मुस्लिम विवाह और उसके लिए आवश्यक शर्तें, वे कौन सी परिस्थितियां हैं, जिनमें मुस्लिम विवाह नहीं हो सकता
Shadab Salim
27 May 2020 9:41 AM IST
विवाह हर समाज धर्म इत्यादि की आवश्यकता है। मुस्लिम विधि में भी विवाह जिसे निकाह कहा गया है, इसकी अवधारणा रखी गयी है। दांपत्य जीवन जीने के लिए विवाह की अनिवार्यता पर प्रत्येक समाज और व्यवस्था पर बल दिया गया है। इसी प्रकार से मुस्लिम विधि में भी विवाह पर बल दिया गया है।
'पैगंबर साहब ने हदीस में बताया है कि विवाह निकाह आधा ईमान होता है। कोई भी मोमिन तब तक मुकम्मल नहीं होता जब तक वह निकाह नहीं करता।'
अनेक मुस्लिम विधिवेत्ताओं ने और भारत के न्यायालय ने विवाह (निक़ाह) की परिभाषाओं को पेश किया है तथा समय-समय पर मुस्लिम विवाह में निकाह की परिभाषाएं निकलकर सामने आयी हैं।
कुछ मुस्लिम विधिवेत्ताओं ने मुस्लिम विवाह को केवल संविदा करार दिया है और कुछ विधिवेत्ताओं ने संविदा के साथ संस्कार भी कहा है, परंतु यदि वास्तविकता से देखा जाए तो मुस्लिम विवाह केवल एक संविदा मात्र है, क्योंकि निकाह के समय अनुष्ठान किए जाते समय किसी धार्मिक कर्मकांड की कोई आवश्यकता नहीं है।
इस्लाम धर्म के प्रारंभ से पूर्व असीमित बहुपत्नीत्व की प्रथा थी। इस्लाम के अंतर्गत क्रमिक सुधार के रूप में बहुपत्नीत्व को 4 पत्नी तक सीमित कर दिया गया।
अरब में इस्लाम धर्म से पहले स्त्री वासना तृप्ति की वस्तु और पति की संपत्ति मानी जाती थी। इस्लाम ने पहली बार स्त्री को विवाह में सहमति का अधिकार दिया। उस समय समाज में अजीब तरह के विवाह प्रचलित हुआ करते थे। पैगंबर ने अरब समाज की बहुत सी कुर्तियां दूर की हैं तथा स्त्री सहमति विवाह के लिए आवश्यक कर दिया।
मुस्लिम विवाह की प्रकृति
मुस्लिम विवाह की प्रकृति के विषय में विभिन्न विचार हैं। कुछ विधिशास्त्रियों के अनुसार मुस्लिम विवाह पूर्णरूपेण एक सिविल संविदा है जबकि कुछ लोगों ने विवाह को एक धार्मिक संस्कार की प्रकृति जैसा कहा है।
विवाह में संविदा जैसा ही प्रस्ताव होता है, उसकी स्वीकृति होती है तथा इसका प्रतिफल 'मेहर' को माना जा सकता है जो स्त्री को पुरुष द्वारा दिया जाता है। इसकी प्रकृति से यह मालूम होता है कि यह विवाह एक सिविल संविदा है जिसे तलाक के माध्यम से किसी भी समय खत्म किया जा सकता है।
इस मामले में एक महत्वपूर्ण वाद है जिसे अब्दुल कादिर बनाम सलीमा के नाम से जाना जाता है। यह 1946 का मामला है, इस मामले में न्यायाधीश महमूद और न्यायाधीश मित्तर ने सबरुन्नंनिशा के वाद में मुस्लिम विवाह को संविदात्मक दायित्व के रूप में अभिनिर्धारित किया है।
अनीशा बेगम बनाम मोहम्मद मुस्तफा के मामले में मुख्य न्यायाधीश शाह सुलेमान ने संतुलित दृष्टिकोण अपनाया और मुस्लिम विवाह को एक सिविल संविदा के साथ धार्मिक संस्कार भी करार दिया।
कुरान शरीफ विभिन्न हदीसो से यह मालूम होता है कि मुस्लिम विवाह को केवल संविदा नहीं माना जा सकता, क्योंकि इस्लाम धर्म में निकाह करना भले ही आवश्यक ना हो परंतु पैगंबर ने विवाह करने पर अधिक बल दिया है और मुसलमानों को यह संदेश दिया है कि वह बालिग होने पर फौरन विवाह कर लें जिससे विचार से बचा जा सके।
