मोहन जोशी हाज़िर हो : उम्मीदों और कोर्ट तारीखों के बीच एक आम आदमी की कहानी
सुरभि करवा
5 Feb 2020 2:16 PM IST
न्याय में देरी, न्याय से वंचित किये जाने के समान है (Justice delayed is justice denied)- यह बात हम सब शायद इतनी बार सुन चुके हैं कि अब इसे दोहराना निरर्थक, प्रभावहीन और बिलकुल रेगुलर सा लगता है. लेकिन इस उद्धरण से यह बात साफ़ होती है कि 'समय' और 'न्याय' का निश्चित तौर पर गहरा ताल्लुक है। अगर न्याय समय पर निश्चित नहीं किया जाये तो वह कहां तक न्याय है- यह सोचने का विषय है।
यह बात हममें से किसी के लिए नई नहीं है कि हमारा सिस्टम लंबित फाइलों और विलम्बित न्याय से संघर्ष कर रहा है। हालांकि नेशनल जुडिशल अकादमी 'speedy justice' की नहीं बल्कि 'timely justice' की बात करती है, फिर भी यह कहना गलत नहीं होगा कि फैसला होने में लगने वाले लम्बे वक़्तों ने हमारे न्याय सिस्टम की विश्वसनीयता पर सवाल उठाये हैं।
यहीं सईद अख्तर मिर्ज़ा की मोहन जोशी हाज़िर हो, एक कामयाब फिल्म है। 1984 में बनी यह क्लासिक फिल्म, मुख्यधारा के बॉलीवुड के 'तारीख पर तारीख' हंगामे से इतर न्याय में देरी के मुद्दे को एक गहरी और बारीक समझ के साथ पेश करती है। भीष्म साहनी (मोहन जोशी), नसीरुद्दीन शाह (मोहन जोशी के वकील), दीना पाठक (जोशी की पत्नी), दीप्ति नवल (जोशी की पुत्रवधु), अमजद खान (कुंदन कपाडिया, जमीन मालिक), रोहिणी हट्टंगड़ी (कपाड़िया की वकील)- फिल्म के मुख्य किरदार हैं।
मोहन जोशी मुंबई की एक चॉल में रहने वाले एक रिटायर्ड आदमी हैं। उनके लिए चॉल उनका घर है, जहां उनका सारा परिवार रहता है और इसलिए जोशी चाहते है कि ज़र्ज़र होती उस चॉल की मरम्मत करवाई जाए। इसके लिए वे रिपेयर डिपार्टमेंट से लेकर अपने मकान मालिक तक सबके चक्कर लगाते हैं लेकिन कुछ हाथ नहीं लगता।
अंतत: एक सहयोगी के प्रोत्साहन पर वे कोर्ट में केस करके का फैसला करते हैं। हालांकि बार-बार उनके मन में कोर्ट जाने के निर्णय को लेकर शंकाएं पैदा होती रहती हैं। कोर्ट लिटिगेशन में वही होता है जिसका भय था। सालों तक मामला चलता रहता है, केस पर केस फाइल होता जाता है। एफआईआर, क्रॉस एफआईआर दर्ज़ हो जाती है पर मामले में फैसला नहीं आता।
अंतत: मोहन जोशी जर्जर चॉल के मलबे में खुद को धकेल देते हैं ताकि यह साबित हो सके कि उनकी चॉल और हमारे सिस्टम-दोनों को ही मरम्मत की ज़रूरत है।
उम्मीदों और विलंबित न्याय के बीच
मोहन जोशी अपने केस की शुरुआत भारतीय न्याय व्यवस्था में एक गहरी उम्मीद के साथ करते हैं कि 'जज साहब' यह सुनिश्चित करेंगे कि उनके घर की जल्द ही मरम्मत हो। पर पहले ही दिन वो कुछ हताश सा महसूस करते हैं जब कोर्ट मामला तीन महीने आगे की तारिख को मुल्तवी कर देता है और तब से पूरी लिटिगेशन उनके लिए थोड़ी-बहुत उम्मीदी और ढेर सारी हताशा की यात्रा बन जाती है।
जोशी कोर्ट के रस्मों-रिवाजों से अनभिज्ञ सिस्टम में उलझे रहते और इधर केस पर केस दायर होते रहते हैं, उन पर एफआईआर भी हो जाती है और घर से बेदखल करने के लिए केस भी। केस लॉ पर केस लॉ, सेक्शन पर सेक्शन बहस का मुद्दा बनते हैं लेकिन मामला कभी एक महीने, तो कभी तीन महीने और छः महीने मुल्तवी होता रहता है।
दूसरी तरफ जीवन समानांतर रूप से चलता रहता है, जोशी की पौत्री पैदा होती है, वह तीन साल की हो जाती है, स्कूल जाने लगती है, कॉलेज जा रहा उनका एक बेटा, ग्रेजुएट हो जाता है, नौकरी करने लगता है दूसरी तरफ वकील भी आगे बढ़ने लगते हैं, शादी करते हैं, बड़े और बेहतर चैम्बर में तरक्की करते हैं, पर मामला चलता रहता है।
