मुस्लिम विवाह में मेहर का अर्थ और महत्व
Shadab Salim
31 May 2020 10:32 AM IST
मुस्लिम विवाह की प्रकृति का अध्ययन करने के बाद यह बात सामने आती है की मूलतः मुस्लिम विवाह की प्रकृति एक संविदा की तरह है, परंतु इस बात में विवाद अवश्य है कि मुस्लिम विवाह केवल संविदा नहीं है, वह एक संस्कार भी है।
मुस्लिम विवाह को संविदा की तरह प्रस्तुत करने में मेहर की अग्रणी भूमिका है, जिस तरह विक्रय में एक संविदा होती है तथा उसमें मूल्य जो प्रतिफल होता है इसी प्रकार मुस्लिम विवाह जो संविदा है, उसमें मेहर प्रतिफल होता है।
कुछ विद्वानों ने मेहर को केवल प्रतिफल नहीं बता कर एक सिक्योरिटी की तरह भी पेश किया है, क्योंकि मुस्लिम विवाह में दिया जाने वाला मेहर मुअज्जल और मुवज्जल दोनों होता है अर्थात त्वरित दिया जाता है और तलाक या मृत्यु के समय भी दिया जाता है।
कुछ न्यायधीशो ने मुस्लिम विवाह को संविदा के साथ संस्कार भी माना है।
यदि लेखक अपने शब्दों में कहे तो- मुस्लिम विवाह संविदा के साथ संस्कार भी है और मुस्लिम विवाह की प्रकृति ऐसी है कि तलाक का जो अधिकार है पुरुष को दिया गया है और मेहर का अधिकार स्त्री को दिया गया है।
पुरुष के पास तलाक का अधिकार है, इसी प्रकार स्त्री के पास मेहर का भी अधिकार है। स्त्री मेहर को बाकी( मुवज्जल) रखकर पुरुष के तलाक के मनमाने अधिकार के ऊपर अंकुश लगाने का प्रयास करती है।
मुस्लिम विवाह की यह प्रकृति वर्तमान में समझी जानी चाहिए तथा नाममात्र की मेहर के चलन को मुसलमानों को बंद करना चाहिए तथा स्त्री के अधिकार मेहर पर अधिक बल दिया जाना चाहिए।
वर्तमान में स्त्रियां त्वरित मेहर नहीं लेती हैं और मुवज्जल मेहर को एक सुरक्षा के तौर पर तलाक के मनमाने अधिकार से बचने के लिए रखती हैं, इसलिए मेहर को रुपयों में ना रख कर सोने या अचल संपत्ति में रखा जाना चाहिए, क्योंकि रुपए की कीमत घटती रहती है, परंतु सोने एवं अचल संपत्ति की कीमत समय के अनुरूप चलती है, जो महंगाई होती है रुपए का विश्व में जो महत्व होता है उसके अनुरूप सोने की कीमत होती है।
इस्लाम आने के पूर्व मेहर को स्त्री के माता-पिता या संरक्षक प्राप्त करते थे। मेहर स्त्री का अधिकार नहीं था, परंतु पैगंबर के प्रयासों से मेहर को स्त्री का स्वतंत्र अधिकार बताया गया तथा उसे तय करने की क्षमता दी गयी और अधिकार दिया गया कि मेहर स्त्री की स्वतंत्र सहमति से तय होगा।
श्रीमती नाजिया बेगम बनाम रिजवान अली के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मत व्यक्त किया है कि मूल मेहर को प्राप्त करने का अधिकार समागम से पूर्व है। इस वाद में अवलोकन किया गया है कि निसंदेह मुस्लिम विधि के अंतर्गत मेहर का तात्पर्य ऐसी धनराशि अथवा संपत्ति से होता है, जिसे विवाह के प्रतिफल के रूप में पति से प्राप्त करने का पत्नी को अधिकार होता है परंतु प्रतिफल शब्द यहां पर वह नहीं है जिस अर्थ में या शब्द संविदा अधिनियम में प्रयुक्त होता है, यह मेहर पत्नी के प्रति सम्मान के प्रतीक के रूप में पति पर आरोपित किया गया है और यदि यह बाकी रह जाए तो पुरुष के तलाक के अधिकार से सुरक्षा देता है।
