जानिए नार्को टेस्ट और इसकी वैधानिकता के बारे में महत्वपूर्ण बातें
Lakshita Rajpurohit
28 March 2023 11:25 AM IST
हम वर्तमान में देखते हैं कि अलग अलग मीडिया हाउसेस अपनी रिपोर्टिंग की समय और आम जनता भी किसी अपराध के संदिग्ध के पकड़ते ही न्यायालय के समक्ष उसके नार्को परीक्षण की गुहार लगाने लगते हैं। जैसा कि पिछले साल हुए श्रद्धा मर्डर केस में आफताब पूनावाला के लिए जनता द्वारा ऐसे परीक्षण की मांग की गई थी और बाद में माननीय दिल्ली हाईकोर्त ने इसे स्वीकार भी किया था। इसके पीछे आम जनता का ये मानना है कि इस परीक्षण के बाद सच्चाई सामने निश्चित ही आ जायेगी, जबकि ऐसा 100% सत्य नहीं है। इस कारण यह हमेशा से एक विवादास्पद विषय रहा है कि क्या यह व्यक्ति के मूल अधिकार और मानव अधिकार पर एक अतिक्रमण है या नहीं? भारत में नार्को एनालिसिस रिपोर्ट कोर्ट में प्राथमिक साक्ष्य के तौर पर स्वीकार्य नहीं है।
नार्को टेस्ट है क्या?
नार्को परीक्षण का प्रयोग किसी व्यक्ति से जानकारी प्राप्त करने के लिए दिया जाता है जो या तो उस जानकारी को प्रदान करने में असमर्थ होता है या फिर वो उसे उपलब्ध कराने को तैयार नहीं होता दूसरे शब्दों में यह किसी व्यक्ति के मन से सत्य निकलवाने लिए किया प्रयोग जाता है। अधिकतर आपराधिक मामलों में ही नार्को परीक्षण का प्रयोग किया जाता है। हालांकि बहुत कम किन्तु यह भी संभव है कि नार्को टेस्ट के दौरान भी व्यक्ति सच न बोले। इस टेस्ट में व्यक्ति को ट्रुथ सीरम इंजेक्शन के द्वारा दिया जाता है जिससे व्यक्ति स्वाभाविक रूप से बोलता है। नार्को विश्लेषण एक फोरेंसिक परीक्षण होता है, जिसे जांच अधिकारी, मनोवैज्ञानिक, चिकित्सक और फोरेंसिक विशेषज्ञ, ऑडियो वीडियोग्राफर तथा अन्य सहायक नर्सिंग स्टाफ की उपस्थिति में किया जाता है। इनके ही द्वारा बनाई रिपोर्ट को बाद में कोर्ट के सामने पेश किया जाता है।
परीक्षण के पीछे का विज्ञान-
नार्को परीक्षण करने के लिए सोडियम पेंटोथॉल, सोडियम एमेटल, इथेनॉल, बार्बिचेरेट्स, स्कोपोल-अमाइन, टेपाज़ेमैन आदि को आसुत जल में मिलाया जाता है। परीक्षण के दौरान व्यक्ति को सोडियम पेंटोथॉल का इंजेक्शन लगाया जाता है। व्यक्ति को दवा की मात्रा उसकी आयु, जेंंडर, स्वास्थ्य और शारीरिक परिस्थिति के आधार पर दी जाती है। यदि परीक्षण के दौरान अधिक मात्रा दे दी जाये तो वह कोमा में भी जा सकता है या उसकी मृत्यु भी हो सकती है। परीक्षण में प्रश्नों के उत्तर देते हुए पूरी तरह से व्यक्ति होश में नहीं होता है और इसी कारण से वह प्रश्नों के सही उत्तर देता है क्योंकि वह उत्तरों को घुमा-फिरा पाने की स्थिति में नहीं होता है।
इस ड्रग के प्रभाव में न केवल वह अर्ध बेहोशी की हालत में चला जाता है बल्कि उसकी तार्किक बुद्धि (Reasoning) भी कार्यशील नहीं रहती है। एक तरीके से यह व्यक्ति को सम्मोहन अवस्था में डाल देता है, जिससे वह अपनी तरफ़ से अधिक कुछ बोलने की स्थिति में नहीं होता बल्कि पूछे गए सवालों के बारे में ही कुछ बता सकता है। विशेषज्ञों का मानना है कि नार्को टेस्ट में व्यक्ति हमेशा सच ही कहे इसकी कोई गारंटी नहीं, सच की मात्रा कम भी हो सकती है।
नार्को परीक्षण के अलावा सच उगलवाने के लिए पॉलीग्राफ, लाईडिटेक्टर टेस्ट और ब्रेन मैपिंग टेस्ट किया जाता है। पॉलीग्राफ टेस्ट शारीरिक जांच का दूसरा रूप है, लेकिन इस टेस्ट में व्यक्ति के शरीर में कोई पदार्थ इंजेक्ट नहीं किया जाता है। इसके बजाय, रक्तचाप, नाड़ी की दर, श्वास, पसीने की ग्रंथियों और रक्त प्रवाह को मापने के उपकरण व्यक्ति से जुड़े होते हैं। इसके बाद उन्हें कुछ सवालों के जवाब देने होंगे। व्यक्ति झूठ बोल रहा है या सच कह रहा है, इसकी गणना करने के लिए प्रत्येक प्रतिक्रिया को एक संख्यात्मक मान दिया जाता है।
