जानिए वाहन दुर्घटना होने पर भारतीय कानून के बारे में खास बातें
Shadab Salim
22 Jun 2020 8:45 AM IST
वाहन दुर्घटना अत्यंत विचलित कर देने वाली घटना होती है तथा ऐसी घटना किसी भी व्यक्ति के जीवन में भूचाल ला देती है। छोटी से छोटी वाहन दुर्घटना भी जीवन को हिला कर रख देती है।
कुछ आंकड़ों के मुताबिक भारत में प्रत्येक दिन 500 से अधिक वाहन दुर्घटनाएं होती है तथा इनमें अनेक लोग वाहन दुर्घटनाओं में जान तक गंवा देते है। इस लेख में वाहन दुर्घटना से संबंधित भारतीय कानून के ऊपर चर्चा की जा रही है।
वाहन दुर्घटनाओं के लिए तथा मोटर यातायात के लिए मोटर व्हीकल अधिनियम 1988 अधिनियमित है। यह एक केंद्रीय कानून है जिसे भारत की संसद द्वारा पारित किया गया है।
जब भी कोई वाहन दुर्घटना होती है तब सिविल के साथ कुछ अपराधी प्रकरण भी निकल कर आते हैं। यह अपराधिक प्रकरण भारतीय दंड सहिंता की कुछ धाराओं के अंतर्गत दर्ज किए जाते हैं वह प्रकरण निम्न हैं।
धारा 279
भारतीय दंड संहिता की धारा उतावलेपन से वाहन चलाने या हांकने पर लगती है। इस धारा में अपराध कोई भी वाहन दुर्घटना में दर्ज़ होता है।
यहां पर यह ज्ञातव्य है कि उतावलेपन या उपेक्षापूर्ण तरीके से वाहन चलाने या हांकने के मामले में आवश्यक नहीं है कि उसके परिणाम स्वरूप जीवन या संपत्ति को क्षति कारित हो, इसके लिए संभावना मात्र पर्याप्त है अर्थात इस दुर्घटना में किसी संपत्ति एवं जीवन को क्षति ही होना आवश्यक नहीं है। यदि वाहन को उतावलेपन से चलाया जा रहा है और उससे कोई क्षति नहीं होती है तो भी इस धारा में अपराध दर्ज किया जा सकता है। यह संज्ञेय धारा है, धारा में 6 माह तक का कारावास रखा गया है।
धारा 337
यह धारा कोई भी उतावलेपन से कार्य करने के कारण होने वाली क्षति पर प्रयोज्य की जाती है। यदि कोई व्यक्ति उतावलेपन से वाहन चलाता है और उसके ऐसे वाहन चलाने से किसी को कोई क्षति वहो जाती है, फेक्चर इत्यादि हो जाते है तो ऐसी परिस्थिति में यह धारा 337 के अंतर्गत मुकदमा दर्ज किया जाता है।
इस धारा के अंतर्गत 6 माह तक का कारावास दिया जा सकता है। धारा 279 एवं 337 में यह अंतर है कि धारा 279 किसी भी परिस्थिति में उतावलेपन से वाहन चलाने में लागू होती है परंतु धारा 337 केवल क्षति पहुंचने पर लागू होती है। संपत्ति या शरीर को क्षति होने पर ही धारा 337 का अपराध दर्ज किया जाता है।
धारा 338
भारतीय दंड संहिता की धारा 338 उतावलेपन के कारण होने वाली घोर उपहति के मामले में दर्ज की जाती है। इस धारा के अंदर जुर्माना और 2 वर्ष तक का कारावास दोनों हो सकता है। घोर उपहति के किसी भी मामले में धारा 338 का अपराध दर्ज किया जाता है परन्तु ऐसी घोर उपहति उतावलेपन के कारण होना चाहिए तब ही धारा 338 प्रयोज्य की जाती है।
धारा 304 क-
यह धारा उपेक्षा द्वारा मृत्यु कारित होने पर प्रयोज्य होती है। इस धारा में किसी व्यक्ति के उतावलेपन के कारण या उपेक्षा के कारण या कोई ऐसे काम के कारण जो उसने आशय से नहीं किया है परंतु उतावलापन उस कार्य में था और ऐसे कार्य से यदि मृत्यु हो जाती है तो यह धारा में अपराध दर्ज किया जाता है।
वाहन दुर्घटना में अधिकांश उन मामलों में जिन मामलों में गंभीर दुर्घटना होती है मृत्यु जैसी गंभीर घटनाएं भी हो जाती है। इस धारा का प्रयोग इस तरह के मामलों में किया जाता है।
इस प्रकार इस धारा के प्रावधान ऐसे मामलों में लागू होते है जहां मृत्यु बगैर आशय पूर्वक कारित की जाती है। ऐसा कोई कार्य किया जाता है जिसके बारे में ज्ञान रहता है कि उसने मृत्यु कारित होना संभव है।
स्पष्ट है कि इस धारा के अंतर्गत किया जाने वाला कार्य अपराधिक प्रकृति का नहीं होता है यदि ऐसा कार्य आरंभ से ही आपराधिक प्रवृति का होता तो या धारा प्रयोज्य नहीं होती है।
मोहम्मद अयान उद्दीन बनाम आंध्र प्रदेश के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि उतावलेपन से किए गए कार्य और जानबूझकर किए गए कार्य में अंतर है। दोनों एक दूसरे के विपरीत है फिर भी उतावलेपन में किया गया इस भाव में किया गया कार्य हो सकता है कि सावधानी और सतर्कता के बिना किया था।
