वैवाहिक बलात्कारः क्या भारत में यह कानून पर्याप्त तरक्की कर चुका है?

Gagan Gupta

3 July 2020 3:22 PM GMT

  • वैवाहिक बलात्कारः क्या भारत में यह कानून पर्याप्त तरक्की कर चुका है?

    वैवाहिक बलात्कार के मुद्दे ने लंबे समय से, दुनिया भर में, कानूनविदों और समाज को प्रभावित किया है। अधिकांश देशों में वैवाहिक बलात्कार को अपराध का दर्जा दिया गया है, क्योंकि यह माना गया है कि विवाह के रिस्ते में संभोग को जीवनसाथी का अधिकार नहीं माना जा सकता है। इंडिया टुडे वेब डेस्क द्वारा 12 मार्च 2016 को प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत उन 36 देशों में से एक है, जहां आज तक वैवाहिक बलात्कार को अपराध नहीं माना जाता है। हम पाकिस्तान, बांग्लादेश, चीन, अफगानिस्तान, म्यांमार, ईरान, मलेशिया, नाइजीरिया, बहरीन, सीरिया और सूडान जैसे देशों की कतार में शामिल हैं। इस लेख में विस्तार से बताया गया है कि वैवाहिक बलात्कार के मुद्दे पर हम अब तक अपने देश में बस यह हासिल कर पाए हैं कि अप्राकृतिक यौन संबंध या बिना सहमति के पत्नी के साथ विकृत साधनों के जरिए किया गया संभोग, बलात्कार के बराबर हो सकता है, हालांकि पति द्वारा पत्नी के साथ जबरद‌स्ती बनाया गया प्राकृतिक यौन संबंध अपराध की श्रेण‌ी में शामिल किया जाना बाकी है।

    आमतौर पर समझा जाता है, वैवाहिक बलात्कार या जीवनसाथी द्वारा किया गया बलात्कार, पति या पत्नी की सहमति के बिना या किसी की इच्छा के खिलाफ संभोग करने का कार्य है। सहमति का अभाव एक आवश्यक तत्व है।

    भारत में कानून की प्रगति की निशनदेही दो अलग-अलग चरणों में की जा सकता है - पहला, भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) में 2013 के संशोधन से पहले, और दूसरा, संशोधन के बाद। 2013 के संशोधन से पहले, धारा 375 आईपीसी के तहत बलात्कार को, उक्त धारा में उल्लिखित छह में से किसी भी परिस्थिति में महिला के साथ यौन संबंध के रूप में परिभाषित किया गया था।

    अनिवार्य रूप से, अगर एक महिला के साथ संभोग उसकी इच्छा के खिलाफ या उसकी सहमति के बिना या किसी गलत धारणा या डर के तहत किया गया था, तो पुरुष बलात्कार का दोषी था। यदि महिला की उम्र 16 वर्ष से कम थी तो सहमति भी महत्वपूर्ण नहीं थी।

    आईपीसी की धारा 375 का अपवाद यह था कि किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ किया गया संभोग, यदि पत्नी की उम्र 15 वर्ष से कम न हो तो, बलात्कार नहीं था।

    सुप्रीम कोर्ट में 1997 से कई याचिकाएं दायर की गई थी, जिनमें अन्य बातों के साथ-साथ प्रार्थना की गई ‌थी कि यह घोषणा की जाए कि धारा 375 आईपीसी में शामिल "संभोग" में सभी प्रकार के पेनिट्रेशन जैसे कि पीनाइल/ वजाइनल पेनिट्रेशन, पीनाइल/ओरल पेनिट्रेशन, पीनाइल/ एनल पेनिट्रेशन, फिंगर/ वजाइनल और फिंगर/ वजाइनल पेनिट्रेशन और ऑबजेक्ट/ वजाइनल पेनिट्रेशन शामिल हैं। उक्त याचिकाएं पर सुप्रीम कोर्ट ने 26 मई 2004 को फैसला किया, जिसे 2004 (5) एससीसी 518 साक्षी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया का नाम दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह धारा 375 आईपीसी में दी गई बलात्कार की परिभाषा का दायरा बढ़ाने के ‌लिए राजी नहीं है, हालांकि कोर्ट ने आशा और विश्वास व्यक्त किया था कि संसद इस संबंध में उचित कानून बनाएगी।