मेहर के प्रकार
निश्चित मैहर (मेहर ए मुसम्मा)
उचित मेहर (मेहर ए मिस्ल)
यदि विवाह में मेहर की धनराशि संपत्ति का उल्लेख हो तो ऐसा मेहर निश्चित मेहर होता है। यदि विवाह के पक्षकार वयस्क हैं तो वह मेहर की धनराशि विवाह के समय निर्धारित कर सकते हैं। यदि किसी अवयस्क के विवाह की संविदा उसके संरक्षक द्वारा की जाती है तो ऐसा संरक्षक विवाह के समय में की धनराशि निश्चित कर सकता है, परन्तु भारत में वयस्क होने पर ही विवाह करने की आज्ञा है और बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम में अवयस्कता में संरक्षक द्वारा विवाह करना अपराध है।
इसे निश्चित मेहर कहा जाता है।
निश्चित मेहर को दो भागों में बांटा गया है। मेहर ए मुअज़्ज़ल और मेहर ए मुवज्जल।
मुअज़्ज़ल मेहर
यह विवाह के बाद मांग पर तत्काल देय होता है। आमिर अली के अनुसार पत्नी मेहर के मूल भाग के भुगतान के समय तक पति के दांपत्य अधिवास में प्रवेश करने से इनकार कर सकती है।
विवाह हो जाने पर मुअज़्ज़ल मेहर तत्काल देय होता है और मांग पर तत्काल अदायगी जरूरी है, यह विवाह के पहले या बाद किसी भी समय वसूल किया जा सकता है। यदि विवाह की पूर्ण अवस्था नहीं प्राप्त हुई है और मुअज़्ज़ल मेहर की अदायगी न होने के कारण पत्नी पति के साथ नहीं रहती है और पति के द्वारा लाया गया दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना का वाद खारिज कर दिया जाएगा।
मुअज़्ज़ल मेहर विवाह की पूर्ण अवस्था के बाद समाप्त नहीं होता। पत्नी को विवाह की पूर्ण अवस्था प्राप्त कर लेने पर भी मुअज़्ज़ल मेहर की वसूली का वाद दायर करने का पूरा अधिकार है।
विवाह की पूर्ण अवस्था प्राप्त कर लेने पर अंतर केवल यह है कि यदि मूल मेहर का भुगतान कर दिया गया है तो पति द्वारा दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिए वाद में पत्नी मेहर की प्राप्ति के आधार पर उसका प्रतिवाद नहीं कर सकती।
अब्दुल कादिर बनाम सलीमा (1886) ILR 8 All 149 के वाद में तथ्य थे कि एक मुस्लिम दंपत्ति से विवाह के बाद 3 महीने तक सहवास होता रहा और तत्पश्चात पत्नी सलीमा अपने पिता के घर चली गयी और फिर नहीं लौटी।
पति अब्दुल कादिर द्वारा दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिए वाद लाया गया। प्रस्तुत वाद में पत्नी ने पति द्वारा क्रूरता और मेहर नहीं देने के आरोप के आधार पर प्रतिवाद किया। पत्नी वाद में क्रूरता का आरोप सिद्ध न कर सकी और पति ने न्यायालय में मेहर की धनराशि जमा कर दी। निर्णीत हुआ कि पति दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना की डिक्री पाने का हकदार है।
मुवज्जल मेहर
यह मृत्यु या विवाह विच्छेद द्वारा विवाह के समाप्त हो जाने पर अथवा करार द्वारा निर्धारित किसी निश्चित घटना के घटित होने पर देय होता है।