इस धारा के अंतर्गत 2 वर्ष तक का कारावास भारतीय दंड संहिता में रखा गया है। यह एक संज्ञेय अपराध है परन्तु जमानतीय अपराध भी है।
वाहन दुर्घटना होने पर उत्पन्न होने वाले यह आपराधिक प्रकरण थे। मोटर व्हीकल एक्ट 1988 के अंतर्गत सिविल प्रकरण ऐसी वाहन दुर्घटना से होने वाली क्षति को के लिए प्रतिकार प्राप्ति की व्यवस्था करता है।
मोटर व्हीकल एक्ट की धारा 166 के अंतर्गत इस प्रकार के प्रतिकर के लिए दावा किया जाता है। सरला वर्मा बनाम दिल्ली ट्रांसपोर्ट के मामले में प्रतिकर के नियम तय किए गए है। दुर्घटना में होने वाली क्षति और डिसएबिलिटी के कुछ नियम है। इन नियमों के अंतर्गत व्यक्ति पूर्ण रूप से कार्य करने के लिए अयोग्य हो जाता है तो उसे जीवन भर तक का प्रतिकर दिलवाया जाता है, जितना वह अपने जीवन में कमा सकता था। प्रतिकार के नियम में आय को ध्यान में रखा जाता है।
प्रतिकार में आय, आयु, प्रतिकर प्राप्त कर करने वाले पर आश्रित लोगों की संख्या महत्वपूर्ण स्थान रखती है।प्रतिकर प्राप्त करने वाले जितने लोग आश्रित होते है उसके अनुसार ही प्रति कर दिया जाता है।
मोटर व्हीकल एक्ट के अंतर्गत किसी भी मोटरयान को चलाने के लिए वाहन बीमा होना आवश्यक होता है। बगैर बीमा के किसी भी मोटरयान को नहीं चलाया जा सकता यदि मोटरयान को चलाने वाले व्यक्ति से कोई उतावलेपन के कारण दुर्घटना होती है और मोटरयान का बीमा नहीं होता है तो ऐसी परिस्थिति में यान को चलाने वाला या यान के मालिक दोनों के प्रति प्रतिकर की जिम्मेदारी बनती है।
मोटरयान बीमित है ऐसी परिस्थिति में बीमा कंपनी द्वारा मोटरयान से होने वाले उतावलेपन के कारण हुई क्षति का प्रतिकर दिया जाता है।
प्रतिकर के लिए दावा कौन कर सकता है
मोटर व्हीकल एक्ट के अंतर्गत निम्न लोग प्रतिकर के लिए दावा कर सकते है।
1) वह व्यक्ति जिसे क्षति हुई है।
2) क्षति होने वाले व्यक्ति के वैध उत्तराधिकारी।
3) क्षति होने वाले व्यक्ति की ओर से कोई अभिकर्ता।
मोटर व्हीकल एक्ट के अंतर्गत कहां दावा किया जा सकता है-
वाहन दुर्घटना होने पर आपराधिक प्रकरण तो उस स्थान पर दर्ज़ होता है जहां दुर्घटना होती है, उस स्थान के थाना क्षेत्र द्वारा आपराधिक प्रकरण दर्ज किया जाता है। परंतु प्रतिकर का दावा मोटर व्हीकल एक्ट 1988 के अंतर्गत निम्न स्थानों पर दर्ज किया जा सकता है।
मोटर व्हीकल एक्ट के अंतर्गत मोटर व्हीकल के मामले सुनने के लिए हर जिले के अंतर्गत एक ट्रिब्यूनल का गठन किया जाता है। यह ट्रिब्यूनल जिला न्यायालय में या फिर राज्य सरकार द्वारा तय किए गए स्थान पर रखी जाती है।
1) जिस जिले के अंतर्गत घटना हुई है उस जिले की ट्रिब्यूनल में मोटर व्हीकल का दावा किया जा सकता है।
2) जिस स्थान पर व्यथित पक्षकार रहता है उस स्थान के जिले की ट्रिब्यूनल में मोटर व्हीकल एक्ट का दावा किया जा सकता है।
3) जिस स्थान पर आरोपी रहता है, जिसने दुर्घटना को अंजाम दिया है, उस स्थान पर भी मोटर व्हीकल एक्ट के अंतर्गत प्रतिकार का दावा किया जा सकता है।
परन्तु सामान्यतः प्रकरण वहीं उस ही जिले की ट्रिब्यूनल में दर्ज़ किया जाता है जहां व्यथित पक्षकार रहता है।
अवार्ड होने के परिणाम
यदि किसी ट्रिब्यूनल द्वारा मोटर व्हीकल एक्ट के अंतर्गत कोई प्रकरण दर्ज किया जाता है और अवार्ड कर दिया जाता है तो ऐसे अवार्ड को 1 माह के भीतर व्यथित पक्षकार को दिलवाया जाता है। अपील का स्थान उच्च न्यायालय को रखा गया है। किसी भी अवार्ड के खिलाफ व्यथित पक्षकार उच्च न्यायालय में अपील कर सकते हैं। यदि अपील नहीं की जाती है और अवार्ड दे दिया गया है तो ऐसी परिस्थिति में 1 माह के भीतर संदाय करना होता है यदि संदाय नहीं किया जाता है तो वसूली का प्रकरण दर्ज़ करवाए जाने का अधिकार अवार्ड प्राप्त करने वाले पक्षकार को प्राप्त हो जाता है।