कभी कोर्ट नियमों से अनभिज्ञ जोशी अब स्वयं अपने पक्ष में केस लॉ खोजने पढ़ने लगते हैं। एक बार अंतिम फैसला सुनाने की तारिख भी दी जाती है, पर उससे पहले ही जज की ट्रांसफर हो जाता है और पूरा मामला फिर वापस सुना जाता है।
"वक़्त चाहे जितना लगे, ज़रूरी यह है कि इन्साफ होना चाहिए" कभी कभार इस आशावाद के बीच अधिकांशत: जोशी और उनकी पत्नी एक थकान और बेबसी महसूस करते हैं. "मैं थक गयी हूं... अब तो किसी तरह छुटकारा मिल जाये कोर्ट से" - उन्हें यह कहते हुए सुना जा सकता है। फिल्म में एक गाना (हाय रे मुक़दमा! कोर्ट में जब से चले तब से गड़बड़ घोटला) भी इस बात के लिए शामिल किया गया है।
कॉम्प्लेक्स और बहुआयामी टेनेंसी लिटिगेशन
किरायेदारी/ काश्तकारी से जुड़े विवाद बेहद कॉम्प्लेक्स और बहुआयामी होते हैं। फिल्म में किरायेदार और मकान मालिक की बीच साफ़ तौर पर एक वर्ग संघर्ष दिखाई देता है। चॉल के लोग संगठित नहीं हैं, इसलिए मोहन जोशी चॉल की मरम्मत के लिए एक एकाकी लड़ाई लड़ते हैं। अपने परिवार वालों की सुरक्षा के लिए धमकी, कई तरह की एफआईआर और बेदखल किये जाने के लिए एक केस - यह सब उन्हें झेलना पड़ता है।
कुंदन कपाड़िया का सिर्फ एक मकसद है कि कैसे पूरे केस को टालते रहा जा सके और मोहन जोशी का उदहारण बनाकर सबको सबक सिखाया जा सके। उसका मुख्य मकसद चॉल वालों को चॉल से निकाल कर रियल एस्टेट सेक्टर में और अधिक प्रॉफिट कमाना है।
यह फिल्म 1984 में बनी थी, जब कोर्ट को भी 'प्रो-टेनेंट' माना जाता था। तब से बहुत कुछ बदला है। 1991 में भारतीय अर्थव्यवथा उदारीकरण के दौर में उतरी, रियल एस्टेट सेक्टर में प्रॉफिट और कानून दोनों ही बदले, 2008 में आर्थिक संकट का दौर आया। आज रेंट कन्ट्रोल कानूनों को अपडेट करने की मांग हो रही है, कोर्ट भी बदले हैं. फिर भी यह फिल्म एक ज़रूरी फिल्म है। किराएदारी सम्बंधित लिटिगेशन की सामाजिक, आर्थिक पृष्ठभूमि को समझने के लिए यह फिल्म उचित साधन है।
न्याय के लिए एक महंगी लड़ाई?
हमारी व्यवस्था में न्याय पाना एक महंगी प्रक्रिया है। कोर्ट फीस, वकीलों की फीस के अलावा और भी कई तरह के खर्च हैं जो इस पूरी प्रक्रिया में उठाने पड़ते हैं। कोर्ट आने की वजह से सैलरी/ दिहाड़ी का नुक्सान, कोर्ट तक पहुंचने का खर्चा आदि- सारे खर्चे मिला कर न्याय की अकेली, थकान भरी राह को और मुश्किल बना देते हैं।
फिल्म में पहले तो लिटिगेशन का खर्च मोहन जोशी की बचत से चलता है पर जल्द उनकी पत्नी (दीना पाठक) अपने सोने का कंगन बेचती है, ताकि ये सारा खर्चा उठाये जा सके। आगे चलकर मोहन जोशी की पुत्र वधु (दीप्ति नवल) भी अपने सोने का कंगन बेच देती है।
पीढ़ी दर पीढ़ी न्याय के लिए एक महंगी लड़ाई चलती है। फिल्म अपील लेवल तक कहानी नहीं दिखाती, पर शोध में यह बात सामने आयी है कि एक बार मामला अपील तक पहुंचने पर खर्च और भी अधिक बढ़ जाता है।
मेरा मानना है कि यह फिल्म हम वकीलों और कानून के छात्रों को दो कारणों के लिए देखनी चाहिए, पहला, ताकि हम पूरी न्याय प्रक्रिया का वादियों पर आर्थिक और मानसिक प्रभाव समझ सकें।
हमारे लिए आगे की तारीख लेना एक संस्थागत और सामान्य प्रैक्टिस बन चुकी है, लेकिन हर एक का एक आम नागरिक पर क्या प्रभाव पड़ता है, यह फिल्म उसका संवेदनशील चित्रण है। दूसरा, यह फिल्म हमें यह समझने में सहयोग करती है कि हमने कैसे इस दुःव्यवस्था में भागीदारी निभाई है। एक वकील होने के नाते यह फिल्म हमे अपने आपके भीतर झांकने की प्रेरणा देती है।