आमिर अली के मत में विवाह संविदा को पूर्ण रुप से पालन कराने के लिए पति को विवश करने के उद्देश्य से भारत में मुवज्जल मेहर की राशि सामान्यता अत्यधिक होती है। मुवज्जल मेहर के विषय में निम्न तथ्य महत्वपूर्ण है।
मुवज्जल मेहर में मृत्यु या विवाह विच्छेद द्वारा विवाह के विघटन होने पर देय होता है इसलिए पत्नी मुवज्जल मेहर की मांग विवाह के विघटन के पूर्व सामान्यता नहीं कर सकती है, परंतु यदि विवाह के विघटन के पहले उसके भुगतान किए जाने का कोई करार हो तो ऐसा करार मान्य व बंधनकारी होता है।
विवाह के वक़्त अथवा निश्चित घटना के घटित होने के पहले पत्नी मुवज्जल मेहर की मांग नहीं कर सकती है, परन्तु पति इसके पूर्व भी ऐसा मेहर उसे अदा कर सकता है।
मुवज्जल मेहर में पत्नी का हित निहित होता है वह घटना पर आधारित नहीं होता है किसी घटना के होने से वापस स्थापित नहीं किया जा सकता और उसकी मृत्यु से भी बदल नहीं सकता। ऐसी स्थिति में उसके मर जाने पर उसके उत्तराधिकारी उसका दावा कर सकते है।
यदि मेहर विवाह के समय निश्चित हो गया है तो विवाह की संविदा में प्रायः वर्णित रहता है कि मेहर का कितना भाग तत्कालिक होगा और कितना भाग स्थगित।
कठिनाई उस समय उत्पन्न होती है जब विवाह का दस्तावेज 'कबीननामा' इस विषय में मौन होता है कि कौन सा भाग तत्काल होगा और कौन सा भाग स्थगित होगा।
रेहाना खातून बनाम मोइनुद्दीन के वाद में निर्णित किया गया है कि मेहर तय नहीं होने की स्थिति में मेहर का मूल्य रिवाज़ द्वारा निर्मित होता है और रिवाज के अभाव में पक्षों की हैसियत के द्वारा तय किया जाता है।
उचित मेहर
इसका उस स्थिति में उपयोग किया जाता है जब मेहर तय नहीं हो। उचित मेहर के सिद्धांत को प्रयोग में लिया जाता है। देश काल समय और तत्कालीन परिस्थितियां पति की आर्थिक स्थिति सामाजिक स्थिति और समाज के अन्य महिलाओं को प्राप्त होने वाली मेहर इत्यादि नियमों को देखकर विवाह की संविदा में मेहर तय नहीं होने के कारण उचित मेहर रख दी जाती है।
मेहर का भुगतान न किए जाने पर पत्नी के अधिकार
पति के साथ संभोग करने से इनकार करना।
क़र्ज़ के रूप में मेहर की धनराशि का अधिकार।
मृतक पति की संपत्ति पर कब्जा रखना।
यदि किसी मुस्लिम स्त्री को उसके मेहर का भुगतान नहीं किया जाता है और मेहर मुवज्जल रखी गयी थी या बाद में देने का कह दिया गया था और नहीं दिया गया तो ऐसी परिस्थिति में संकट उत्पन्न होता है। इस परिस्थिति में मुस्लिम स्त्री क्या अधिकार रखती है।
राबिया खातून बनाम मुख्तार महमूद के मुकदमे में निर्णय हुआ है कि यदि पति द्वारा मेहर की अदायगी नहीं की जाती है तो पत्नी द्वारा उसके साथ दांपत्य जीवन जीने से इनकार किया जा सकती है और पति तब तक दांपत्य जीवन की पुनर्स्थापना का वाद नहीं लगा सकता, जब तक वे मेहर अदा नहीं कर देता।
मोहम्मद जैनुल हक बनाम जुबेदा हैदर के वाद में यह निर्णित किया गया है कि विधवा की मृत्यु के पश्चात मेहर के लिए वाद दायर करने का अधिकार उस स्त्री के उत्तर अधिकारियों या वैध प्रतिनिधियों को प्राप्त हो जाता है।