    एक महिला के खिलाफ किए गए सबसे बर्बर कृत्यों में से एक को याद करने की कीमत पर, यहां यह कहना जरूरी है कि निर्भया गैंगरेप और मर्डर के बाद संसद जागी और जस्टिस जेएस वर्मा समिति का गठन किया, जिसने रिकॉर्ड समय में एक रिपोर्ट दी और 2013 के आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम का आधार तैयार किया, जिसमें समिति की कुछ सिफारिशों को स्वीकार किया गया था। हालांकि, वैवाहिक बलात्कार को अपराध ठहराने की सिफारिश अभी भी स्वीकार नहीं की गई थी।

    2013 के संशोधन का एक परिणाम धारा 375 आईपीसी में बलात्कार की परिभाषा में बदलाव था। संशोधित परिभाषा के अनुसार, एक पुरुष के कृत्या को न केवल तब बलात्कार कहा जाता है, जबकि वह किसी महिला की इच्छा या सहमति के खिलाफ या उसे डराकर या भ्रम में रखकर संभोग करता है, बल्‍कि अगर वह एक महिला के खिलाफ विकृत कृत्य करता है, तो भी उसे बलात्कार कहा जाएगा। अनिवार्य रूप से, बलात्कार की संशोधित परिभाषा, साक्षी मामले की याच‌िकाओं में किए गए अनुरोध के अनुरूप है।

    वैवाहिक बलात्कार के मुद्दे पर वापस आते हैं, 2013 के संशोधन के बाद भी, धारा 375 आईपीसी के अपवाद 2 में पढ़ा गया है कि पत्नी के साथ पति द्वारा किया गया संभोग या यौन क्रिया बलात्कार नहीं है (यदि पत्नी 15 वर्ष से ऊपर है)।

    11 अक्टूबर 2017 को सर्वोच्च न्यायालय ने रिट याचिकाओं के एक और बैच पर फैसला किया गया, जिसे 2017 (10) SCC 800 इंडिपेंडेंट थाट बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, के रूप में रिपोर्ट किया गया था, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संशोधित धारा 375 आईपीसी के अपवाद 2 को इस तरीके से पढ़ा जाना चाहिए कि पति को उपलब्ध उक्त अपवाद के लिए, पत्नी की आयु 18 वर्ष से अधिक होनी चाहिए, और इस प्रकार 2013 के संशोधन के जर‌िए निर्धारित 15 वर्ष की आयु सीमा को हटा दिया गया और उसे बदल दिया गया।

    हालांकि इस फैसले में, वैवाहिक बलात्कार और उसके अपराधीकरण का गतिरोध बना रहा, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया, और ठीक ही कहा, कि वैवाहिक बलात्कार का मुद्दा उसके समक्ष नहीं था, और उस पर निर्णय नहीं लिया जा रहा था।

    रिट पेटिशन के एक सेट, जिसमें मुख्य मामला WP (C) 284 of 2015 आरआईटी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया का है, में अनिवार्य रूप से वैवाहिक बलात्कार को आपराधिक बनाने की प्रार्थना की गई है, वर्तमान में दिल्ली हाईकोर्ट में सुनवाई और निर्णय के लिए लंबित है। मुख्य रूप से चुनौती का आधार यह है कि धारा 375 आईपीसी का अपवाद 2 असंवैधानिक है और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19 और 21 के तहत विवाहित महिलाओं को दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। (संदर्भ: आदेश दिनांक 18.07.2017 को WP (C) No 284/2015 में दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा दिया गया आदेश।