देखा गया है की नार्को टेस्ट के परिणामस्वरूप व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक क्षमता पर तमाम तरह के मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभाव भी पड़ते हैं। इस टेस्ट के बाद व्यक्ति को चिंता, स्ट्रेस और चिड़चिड़ापन जैसी समस्याएं भी हो सकती हैं। कुछ मामलों में नार्को टेस्ट के बाद लंबे समय तक एंग्जायटी और कमजोर याददाश्त भी रिपोर्ट हुई हैं, हालांकि इसका कोई चिकित्सीय प्रमाण नहीं है। इसलिए इस टेस्ट को करने से पहले कोर्ट और सम्बंधित एजेंसी से पूर्व आज्ञा लेना अतिआवश्यक हो जाता है।
भारतीय विधिक परिपेक्ष्य में इसकी स्थिति-
भारतीय संविधान में व्यक्तियों कुछ मूल अधिकार प्रदान किए गए हहै जो व्यक्ति के जीवन जीने में आवश्यक है। जिसमें अनुछेद 20(3) के अंतर्गत आत्म–दोषारोपण (Self-incrimination) से अभियुक्त व्यक्ति को संरक्षण प्रदान किया गया है और वहीं अनुच्छेद 21 के में व्यक्ति के गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार को प्राथमिकता दी गई है।
संविधान के अनुच्छेद 20(3) इसके तहत “किसी भी अपराध के आरोपी व्यक्ति को अपने खिलाफ गवाह बनने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।“
अर्थात्, इसका संरक्षण उसी व्यक्ति को मिल सकता है, जो किसी अपराध का अभियुक्त हो, ऐसे अभियुक्त पर स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य देने को बाध्य किया हो और अंतिम: साक्ष्य उसी अपराध के संबंध में मांगा गया हो जिस का उस पर आरोप हो।
इससे यह स्पष्ट होता है कि, किसी भी अभियुक्त को अपने ही विरुद्ध पुलिस और न्यायालय के समक्ष साक्षी देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। यह हर व्यक्ति या अपराधी को मिलने वाला एक मूल अधिकार है, जिसका राज्य या अन्य प्रशासनिक तंत्र के द्वारा उलंघन किया जाना स्वीकार्य नहीं है। यदि हम नार्को परीक्षण की मूल अंतर्वस्तु को समझे तो प्रतीत होता है कि इस व्यक्ति को इंजेक्ट कर के उससे स्वयं अपराध के संबंध में सब उगलवाया जाता है। साथ ही, यह व्यक्ति के निजी ज्ञान को उजागर करने के लिए बाध्य करता है इसलिए यह उसकी निजता का भी उलंघन करता है।
इसलिए इसकी वास्तविकता और वैधानिकता सदेव एक प्रश्नगत्त विषय बनी रही है। इसके उपरांत भी भारत में प्रतिबंधित नहीं होने के कारण इसका प्रयोग एक अभ्यास के तौर पर किया जाता रहा है। उदाहरण स्वरूप कुछ निर्णयों में माननीय सुप्रीम कोर्ट टेस्ट के पक्ष में मत दिया है, क्योंकि न्यायालय का मानना है कि यदि नवीनतम तकनीक से किसी अपराध के संबंध में कोई तथ्य की सूचना मिलती है तो उसे नकारना उचित नहीं होगा। हालांकि, भारतीय साक्ष्य अधिनियम,1872 में ऐसा कोई प्रावधान मौजूद नहीं है जो नार्को टेस्ट के विषय में चर्चा करता हो; तदुपरांत ऐसे तकनीकी परीक्षणों को विधिक प्रावधानों से दूर रखना उचित नहीं।
उदाहरण स्वरूप सुप्रीम कोर्ट ने में कुछ विशेष मामलों में नार्को टेस्ट की आज्ञा दी थी, जैसे- भारतीय वर्ष 2002 के गोधरा काण्ड में, 2003 के अब्दुल करीम तेलगी पेपर स्कैम में, और हैदराबाद तीन टावर बॉम्ब ब्लास्ट के मामले में नार्को टेस्ट की आज्ञा दी गई थी। वहीं, रोजो जॉर्ज बनाम पुलिस अधीक्षक के मामले में ने नार्को एनालिसिस टेस्ट की अनुमति देते हुए कोर्ट ने कहा है कि “वर्तमान समय में अपराधी अपराध करने के लिए बहुत परिष्कृत और आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल करने लगे हैं। इसलिए अपराधियों से पूछताछ और जांच का पारंपरिक तरीका समाधान के लिए सफल नहीं होगा और इसके लिए पॉलीग्राफ, ब्रेन मैपिंग और नार्को एनालिसिस जैसी कुछ नई तकनीकों का इस्तेमाल करने की जरूरत है।“
सेल्वी मुरुगेशान बनाम महाराष्ट्र राज्य, के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सिद्धांत निर्धारित किया कि आरोपी व्यक्ति की सहमति के बिना आरोपी व्यक्ति पर नार्को-एनालिसिस टेस्ट नहीं किया जा सकता है। इस मामले में अदालत के सामने सवाल था कि क्या आरोपी व्यक्ति का नार्को-एनालिसिस टेस्ट कराना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन होगा?