परंतु इस्लाम धर्म में यदि व्यक्ति विवाह करने के काबिल नहीं है तो उसको विवाह करने से रोका भी गया है। आज मुस्लिम विवाह संविदा और संस्कार भी है और यह संस्कार केवल योग्य मुसलमानों के लिए है। यह विवाह संविदा और संस्कार का अद्भुत संयोजन है।
मुस्लिम विवाह में स्त्री का अस्तित्व कायम रहता है। मुस्लिम विधि के अनुसार कोई स्त्री विवाह द्वारा अपने अस्तित्व को पति के अस्तित्व में नहीं मिला देती। वह विवाह के बाद भी अपनी अलग विधिक स्थिति बनाए रखती है। उसका कुछ भी परिवर्तन नहीं होता है।
मुस्लिम विवाह के लिए आवश्यक बातें
मुस्लिम विवाह संपन्न होने के समय किसी प्रकार का धार्मिक अनुष्ठान विधिक रूप आवश्यक नहीं है।
विवाह के समय काजी की उपस्थिति भी आवश्यक नहीं है। (निकाह) मुस्लिम विवाह के लिए वैध विवाह के लिए कुछ शर्ते निहित की गयी है। उन शर्तों का पालन नहीं होने पर मुस्लिम विवाह निष्प्रभावी हो जाता है। कुछ शर्ते ऐसी है जिनके पालन नहीं होने से विवाह अनियमित होता है परंतु शून्य नहीं होता है।
प्रस्ताव और स्वीकृति
अन्य संविदाओं के समान विवाह में भी प्रस्ताव और स्वीकृति होती है। यह आवश्यक है कि विवाह का एक पक्षकार दूसरे पक्षकार से विवाह करने का प्रस्ताव करें।
दूसरा पक्षकार प्रस्ताव की स्वीकृति दे तभी विवाह पूर्ण होता है। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है मुस्लिम विवाह की वही स्थिति है जो किसी अन्य संविदा की होती है।
उपस्थिति
प्रस्ताव और स्वीकृति प्रकट करने वाले शब्दों का उच्चारण दोनों पक्षकारों या उनके अभिकर्ता (जिन्हें वकील या आम चलन में निक़ाही बाप) कहा जाता है की उपस्थिति में इस प्रकार होना चाहिए कि दोनों पक्षकार एक दूसरे के कथन को सुन सकें। यह सब कुछ केवल एक ही बैठक में होना चाहिए, कोई दो अन्य बैठकों में निकाह नहीं होता है।
ऐसी उपस्थिति और प्रस्ताव में किसी काजी की कोई आवश्यकता नहीं होती है। केवल प्रस्ताव और उसकी स्वीकृति का महत्व है।
साक्षी
सुन्नी हनफी विधि के अंतर्गत प्रस्ताव और स्वीकृति दो पुरुष या एक पुरुष और 2 स्त्री साक्षियों की उपस्थिति में होना जरूरी है जो स्वस्थचित्त और वयस्क मुसलमान हो।
साक्षी की अनुपस्थिति में विवाह शून्य नहीं होता है परंतु अनियमित जरूर हो जाता है, अर्थात जिस विवाह में साक्षी को पुनः लाकर विवाह को नियमित किया जा सकता है। शिया विधि में बगैर साक्ष्य के भी विवाह को वैध माना जाता है।
स्वतंत्र इच्छा और सहमति
किसी विवाह के पक्षकारों की अपनी स्वतंत्र इच्छा और सहमति पर विवाह करना जरूरी है। उनकी सहमति भय अनुचित दबाव या कपट से मुक्त होना भी जरूरी है। यदि विवाह के पक्षकार स्वस्थचित्त और वयस्क है तो ऐसी दशा में स्वयं उनके द्वारा सहमति का दिया जाना आवश्यक है।