    इस निराशा के बीच उम्मीद पर बात करते हैं। यह बहुत बड़ी भ्रांति है कि धारा 375 आईपीसी में मौजूद अपवाद 2, किसी पति को पत्नी के खिलाफ किसी भी कार्रवाई के मामले में, जो धारा 375 आईपीसी के तहत बलात्कार माना जाती, अभियोजन से पूर्ण प्रतिरक्षा प्रदान करता है।

    अपवाद 2 को सावधानीपूर्वक पढ़ने से पता चलता है कि प्रतिरक्षा केवल पत्नी के साथ पति के संभोग करने या यौन क्रियाओं के मामले में है (पत्नी की आयु 18 वर्ष से अधिक होने की स्थित‌ि में)।

    साक्षी मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने शब्दकोष के अर्थ को स्वीकार करते हुए, "संभोग" को विपरीतलिंग‌ियों के बीच संभोग के रूप में परिभाषित किया है, जिसमें एक पुरुष और एक महिला के बीच प्राकृतिक संभोग किया जाना शामिल है, इस प्रकार अपवाद 2 में इस्तेमाल किए गए शब्द प्रतिरक्षा को प्रतिबंधित अर्थ देना होगा और धारा 375 आईपीसी में दी गई बलात्कार की पूरी परिभाषा पर लागू नहीं किया जाए। किसी भी स्‍थति में, एक अपवाद हमेशा मुख्य प्रावधान के अधीन ही होगा [2004 (6) SCC 672 मौलवी हुसैन हाजी अब्राहम उमरजी बनाम गुजरात और अन्य]।

    दूसरे शब्दों में, धारा 375 आईपीसी का अपवाद 2, जैसा यह आज मौजूद है, वैवाहिक बलात्कार के अभियोजन से एक पति को कोई प्रतिरक्षा प्रदान नहीं करता है, यदि वह पत्नी के खिलाफ, संभोग और यौन कृत्यों (जैसा कि साक्षी में परिभाषित किया गया है) के अलावा, कोई भी ऐसा विकृत कार्य करता है, जिसे धारा 375 में बलात्कार के रूप में परिभाषित किया गया है, भले ही पत्नी 18 वर्ष से ऊपर हो। कानून की योजना की इस व्याख्या को, जिसके लिए धारा 376-बी आईपीसी और धारा 376-सी आईपीसी जैसे अन्य प्रावधानों का भी संदर्भ हो सकता है, हाल ही में छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में फेवर मिला। हाईकोर्ट ने

    CRR No. 1415 of 2019 N. बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले में 11 जून 2020 को दिए फैसले में उपरोक्त व्याख्या के आधार पर आरोपी पति के खिलाफ चार्ज फ्रेम करने के चरण में, एक पीड़ित की याचिका को स्वीकार कर लिया, जिसमें पति पर पत्नी के साथ

    अप्राकृतिक संभोग करने और यौनांगों में बाहरी वस्तुओं को डालने का आरोप लगाया गया था।

    मैं यह दोहराना चाहता हूं कि भारत अभी भी उन बहुत कम देशों में से एक है, जिन्होंने वैवाहिक बलात्कार को अपराध नहीं माना है। भारत सरकार इस मामले को कैसे देखती है, इस बात की एक झलक उसकी ओर से सुप्रीम कोर्ट में इंडिपेंडेंट थॉट मामले में दायर किए गए काउंटर एफिडेविट में दिखती है, ‌जिसमें, जैसा कि 11 अक्टूबर 2017 के जजमेंट में दर्ज है, कहा गया है कि देश की सामाजिक-आर्थ‌िक परिस्‍थ‌‌ितियों के मद्देनजर वैवाहिक बलात्कार को अपराध नहीं ठहराया जा सकता है। यह, मेरी राय में, एक मान्य परिस्थिति या कारण नहीं है, खासकर अगर हम भारतीय समाज को प्रतिगामी के बजाय प्रगतिशील के रूप में देखना चाहते हैं। यह तर्क वास्तव में, हमारे देश में प्रचलित सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के मद्देनजर, उल्टा है, जहां महिलाओं की आबादी के एक बड़े हिस्से पर अत्याचार होता और घरेलू हिंसा आम बात है, वैवाहिक बलात्कार का अपराधीकरण महत्वपूर्ण है।

