मीडिया ट्रायल और उसके दुष्परिणाम

Lakshita Rajpurohit

8 Aug 2022 1:38 PM GMT

  • मीडिया ट्रायल और उसके दुष्परिणाम

    "The problem with the electronic media is all about TRPs, leading to more and more sensationalism, damage reputation of people and masquerade as form of right." -The Supreme Court Of India

    किसी ने सच ही कहा है की जैसे-जैसे सभ्यताओं का विकास होता है, उसी के अनुसार सामाजिक व्यवस्था चलती है और साथ ही लोगों की सोच और जीवन शैली का तरीका भी बदलता है। आज यही कारण है कि पहले कभी ताजा खबरें हम अखबारों में ढूंढा करते थे और आज, हम कई उपकरणों द्वारा उसे लाइव देख सकते हैं। यही परिवर्तन हमारे सामाजिक परिवेश में मीडिया संस्कृति को लाया हैं, परंतु मीडिया है क्या? मीडिया से तात्पर्य है कि विभिन्न प्रकार के समाचार टेलीविजन चैनल, ब्लॉग्स, वेबसाइट, और कुछ मीडिया स्पेसिफिक सेगमेंट्स इत्यादि जो किसी मामले के तथ्यों की विशेष व्याख्या करते हैं और उन्हें आम जनता के सामने पेश करते हैं, मीडिया कहलाते हैं।

    सामान्य रूप से मीडिया को प्रिंट मीडिया। (अखबार, दैनिक पुस्तक या मैग्ज़ीन) और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया/ टेलीविज़न मीडिया। (टीवी पर प्रसारित समाचार) के रूप में विभाजित किया जाता है।

    वर्तमान में सामाजिक जीवन शैली को देखते हुए कहना उचित होगा कि अब सोशल मीडिया का भी जनसाधारण में काफी प्रभाव है। अब फेसबुक, ट्वीटर, इंस्टाग्राम, टेलीग्राम और यूट्यूब इत्यादि सब से ज्यादा प्रचलित और उपयोग किए जाने वाले सोशल मीडिया साधन बन गए हैं। अवश्य ही मनुष्य ने भौतिक सुख सुविधाओं के साथ विज्ञान में भी तरक्की की हैं परंतु वह इसके परिणाम से अनभिज्ञ हैं।

    साधारण नियम (General Rule)-

    संवैधानिक दृष्टि से बात करें तो हमारे देश में प्रेस तथा मीडिया को कार्य पालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बाद संविधान का चौथा स्तंभ माना जाता है।

    ऐसा अभिव्यक्त रूप से कही वर्णित नहीं परंतु विभिन्न न्यायिक निर्णयों में इसे पुष्ट किया गया है। माननीय सुप्रीम कोर्ट के अनुसार:

    "भारत के सभी नागरिकों को भारतीय संविधान के अनुसार किसी बात का विचार करने, भाषण देने और अपने व अन्य व्यक्तियों के विचारों के प्रचार की स्वतंत्रता प्राप्त है। प्रेस भी विचारों के प्रचार का एक साधन होने के कारण इसी में प्रेस की स्वतंत्रता भी सम्मिलित है। नागरिकों को विचार और अभिव्यक्ति की यह स्वतंत्रता असीमित रूप से प्राप्त नहीं है, बल्कि इसका भी अधिकार क्षेत्र सीमित है, कोई व्यक्ति केवल तब तक ही स्वतन्त्र है, जब तक उसके क्रियाकलाप से किसी अन्य व्यक्ति के मौलिक अधिकारों या उसकी स्वतंत्रता का हनन नहीं हो रहा है।"

    एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया 1959 ScR,12 मामले में सुप्रीम कोर्ट ने प्रेस की स्वतंत्रता के विषय में विस्तार से व्याख्या की और अनुछेद 19(1)(a) की उपयोगिता को समाज में बताते हुए निर्णित किया कि "भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' भाग 3 में आने के कारण यह एक मौलिक अधिकार हैं और यह नागरिकों को उनकी बात एक सामाजिक पटल पर रखने की गारंटी देता है। लेकिन इसे मनमाने पूर्ण तरीके से उपयोग नहीं किया जा सकता है और अनुच्छेद 19(2) में वर्णित उचित प्रतिबंधों के अधीन रखा गया है।

    ऐसे भाषण और अभिव्यक्ति की शक्ति निम्नलिखित दशाओं में प्रदान नहीं की जा सकती है जैसे-

    • विधि के संचालन को प्रभावित नहीं करेगा, या राज्य को कोई कानून बनाने से नहीं रोकेगा, जहां तक कि ऐसा कानून द्वारा प्रदत्त अधिकार के प्रयोग पर उचित प्रतिबंध लगाता है।

    • भारत की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता के हित में या अदालत की अवमानना, मानहानि या अपराध के लिए उकसाने के संबंध में खंड(1)(a) लागू नहीं होगा।

    उपरोक्त परिस्थितियों में कोई व्यक्ति अनु.19(a) में दिए अधिकार को न्यायालय द्वारा प्रवर्तित (enforce) नहीं करवा पाएगा, यही साधारण नियम है और इसका मूल उद्देश विधि के शासन में मनमानेपन को रोकना हैं।

    मीडिया ट्रायल की संकल्पना ( Concept Of Media trial)

    मीडिया ट्रायल इन दिनों एक ज्वलनशील मुद्दा बना हुआ हैं तथा कानून में इसकी कोई विशेष परिभाषा भी नहीं हैं पर जब भी कोई संवेदनशील मामला न्यायालय में विचारण के लिए आता है तो लोगों के बीच उत्सुकता में अपेक्षित उछाल आता है। हमेशा सनसनीखेज समाचारों की प्रतीक्षा में, समाचार पत्रों, टेलीविजन चैनलों, समाचार वेबसाइटों आदि सहित मीडिया तथ्यों की अपनी व्याख्या प्रकाशित करना शुरू कर देता है।

    इसे खोजी पत्रकारिता (Investigative journalism) कहा जाता है और यह भारत में प्रतिबंधित नहीं है। जब अदालत द्वारा अपना फैसला सुनाए जाने से पहले ही अखबारों और टेलीविजन के माध्यम से मीडिया कवरेज द्वारा व्यक्ति की निर्दोषता या अपराध के अभियुक्त होने की धारणा को जनता के सामने पेश किया जाता है तब वह "मीडिया परीक्षण" या "मीडिया ट्रायल" कहलाता हैं, जो कि न्यायालय द्वारा किए जाने वाले विचारण से बिल्कुल अलग है और निर्धारण का आधार मेरिट पर नहीं हो कर विशेष मीडियाकर्मियों द्वारा TRP (television rating points) के आधार पर किया जाता है।

    मीडिया ट्रायल की संकल्पना (Concept) सब से पहली बार "ट्रायल बाय टेलीविजन" नामक शो द्वारा सन 1967 द्वार लाई गई थी। जिसमें जनता के लिए एक विशेष मामले का चुनाव कर के अपना निर्णय दर्शकों के लिए ब्रॉडकास्ट किया जाता था। "मीडिया ट्रायल" 20वीं सदी के अंत और 21वीं सदी की शुरुआत में न्यायालय के फैसले से पहले ही या बाद में जुल्म या बेगुनाही की व्यापक धारणा बनाकर किसी व्यक्ति प्रतिष्ठा को धूमिल करने के लिए टेलीविजन और समाचार पत्रों के माध्यम से कवरेज प्रदान करने में लोकप्रिय रहा हैं।