“कोर्ट ने कहा कि यह उस प्रश्न की प्रकृति पर निर्भर करेगा जो आरोपी से पूछा जाना है। क्या आरोपी द्वारा दी गई कोई भी जानकारी उसे अपराध में फसाने की प्रवृत्ति रखती है या निर्दोष साबित करने की। दंड विधि के तहत पुलिस अधिकारी को साक्ष्य एकत्रण की शक्ति है। इसी प्रकार अभियुक्त का नार्को एनालिसिस टेस्ट कराना भी सबूत इकट्ठा करने का हिस्सा है।“
नार्को टेस्ट का साक्षिक मूल्य-
नार्को टेस्ट को लेकर कई बार इसके साक्ष्य मूल्य के विषय में सवाल उठते रहते हैं। अब तक हुए नार्को टेस्ट के इतिहास को देखें तो यह जरूरी नहीं है कि हर टेस्ट में पुलिस या जांच एजेंसी को सफलता ही मिली हो। जैसे 26/11 मुंबई हमला और स्टांप घोटाले की जांच में नार्को टेस्ट ने सच उजागर करने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, लेकिन आरुषि मर्डर केस में इस परीक्षण से कामयाबी नहीं मिल सकी। टेस्ट में व्यक्ति से मिली जानकारी के आधार पर पुलिस या एजेंसी इन्वेस्टिगेशन करती है और इसके आधार पर ही सबूतों को जुटाया जाता है। इस टेस्ट के सक्सेस रेट को लेकर अक्सर विशेषज्ञों की अलग-अलग राय होती है।
कहना उचित होगा कि भारत में नार्को एनालिसिस रिपोर्ट न्यायालय में प्राथमिक साक्ष्य के तौर पर स्वीकार्य नहीं है। क्योंकि जिस प्रकार धारा 24, 25 और 26 साक्ष्य अधिनियम,1872 के अंतर्गत अभियुक्त व्यक्ति द्वारा दी संस्वीकृति (confession) विसंगत (irrelevant) है उसी प्रकार नार्को टेस्ट का भी कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि ऐसा बयान अभियुक्त द्वारा अर्ध-चेतन अवस्था में दिया जाते है और जो कि कोर्ट में स्वीकार्य नहीं है। हालांकि, कोर्ट चाहे तो तथ्यों और परिस्थितियों को मद्दे नज़र रखते हुए इसे सीमित स्वीकार्यता प्रदान कर सकता है।
जैसे कि, सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्यAIR 2010 SC 1974, (2010) 7 SCC 263, मामले में कहा,
“परीक्षण के दौरान अभियुक्त द्वारा दिये गए बयान को ‘इकबालिया बयान’ नहीं माना जा सकता है। परंतु अभियुक्त द्वारा दी जानकारी के अनुरूप किसी तथ्य का भौतिक वस्तु के विषय में इसे साक्ष्य में रूप में धारा 27, साक्षी अधिनियम के अन्तर्गत स्वीकार किया जा सका है।“
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ऐसी बयानों को धारा 27 में प्राप्त जानकारी के रूप में बरता जा सकता है। क्योंकि ऐसे बयानों से मिली जानकारियां मात्र संपोषक साक्ष्य होती है उन्हें प्राथमिक साक्ष्य के रूप में प्रयुक्त नहीं किया जा सकता है। परंतु आवश्यक है कि अभियुक्त ने ऐसे टेस्ट की स्वयं स्वीकृति दी हो। यदि ऐसे टेस्ट का परिणाम भय या धमकी से प्राप्त किया जाए तो मामले में उसका कोई उपयोग नहीं है।
निष्कर्ष : भारत के नेशनल इंस्टिटयूट ऑफ मेण्टल हेल्थ एण्ड न्यूरो साइंसेस के निदेशक के अध्यक्षता में बनी विशेषज्ञों की समिति ने विचार व्यक्त किया कि ये परीक्षण मानव उत्पीड़न युक्त हैं और उन्हें ऐसे जांच उपकरण के रूप में प्रयोग करने पर रोक भी लगानी चाहिए। परंतु हम यह भी मानते है कि कानून एक जीवित प्रक्रिया है, जो समाज, विज्ञान और नैतिकता आदि में परिवर्तन के अनुसार बदलती है। कानूनी प्रणाली को विज्ञान में होने वाले विकास और प्रगति को तब तक आत्मसात करना चाहिए जब तक कि वे मौलिक कानूनी सिद्धांतों का उल्लंघन न करें और समाज की भलाई के लिए हों। केंद्र सरकार को नार्को विश्लेषण पर एक स्पष्ट नीति बनानी चाहिए क्योंकि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और एक स्वच्छ आपराधिक न्याय प्रणाली के प्रति भारत की प्रतिबद्धता दांव पर है।