सैयद साबिर हुसैन बनाम फ़रज़न्द हसन के वाद में एक शिया मुस्लिम आपने अवयस्क पुत्र के विवाह की संविदा करते हुए पुत्रवधू के मेहर के भुगतान के लिए जमानतदार बना। पिता की मृत्यु के बाद उसकी संपत्ति से उक्त मेहर देय ठहराया गया और प्रत्येक उत्तराधिकारी को अपने हिस्से के अनुपात में उक्त मेहर का भुगतान करना पड़ा।
मौना बीबी बनाम चौधरी वकील अहमद के वाद में विधवा के देय मेहर से संबंध महत्वपूर्ण सिद्धांतों की विवेचना की गयी है। मोइनुद्दीन नामक एक व्यक्ति विवादस्पद अचल संपत्ति छोड़कर सन 1890 में मरा था। मौना बीबी उसकी विधवा थी। सन 1902 में उत्तरवादी ने संपदा के अपने हिस्से पर तत्काल कब्जे के लिए विधवा के विरुद्ध एक वाद दायर किया।
यह अभिवचन किया है कि विवादास्पद संपत्ति उसके पति ने उसे दान में दिया था। उसने यह भी कहा कि विकल्प में वह अपने मेहर के भुगतान के समय तक काबिज रहने के लिए हकदार है।
सन 1902 में परीक्षण न्यायालय ने कब्जे की डिक्री इस शर्त पर प्रदान की की उत्तरवादीगण 6 महीने में ₹25387 मेहर के रूप में विधवा को भुगतान कर दें और डिक्री में यह भी उपबंध था कि भुगतान में चूक होने पर वाद खारिज़ समझा जाएगा।
उच्च न्यायालय में दायर की गई अपील खारिज कर दी गयी और भुगतान की मियाद 3 दिसंबर सन 1906 तक बढ़ा दी गयी। उत्तर भारतीयों ने भुगतान नहीं किया और परिणाम स्वरूप विधवा संपत्ति पर काबिज चली गयी।
अंजुम हसन सिद्दीकी बनाम सलमा बीवी ए आई आर 1992 इलाहाबाद उच्च न्यायालय के नए वाद में निर्धारित किया कि एक परित्यक्त स्त्री द्वारा धारा तीन मुस्लिम स्त्री विवाह विच्छेद होने पर अधिकारों की रक्षा अधिनियम 1986 के अंतर्गत मेहर की धनराशि से संबंधित आवेदन पत्र संबंधित मजिस्ट्रेट के न्यायालय में ही प्रस्तुत होगा।
मेहर प्राप्त करने हेतु वाद लाने की परिसीमा
पत्नी या विधवा को अपने मेहर की राशि की वसूली पति या उसके उत्तराधिकारियों के विरुद्ध वाद दायर करके प्राप्त करने का अधिकार है।
पत्नी की मृत्यु हो जाने पर उसके उत्तराधिकारी वाद ला सकते है और पति की मृत्यु की दशा में पति के उत्तराधिकारियों के विरुद्ध वाद ला सकते है, परंतु मैहर की वसूली के लिए भारतीय मर्यादा अधिनियम 1963 के अंतर्गत निर्धारित अवधि के अंदर ही वाद प्रस्तुत हो जाना आवश्यक है, अन्यथा वाद खारिज हो जाता है।
मेहर यदि तुरंत देय है तो पत्नी द्वारा इसकी मांग करने की तिथि से 3 वर्ष के अंदर ही वसूली का वाद न्यायालय में प्रस्तुत हो जाना चाहिए।
विवाह विच्छेद हो जाने के बाद देय मेहर तुरंत देय हो जाते है। परिणामस्वरूप मेहर की वसूली के वाद की परिसीमा अवधि विवाह विच्छेद की तिथि से 3 वर्ष तक है।
पति की मृत्यु के कारण हुए विवाह के विघटन के समय पत्नी यदि उस स्थिति में नहीं हो कि उसे सूचना नहीं है तो 3 वर्ष की अवधि तब से प्रारंभ मानी जाएगी जब विधवा को पति की मृत्यु की सूचना मिलती है।