    आज की स्थिति

    वर्तमान में हमारे देश में कई मामले तो ऐसे है जिन्हें मीडिया चैनल्स अनावश्यक की कवरेज देते हैं और कुछ मामले ऐसे भी है जो पहले ही "मैटर इन सब्जुडिस" है यानी ऐसे मामले जिनकी सुनवाई विधि द्वारा स्थापित कोई न्यायालय कर रहा है। ऐसे ही मामलों में अपना बयान देना, पूरा दिन अलग अलग शोज चलाना या कुछ अन्य जानकर स्कॉलर्स को बुला के डिबेट करवाना या फैक्ट चेकर्स वाले पॉडकास्ट चलाना और अपना निर्णय जनता को बता देना, यही सब प्रचलन में हैं।

    साथ ही अब सोशल मीडिया पर भी विडियोज और लेख अपलोड और पोस्ट किए जाते है जिससे दर्शकों को ज्यादा से ज्यादा आकर्षित किया जाय और व्यूज बढ़ाए जा सके। व्यूअर्स और सोशलमीडिया यूजर्स वही पर निश्चित करके अपना निर्णय दे देते है कि वे किस पक्ष के साथ है। उसी को पैमाना बना के मीडिया अपना एजेंडा चलाना शुरू करती है। ऐसी सूचना प्रसारित करती है जो लोग देखना चाहते है न की वो जो सत्य है। यदि इस प्रकार से मीडिया वाले स्वयं ही न्यायाधीश का कार्य करने लगेंगे तो देश की अदालत क्या करेगी?

    क्या सत्य की महिमा इस बात से कम हो जाती है कि उसे कहने वाला कोई एक ही है? जैसे वाक्यांशों (verbatim) का दुरुपयोग कर के मीडिया द्वारा जनता की बात को उच्चाधिकारियों तक पहुंचा तो देती है पर साथ में अपना एकपक्षीय निर्णय भी स्वयं ही देती हैं। लेकिन जब मीडिया अपने ही निहित हितों (vested interests) के लिये ऐसे हथकंड़े अपनाने लग जाए तब परिस्थिति अवश्य ही गंभीर हो सकती हैं।

    भारत में जनसंख्या अधिक होने के कारण कई सोशल मीडिया प्लेटफार्म उपलब्ध है जैसे ट्वीटर, व्हाट्सएप, फेसबुक और यूट्यूब स्नैपचैट या इंस्टाग्राम इत्यादि को काफी अधिक मात्रा में देखा और सुना जाता हैं क्योंकि यहां के यूजर्स और दर्शकों की संख्या भी कई देशों से अधिक है। इसी का फायदा उठाते हुए सब अपनी टीआरपी बढ़ाने में लगे रहते है।

    भारत में हमने कई मामलों में मीडिया ट्रायल देखा है, जहां भारतीय न्यायपालिका के फैसले से पहले, मीडिया चैनल एक आरोपी को इस तरह से फंसाते हैं कि आम जनता उसे इस तरह के अपराध का दोषी मानती है, जैसे –

    • शीना बोहरा हत्याकांड में प्रिंट मीडिया ने ऐसे कई भ्रामक लेख लिखे और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने मुख्य अभियुक्त और उसके व्यक्तिगत संबंधों को इस प्रकार से न्यूज में उछाला की उसका प्रभाव न्यायपालिका और कार्यपालिका पर तक पड़ने लगा। जिसमें चाहे शीना बोहरा के शव मिलने के स्थान का अन्वेषण करना हो या मीडिया द्वारा मामले के दस्तावेजों को जग जाहिर करना हो, शामिल था।

    • सुनंदा पुष्कर के मृत्यु के मामले में मीडिया द्वारा उसे रोज एक दिनचर्या के रूप में न्यूज पटल पर सुर्खियां ने दिखाया जाता था और कई सारे कयास और राय बनाई जाती थी। और यह सब यही नहीं रुका मीडिया द्वारा विशेष ग्राफिक्स का इस्तेमाल कर के पीड़ित की मौत का चित्रण किया जाता था। भ्रामक और उत्सुक हेडलाइंस दिखा कर दर्शकों का ध्यान आकर्षित किया जाता था।