शेख अब्दुल्लाह बनाम फरज़ाना परवीन के वाद में बॉम्बे उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ ने अपने निर्णय में कहा है कि भारत में मुस्लिम अपनी पर्सनल विधि द्वारा शासित होते हैं जिसके अंतर्गत विवाह एक सिविल संविदा है तथा स्थाई अथवा अस्थाई हो सकती है। अतः वैध विवाह के लिए भी वह सभी आवश्यक तत्व जो संविदा के लिए आवश्यक होते है पूरे होने चाहिए। एक महिला जो वयस्क और स्वस्थचित्त है विवाह की संविदा के लिए सक्षम है। एक संविदा की वैधता दोनों पक्षकारों की स्वतंत्र सहमति पर निर्भर करती है।
वयस्कता के लिए मुस्लिम विधि के भिन्न नियम थे परंतु भारत में बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम ने पुरुष के लिए 21 वर्ष तथा स्त्री के लिए 18 वर्ष विवाह की आयु निर्धारित की है।
आज वर्तमान में कोई भी मुस्लिम विवाह 21 वर्ष से कम पुरुष की आयु और 18 वर्ष से कम स्त्री की आयु में संपन्न नहीं करवाया जा सकता।
योग्यता का अभाव
वयस्कता, स्वस्थचित्त और स्वतंत्र सहमति के अतिरिक्त भी मुस्लिम विवाह करने के लिए कुछ योग्यताएं हैं। कुछ शर्ते हैं कि संयोग में कोई विधि अयोग्यता और बाधा ना हो।
विधिक अयोग्यता से तात्पर्य है कि पक्षकार निषिद्ध रिश्तों के भीतर या परस्पर इस प्रकार संबंधित ना हो जो विवाह को अवैध बना दे। यह निषेध चार प्रकार के होते है जो नीचे दिए गए हैं-
1) रक्त संबंध या 'क़राबत'-
कुछ ऐसे संबंध होते हैं, जिनसे परस्पर संबंधित स्त्री पुरुषों में एक दूसरे से विवाह नहीं किया जा सकता। यह मुस्लिम विवाह की प्रतिषिद्ध नातेदारी है।
इसका संबंध रक्त से है।
अपनी माता या दादी (चाहे जितनी पीढ़ी ऊपर हो)
अपनी पुत्री या पुत्र (चाहे जितनी पीढ़ी नीचे हो)
अपनी बहन चाहे सगी हो या सहोदरा या एकोदरा (चाहे जितनी पीढ़ी ऊपर हो)
भाई का पुत्र या पुत्री
अपनी या अपने पिता या माता की बहन तथा दादा दादी की बहनें (चाहे जितनी पूरी ऊपर हो)
2) विवाह संबंधी या 'मुशारत'
यह रिश्ते विवाह द्वारा जन्म लेते है इनका रक्त से संबंध नहीं होता।
पत्नी की माता या दादी (चाहे जितनी पीढ़ी ऊपर हो)
पत्नी की पुत्र या पुत्री (चाहे जितनी पीढ़ी नीचे हो)
पति की मां का पति
पुत्र पौत्र या दौहित्र (नाती)
3) दूध का रिश्ता या 'रिज़ा'
जब 2 वर्ष से कम आयु के किसी शिशु ने अपनी मां के अतिरिक्त किसी अन्य स्त्री का दूध पिया है तो शिशु और उस स्त्री के बीच दूध का रिश्ता उत्पन्न हो जाता है।
स्त्री उस शिशु की धाय माँ मानी जाती है। दूध का रिश्ता वे होता है जिन्होंने एक ही स्त्री की छाती से दूध पिया है। दूध के संबंधियों का जन्म एक ही माता-पिता से नहीं होता है फिर भी वे विवाह के प्रयोजन के लिए रक्त संबंधी समझे जाते हैं। कोई व्यक्ति केवल अपनी सगी बहन से ही नहीं बल्कि दूध के रिश्ते की बहन से भी विवाह नहीं कर सकता।
4) इन कारणों के अलावा कुछ असमर्थता अन्य और हैं, जिनमें कुछ ऐसे कारण हैं जो केवल उसी समय तक अवरोध उत्पन्न करते हैं जिस समय तक उन कारणों का अस्तित्व रहता है। जैसे ही कारणों का अस्तित्व समाप्त हो जाता है वहां असमर्थता पैदा नहीं करते उनमें कुछ कारण निम्न हैं-