    यह समझने की जरूरत है कि वैवाहिक बलात्कार के खिलाफ प्रतिरक्षा प्रदान करने वाला आईपीसी का कानूनी 1860 का एक कानून है और भारत ने तब से अब तक 160 सालों से अधिक की यात्रा कर चुका है। मुझे टी सरीथा बनाम टी वेंकटा सुब्बैया (AIR 1983 AP 356) मामले में दिया गया आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट का फैसला याद आता है, जिसके तहत हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 को रद्द कर दिया गया ‌था। यह माना गया था कि संयुग्मन अधिकारों की बहाली का प्रावधान अनिवार्य रूप से संभोग के लिए मजबूर करने वाला कानून था। मैं पत्नी के अधिकार के बारे में और कुछ नहीं कह सकता- उसकी गरिमा को, उसके व्यक्तित्व को, उसके शरीर को, और उसकी इच्छा को और संभोग के लिए सहमति देने या मना करने के अधिकार को। फैसले में जस्टिस पीए चौधरी ने कहा था-

    ".. निजता के अधिकार की एक भी प्रशंसनीय परिभाषा, मानव शरीर को व्यक्तिगत पहचान पर नियंत्रण के लिए अपने पहले और बुनियादी संदर्भ के रूप में लेने के लिए बाध्य है। ऐसी परिभाषा में शरीर की पवित्रता, अखंडता और वैवाहिक न‌िजता समेत व्यक्तिगत पहचान की अंतरंगता शामिल करना बाध्यकारी है।"

    यह और बात है कि उसी वर्ष दिल्ली हाईकोर्ट ने हरविंदर कौर बनाम हरमंदर सिंह चौधरी [AIR 1984 DELHI 66] में एक विपरीत निर्णय दिया, जिसमें संयुग्मन अधिकारों की पुनर्स्थापना की आज्ञा की वैधता को बरकरार रखा गया। इस फैसले को सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चड्ढा [AIR 1984 SC 1562] में सर्वोच्च न्यायालय ने टी सरीथा को रद्द करते हुए बरकरार रखा।

    बहरहाल, हम 37 साल आगे आ चुके हैं।

    मैं समाप्‍त करने से पहले एक और सुझाव देने का प्रयास कर सकता हूं। यह सच है कि किसी प्रावधान का संभावित दुरुपयोग एक ऐसा सिद्धांत है जो न तो यहां है और न ही वहां है और समय-समय पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खारिज किया जाता रहा है, इसलिए संसद को इस तरह के किसी भी सिद्धांत की शरण नहीं लेनी चाहिए। मेरा सुझाव है कि वैवाहिक बलात्कार के मामलों में पति को पूर्ण प्रतिरक्षा प्रदान करने के बजाय, संसद वैवाहिक बलात्कार का अपराधीकरण करने पर विचार कर सकती है। बलात्कार के लिए तय सजाओं की तुलना में ऐसे मामलों में कम कठोर सजा का प्रावधान किया जा सकता है। वास्तव में इसकी एक झलक धारा 376-बी आईपीसी में पहले से ही दिखाई दे रही है, जहां एक पति को, अलग रहने वाली पत्नी के साथ, सहमति के बिना संभोग करने पर दो साल से कम की सजा नहीं है, जो कि सात साल तक बढ़ सकती है।

    न्यायालय निश्चित रूप से ऐसे मामलों को तथ्यों के आधार पर तकरेंगे और ऐसे मामले में आरोपों की प्रकृति के आधार पर उपयुक्त सजा सुनाएंगे।

    यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।

    (लेखक वर्ष 2000 से सुप्रीम कोर्ट में प्रै‌क्टिस कर रहे हैं, और आलेख में संदर्भ‌ित CRR No 1415 of 2019 N बनाम छत्तीसगढ़ राज्य के मामले में, जिसमें छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने 11 जून 2020 को फैसला दिया था, पीड़िता का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं।)

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