    • सुशांत सिंह आकस्मिक मौत के कारण मीडिया द्वारा कई दिनों तक अलग अलग "conspiracy theories" चलाई गई, फिर मौत को आत्मा हत्या का नाम दिया गया। फिर इसे हत्या के रूप में दर्शाया और दावे किए गए की मीडिया सबूत और साक्षियों की जानकारी रखता है वो उसे अमुक दिन या अमुक समय पर प्रसारित करेगा, उसके कुछ दिनों बाद उसी मामले में ड्रग्स/नशीले पदार्थ के सेवन का एंगल जोड़ कुछ महीनों और चला गया। एक विशिष्ट प्रकार का प्रभाव बना के न्यूज को इस प्रकार से दर्शाया गया की न्यायपालिका और प्रशासन कमजोर है और मीडिया इनका काम स्वयं कर रहा परंतु जब न्यायिक अंवेषण हुआ तब सीबीआई ने सारी कथाओं को दरकिनार करते हुए ऐसी किसी घटना का समर्थन किया।

    • संजय दत्त के मामले में मीडिया ने 2 तथा के किरदार निभाए एक वो जो संजय दत्त का समर्थन करता था और एक वो जो उसे अपराधी मानता था। दोनो प्रकार के मीडिया ने मामले को इतना उछाला जिससे जनता को लगने लगा कि दत्त अपराधी है या निर्दोष। इसीकरण कई दर्शक न्यायालय के इस निर्णय को मानने के पक्ष में नहीं हैं, क्योंकि मामला ऐसे दिखाया जाता है कि देश के कानून में कमी नजर आती हैं और मीडिया सही लगता है।

    • "दिल्ली का दरिंका" मामले में पीड़ित व्यक्ति( सर्वजीत सिंह) को इस प्रकार से अपराधी बताया गया था की मीडिया वालों ने उसके पीछे हाथ धो के पड़ने की मुहिम ही छेड़ दी थी। परंतु न्यायालय के फ़ैसले ने सब बदल दिया और उसे निर्दोष घोषित किया गया।

    • उपरोक्त के अलावा भी कई ऐसे मामले रहे है, जैसे- निर्भया केस, प्रियदर्शनी मट्टू केस,आरुषि हेमराज हत्या कांड, आर्यन खान ड्रग्स केस, श्रीदेवी की मृत्यु का मामला, जेसिका लाल हत्याकांड इत्यादि।

    न्यायपालिका का रूख

    हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिम्मेदार नागरिकों के रूप में हमारा अभी भी कर्तव्य है कि हम 'मीडिया परीक्षण', 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता', 'निष्पक्ष परीक्षण का अधिकार' आदि जैसे वाक्यांशों को समझने का प्रयास करें।

    इसी के लिए सुप्रीम कोर्ट में मनु शर्मा vs NCT दिल्ली,2010 (6)SCC 1, रिलायंस पेट्रोकेमिकल्स लिमिटेड बनाम इंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स, बॉम्बे (पी) लिमिटेड ; (1988) 4 Scc 592 जैसे मामलों में माना कि मीडिया ट्रायल से न्यायपालिका प्रभावित होती हैं इसीलिए इन मामलों में कुछ मार्गदर्शक बिंदुओं को निर्धारित किया गया, जैसे-

