपराधों से पीड़ित व्यक्तियों के लिए राहत एवं पुनर्वास का प्रावधान करता है। सामान्य बोलचाल की भाषा में यह अधिनियम अत्याचार निवारण (Prevention of Atrocities) या अनुसूचित जाति/जनजाति अधिनियम कहलाता है।

इस कानून की तीन विशेषताएं :

यह अनुसूचित जातियों और जनजातियों में शामिल व्यक्तियों के खिलाफ़ अपराधों को दंडित करता है।

यह पीड़ितों को विशेष सुरक्षा और अधिकार देता है।

यह अदालतों को स्थापित करता है, जिससे मामले तेज़ी से निपट सकें।

इस क़ानून के तहत किस प्रकार के अपराध दण्डित किये गए हैं?

कुछ ऐसे अपराध जो भारतीय दंड संहिता में शामिल हैं, उनके लिए इस कानून में अधिक सज़ा निर्धारित की गयी है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के विरुद्ध होने वाले क्रूर और अपमानजनक अपराध, जैसे उन्हें जबरन अखाद्य पदार्थ खिलाना या उनका सामाजिक बहिष्कार करना, को इस क़ानून के तहत अपराध माना गया है I इस अधिनियम में ऐसे 20 से अधिक कृत्य अपराध की श्रेणी में शामिल किए गए हैं।

दण्ड

ऊपर वर्णित अत्याचार के अपराधों के लियें दोषी व्यक्ति को छः माह से पाँच साल तक की सजा, अर्थदण्ड (फाइन) के साथ प्रावधान हैं। क्रूरतापूर्ण हत्या के अपराध के लिए मृत्युदण्ड की सजा हैं। अधिनियम की धारा 3 (2) के अनुसार कोई भी व्यक्ति जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं हैं और,

यदि वह अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के किसी सदस्य के खिलाफ झूठा गवाही देता है या गढ़ता हैं जिसका आशय किसी ऐसे अपराध में फंसाना हैं जिसकी सजा मृत्युदंड या आजीवन कारावास जुर्मानें सहित है। और इस झूठें गढ़ें हुए गवाही के कारण अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के सदस्य को फांसी की सजा दी जाती हैं तो ऐसी झूठी गवाही देने वाले मृत्युदंड का भागी होगा।

यदि वह मिथ्या साक्ष्य के आधार पर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के किसी सदस्य को किसी ऐसे अपराध के लियें दोष सिद्ध कराता है, जिसमें सजा सात वर्ष या उससें अधिक है तो वह जुर्माना सहित सात वर्ष की सजा से दण्डनीय होगा।

आग अथवा किसी विस्फोटक पदार्थ द्वारा किसी ऐसे मकान को नष्ट करता है जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के किसी सदस्य द्वारा साधारणतः पूजा के स्थान के रूप में या मानव आवास के स्थान के रूप में या सम्पत्ति की अभिरक्षा के लिए किसी स्थान के रूप में उपयोग किया जाता हैं, वह आजीवन कारावास के साथ जुर्मानें से दण्डनीय होगा।

लोक सेवक होत हुए इस धारा के अधीन कोई अपराध करेगा, वह एक वर्ष से लेकर इस अपराध के लिए उपबन्धित दण्ड से दण्डनीय होगा। अधिनियम की धारा 4 (कर्तव्यों की उपेक्षा के दंड) के अनुसार कोई भी सरकारी कर्मचारी/अधिकारी जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं हैं, अगर वह जानबूझ कर इस अधिनियम के पालन करनें में लापरवाही करता हैं तो वह दण्ड का भागी होता। उसे छः माह से एक साल तक की सजा दी जा सकती है।

कमज़ोर कानून या नया कानून ?

चूंकि मेनलैंड भारतीयों के लिए और नार्थ ईस्ट के लोगों के लिए कानून सामान है शिकायत करने हेतु कभी कभार ही ऐसा होता है की मुद्दे की गहराई को समझा जाता है और कानूनी जंग में याचिका कर्त्ता सफलता पाता है। कन्विक्शन दर काम होने के कारण मानसिक दुर्बलता आती है और लोग आगे बढ़ जाते हैं।

गत 21 मार्च को लॉकडाउन के बाद MHA ने अधिसूचना जारी थी की यदि किसी भी नार्थ ईस्टर्न को नस्लीय टिप्पणियों या अभद्रता का सामना करना पड़ता है तो मुजरिम के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होगी। तकरीबन 20 दिन बीतने के बावजूद भी ऐसे केस कम नहीं हो रहे हैं, इसलिए समय की दरकार है की कानून में बदलाव आये ।

हर राज्य की अपनी खूबसूरती खुद है, इसीलिए विविधता में एकता हमारे देश की विशेषता है। यदि हम विभीषिका के इस समय जहां मनुष्यों की जान बचाना परम आवश्यक है, उस समय अपने ही देश वासियों से उनके स्वरूप के कारण उन्हे चीनी -चिंकी - मोमो नाम के उपनाम देते हैं तो पिछड़े वो नहीं हम हैं।

मानसिकता में बदलाव और उचित कानून ही उनको अपने यथा दर्ज़े तक पंहुचा पायेगा ...।

लेखिका सुप्रीम कोर्ट में यूनियन ऑफ इंडिया की पैनल काउंसिल में रही हैं और फिलहाल यूनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज से LL.M कर रही हैं। लेख में प्रस्तुत विचार उनके निजी विचार हैं।

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