अवैध संयोग-
इसका अर्थ है एक ही समय में इस प्रकार परस्पर संबंधित दो स्त्रियों से विवाह करना कि यदि उसमें से एक पुरुष होता तो उनके बीच विवाह अवैध होता।
जैसे 2 बहनों से एक साथ विवाह यह निषेद्ध नातेदारी की विधा से बचने के लिए किया गया है। इसलिए कोई मुसलमान अपनी पत्नी के जीवन काल में उसकी बहन से विवाह नहीं कर सकता। पहली पत्नी को तलाक देने या उसकी मृत्यु हो जाने से यह अवरोध दूर हो सकता है।
बहुपत्नी-
एक व्यक्ति एक समय में 4 से अधिक पत्नियां नहीं रख सकता। पांचवी पत्नी से विवाह जब नियमित होगा जब किसी एक पत्नी को तलाक दे दिया जाए या उसकी मृत्यु हो जाए। इस्लाम से पहले एक व्यक्ति कितनी भी स्त्रियों के साथ विवाह कर सकता था लेकिन पैगंबर ने विवाह की स्थिति को चार पत्नियों तक सीमित कर दिया और एक पत्नी विवाह को आदर्श विवाह बताया।
कुरआन शरीफ में यह स्पष्ट उल्लेख है कि एक पत्नी विवाह को ही उत्तम विवाह बताया जा रहा है-
'स्त्रियों से विवाह करो दो या तीन जो तुम्हें सुंदर लगती हो लेकिन तुम्हें डर है कि तुम उन में न्याय नहीं कर सकते हो तब केवल एक करो'
कुरान में एक विवाह पर अधिक बल दिया गया है क्योंकि वह न्याय का प्रश्न रखा गया है परन्तु एक से अधिक विवाह करने से रोका भी नहीं गया है परंतु इस बात पर बल दिया गया है कि विवाह एक ही स्त्री से किया जाए।
गवाहों की अनुपस्थिति-
सुन्नी विधि के अनुसार यह अवश्य की कि कम से कम दो साक्षी विवाह के समय यह साबित करने के लिए उपस्थित रहे कि पक्षकारों ने वैध विवाह किया है।
उचित रूप से संपन्न हुआ परंतु यदि साक्षी नहीं है तो भी मुस्लिम विवाह किया जा सकता है और बाद में साक्षी बनाए जा सकते हैं। शिया विधि बगैर साक्ष्यों के भी मुस्लिम विवाह को मान्य करती है। निशा बनाम मुमताज हुसैन के बाद में यह बात कही गयी है।
धर्म भिन्नता-
मुस्लिम विवाह केवल 2 मुसलमानों के बीच होता है परंतु मुस्लिम पुरुष को अहले किताब या जैसे यहूदी और ईसाई औरत से निकाह करने की स्वतंत्रता दी गयी है और यह निकाह वैध होगा, परंतु यहां पर मुस्लिम विधि स्त्रियों के साथ अन्याय करती है और मुस्लिम स्त्रियों को ईसाई और यहूदी पुरुष से निकाह करने से रोकती है। यदि कोई मुस्लिम स्त्री किसी यहूदी या ईसाई पुरुष से विवाह करे और बाद में वह पुरुष मुसलमान बन जाए तो निकाह नियमित हो जाएगा।
दूसरे की पत्नी से विवाह या विवाहिता स्त्री द्वारा दूसरे पुरुष से विवाह-
मुस्लिम विवाह इस परिस्थिति में संपन्न नहीं होता है कि जिसमें स्त्रि किसी अन्य की पत्नी हो।
लियाकत अली बनाम करीमन्नीसा के मामले में यह स्पष्ट नियम बताया गया है कि मुस्लिम पद्धति में जब तक पहला विवाह कायम है तब तक विवाहिता स्त्री दोबारा विवाह नहीं कर सकती।
कुछ अन्य परिस्थितियों में भी निकाह नहीं हो सकता है-
गर्भवती स्त्री से विवाह
तलाक देने के बाद पूनः उन्हीं पक्षकारों में निकाह।
हज यात्रा पर विवाह।
हज यात्रा पर विवाह सुन्नी हनफी विधि में मान्य बताया गया।