    1. "मीडिया ट्रायल" के खतरों को और रेखांकित करते हुए कहा कि यदि मीडिया बिना किसी मानक(Standard) के समानांतर(parallel) अप्रतिबंधित और अनियमित तरीके से अपनी ट्रायल करेगा, अभियुक्त के संबंध में पूर्वाग्रह होने का एक गंभीर जोखिम मौजूद रहेगा। इसके अलावा किसी सक्षम न्यायालय द्वारा बिना किसी निश्चित स्पष्टीकरण के किसी भी आरोपी की लगातार जांच करना उसके के अधिकारों के खिलाफ भी है। आपराधिक न्यायशास्त्र के मूल सिद्धांतों में से एक निर्दोषता की उपधारणा का नियम भी है। "ei incumbit probatio qui dicit non qui negat" - सबूत का भार उस पर है जो कहता अपराध हुआ हैं, न कि इनकार करने वाले पर, हालांकि, मामलों की वर्तमान स्थिति के साथ अब ऐसा नहीं लगता।

    2. निर्दोषिता की उपधारणा के पहलू पर, सुप्रीम कोर्ट ने अनुकूल चंद्र प्रधान बनाम भारत संघ (1996) 6 एससीसी 354 मामले का उल्लेख करते हुए बताया कि उपधारणा कानूनी प्रकृति की है। मीडिया परीक्षण की प्रक्रिया के माध्यम से इसे कोर्ट में आने से पहले ही नष्ट नहीं किया जाना चाहिए, खासकर जब मामले में एक जांच लंबित है। आपराधिक न्याय प्रणाली का इस तरह का उल्लंघन कानून के शासन का अपमान होगा और संविधान के अनुच्छेद 21(राइट टू फेयर ट्रायल) के तहत अभियुक्त को दिए अधिकार पर भी असर पड़ेगा। यह भी देखा गया कि अदालतों की गरिमा को बनाए रखने के लिए ऐसी धारणा का संरक्षण आवश्यक है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 129 और अनुच्छेद 215 और न्यायालयों की अवमानना अधिनियम, 1971 ऐसे प्रावधान शामिल हैं जिनका उद्देश्य इस अधिकार की रक्षा करना है। और यह एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक देश में कानून के शासन के प्रमुख सिद्धांतों में से एक है। मीडिया को न्यायाधीन (under judicial process) मामलों में रिपोर्टिंग को जांच और संतुलन के अधीन किया जाना चाहिए ताकि न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप न हो।

    3. मनु शर्मा मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के महत्व को मान्यता दी। परंतु मीडिया को यह भी निर्देश दिया गया कि इसे सुनिश्चित करना चाहिए कि मीडिया द्वारा ट्रायल निष्पक्ष जांच में बाधा नहीं बनना चाहिए और ना ही किसी भी तरह से अभियुक्त के बचाव के अधिकार( Right To Defence) को प्रभावित करना चाहिए। यदि ऐसा ही चलता रहा तो न्याय एक मजाक बन जायेगा। जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया है, मीडिया की भूमिका ऐतिहासिक रूप से और आज भी अधिक महत्वपूर्ण है। हालांकि, दुनिया भर में एक डिजिटल विस्फोट और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों तक पहुंच के साथ समाचार के भूखे दर्शकों के लिए न्यूज एक खानपान के रूप में परोसा आसान होता जा रहा है, परंतु ऐसा मात्र TRP बढ़ाने के साधन के रूप में नहीं किया जाना चाहिए। यह दर्शकों के मन में पत्रकारिता के प्रति उसकी अखंडता को गंभीर आघात पहुंचाने जैसा है। हालाँकि यह मीडिया का काम है कि वह इस अस्वस्थता का स्वयं उपचारात्मक करे। मीडिया को किसी भी तरह की बेड़ियां में भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र में नहीं बांधा जा सकता है।

    इसी तरह के विचार सुप्रीम कोर्ट द्वारा आर के आनंद बनाम दिल्ली उच्च न्यायालय ; (2009) 8 SCC,106 और एमपी लोहिया बनाम पश्चिम बंगाल राज्य; (2005) 2 SCC 686 : दोहराया कि मीडिया और न्यायपालिका अलग-अलग क्षेत्रों में रहने वाली संस्थाएं हैं और उनके कार्य ओवरलैप नहीं होते हैं। एक अपने कार्यों के निर्वहन के लिए दूसरे का उपयोग नहीं कर सकता है और न ही करना चाहिए। यह देखा गया कि मीडिया को केवल पत्रकारिता के कृत्यों में संलग्न होना चाहिए और अदालत के लिए एक विशेष एजेंसी के रूप में कार्य नहीं करना चाहिए। ऐसे मीडिया कवरेज की पूर्वाग्रही प्रकृति को रोकने हेतु न्याय प्रशासन हस्तक्षेप करने की भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी प्रतिबंध लगाया जा सकता है

    इलाहाबाद हाई कोर्ट ने हाल ही में लखमीपुर खेड़ी मामले में अपनी तीखी टिप्पणी देते हुए कहा,

    "मीडिया प्लेटफार्म हाई प्रोफाइल मामलों में झूठी या आधी सूचना देकर प्रसारित डिबेट शोज के जरिए अपना एजेंडा चलता रहता है तथा अदालत इस बिंदु को भी देखते हुए कहा कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया न्यायपालिका से 2 कदम आगे रहती है और खुद ही सारा अन्वेषण कर लेती हैं और ऐसा करना न्यायपालिका की शक्ति पर एक प्रहार है, यह मात्र और मात्र एक कंगारू कोर्ट चलाता हैं।"

    "...... प्रेस की जिम्मेदारी एक व्यक्ति की जिम्मेदारी से अधिक है क्योंकि प्रेस के पास एक बड़ा दर्शक वर्ग है। प्रेस की स्वतंत्रता व्यक्तियों पर हमला करने और न्याय का दरवाजा बंद करने के लाइसेंस में नहीं बदलनी चाहिए और न ही इसमें सम्मानित व्यक्तियों की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने के लिए कोई भी अप्रतिबंधित स्वतंत्रता शामिल है ..."

    परिणाम और प्रभाव :

    1. जस्टिस दीपक गुप्ता ने अपने साक्षात्कार में कहा कि, आंकड़ों से सामने आया गया है की कई मजिस्ट्रेट जनता की राय(Public Opinion) के भय से मामलों में ज़मानत देना बंद कर दिया है। जबकि अदालत में आदेश या फैसला मामले के तथ्यों के आधार पर दिया जाता है। जिसका उत्तम उदाहरण मोहम्मद जुबैर केस, आशीष मिश्रा वाला मामला और आर्यन खान केस हैं।

    2. जस्टिस पारदीवाला और जस्टिस सूर्यकांत ने पिछले महीने 2 हाई प्रोफाइल मामलों में फैसला दिया, पहला महाराष्ट्र विधानसभा को लेकर और दूसरा नुपुर शर्मा को ले कर।

    दोनो ही मामलों में उनके फैसलों पर अलग अलग वर्गो के लोगो द्वारा उनपर व्यक्तिगत रूप से प्रहार किया गया और आलोचना करते हुए फ़ैसला वापस लेने की मांग की।

    3. ऐसे समाचार और प्रसारण न्यायधीशों को फैसले से पहले पूर्वाग्रह से ग्रस्त कर सकते है। जिससे पीठासीन व्यक्ति अपना फैसला ही बदल सकता हैं जनता के दबाव में आ कर। और यदि ऐसा सच में होता है तो यह न्याय का गला घोटने जैसा होगा।

    4. जिस व्यक्ति के विरुद्ध मीडिया ट्रायल किया जा रहा उसकी छवि समाज में धूमिल हो जाती है। उसे हर स्तर पर हर व्यक्ति से मानहानि सहनी पड़ती है। इसके लिए रिया चक्रवर्ती वाला मामला इसका श्रेयस्कर उदाहरण होगा।

    5. मीडिया वालों के चैनल्स की TRP बढ़ती रहती हैं और कोई कठोर कदम उनके विरुद्ध नहीं उठाया जाता है। जबकि मीडिया ट्रायल को न्यायिक अवमानना की श्रेणी में रखा गया है।

    6. समाचार प्रसारण से लाभ प्राप्त करने वाले को मुफ्त में प्रसिद्धि मिल जाती है और लोग उसको अनुसरण भी करने लगते है। जैसे की दिल्ली का दरिंदा नामक मामले में झूठी शिकायतकर्ता को काफी प्रसिद्धि मिली थी।

    विधि आयोग 200वीं रिपोर्ट

    अगस्त, 2006 में ऐसे ही अवसरों को भविष्य में आने से रोक के लिए न्यायमूर्ति एम. जगन्नाथ राव की अध्यक्षता में इस रिपोर्ट में निम्नलिखित सिफारिशें की गई थीं:

    • ऐसी किसी भी चीज़ के प्रकाशन पर रोक लगाना जो आरोपित होने पर प्रतिष्ठा के प्रतिकूल हो- एक प्रतिबंध जो गिरफ्तारी की खान से होगा।

    • एक आपराधिक मामले का प्रारंभिक बिंदु आरोप पत्र दाखिल करने से नहीं बल्कि आरोपी की गिरफ्तारी के समय से होना चाहिए। इस तरह के संशोधन के पीछे धारणा यह है कि इससे मामले में पूर्वाग्रह या पूर्वाग्रह से बचा जा सकेगा।

    • सनसनीखेज समाचार रिपोर्टों के न्याय प्रशासन पर हानिकारक प्रभाव को संबोधित करने के लिए।

    • उच्च न्यायालय को आपराधिक मामलों में प्रसारण या प्रकाशन को स्थगित करने का निर्देश देने और मीडिया को ऐसे प्रसारण या प्रकाशन को बहाल करने से रोकने का अधिकार है।

    निष्कर्ष

    कानून प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया मीडिया द्वारा निर्देशित है कि मीडिया पीड़ित, आरोपी, गवाहों के समानांतर अनुचित प्रचार न करे और ऐसी किसी भी जानकारी का खुलासा न करे जो गोपनीय हो जिससे जांच की प्रक्रिया में बाधा या पूर्वाग्रह हो। यह भी आवश्यक है कि मीडिया किसी गवाह की पहचान न करे क्योंकि तब उनके मुकरने की संभावना बढ़ जाती है और मुख्य रूप से मीडिया को मामले का कोई समानांतर परीक्षण नहीं चलाना चाहिए जो न्यायाधीश या मामले पर निर्णय लेने वाली जूरी पर अनुचित दबाव डालता है।

    देश का नागरिक होने के नाते, हमें देश के अन्य हिस्सों में होने वाले विभिन्न मुद्दों और घटनाओं के बारे में सूचित करने का अधिकार है और यह जिम्मेदारी मीडिया के साथ है और संविधान द्वारा अच्छी तरह से उचित है। हालाँकि, जहाँ यह अपने दर्शकों या पाठकों के मन में पूर्वाग्रह पैदा करने की हद तक पहुँच जाता है, वहाँ यह अनुचित हो जाता है।

    मीडिया ट्रायल इस हद तक पूर्वाग्रह पैदा करता है कि एक बरी व्यक्ति को अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए एक और हद तक जाना पड़ता है क्योंकि इन चैनलों और न्यूज पेपर्स द्वारा निर्धारित 'उचित संदेह' इतना अधिक है, कि इससे परे बेगुनाही साबित करना एक मुश्किल काम बन जाता है।

    अतः यह कहा जा सकता है कि यदि देश की मीडिया पर लोकतंत्र की जिम्मेदारी अधिरोपित है तो ये उनका कर्तव्य है कि वे उस कार्य को जिम्मेदारी से करें।

    नोट: आलेख के संबंध में लेखक के विचार व्यक्तिगत हैं और मात्र तथ्यों पर आधारित हैं।

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