लॉ ऑन रील्स : जातीय हिंसा और बखौफ हो चुकी राजसत्ता की मार्मिक कहानी है जय भीम

LiveLaw News Network

6 Nov 2021 12:27 PM GMT

  • लॉ ऑन  रील्स : जातीय हिंसा और बखौफ हो चुकी राजसत्ता की मार्मिक कहानी है जय भीम

    शैलेश्वर यादव

    सिंघम और दबंग जैसी फिल्मों के जरिए हिंदी सिनेमा पुलिस की हिंसा और उसकी बेलगाम ताकत को लंबे समय से पर्दे पर रुमानी तरीके से पेश करता रहा है। हालांकि 'जय भीम' ने हिरासत में हिंसा, पुलिस प्रताड़ना और पुलिसकर्म‌ियों द्वारा कानून के दुरुपयोग की स्याह तस्वीर पेश की है। फिल्म कुछ हद तक पुलिस की बर्बरता का बखान करने की प्रवृत्त‌ि को तोड़ती है।

    टीजे ज्ञानवेल द्वारा निर्देशित 'जय भीम' जाति की विभाजानकारी रेखाओं और राज्य सत्ता के परस्पर प्रतिच्छेद बिंदुओं की पड़ताल करती है। मारी सेल्वराज की 'कर्णन' और अश्विन की 'मंडेला' कुछ ऐसी फिल्में हैं, जिन्होंने समाज में मौजूद जाति आधिपत्य को एक सीमा तक पेश करने का प्रयास किया है।

    'जय भीम', जिसका कालखंड 1995 है, एक कोर्ट रूम ड्रामा है। फिल्म की कहानी का केंद्र आदिवासी महिला और नायक के रूप में एक ऐसा युवक है, जो राज्य सत्ता के मनमानेपन के आगे झुकने से इनकार कर देता है।

    मद्रास हाईकोर्ट के पूर्व जज जस्टिस के चंद्रू जिन दिनों अधिवक्ता के रूप में पेशेरत थे, उन्होंने एक मुकदमा लड़ा था। यह फिल्म उस मुकदमे पर ही आधार‌ित है।

    कहानी यह है कि इरुला जनजाति की एक आदिवासी महिला सेंगगेनी के पति राजकन्नू की पुलिस हिरासकत में हत्या कर दी जाती है। उसे डकैती के झूठे आरोप में पुलिस ने पकड़ा था।

    फिल्म की शुरुआत एक विस्मयकारी दृश्य से होती है। आजाद होने के बाद इरुला जनजाति के लोगों को अन्य जाति के लोगों से अलग किया जाता है, जैसे गेहूं को भूसे से अलग किया जाता है। कानून एजेंसियां आपराधिक मामलों की सुलझाने के लिए इरुला जनजाति के लोगों फर्जी मामलों में फंसाकर गिरफ्तार करना शुरु करती हैं। गिरफ्तारी में आई तेजी के बाद एडवोकेट चंद्रू अदालत के समक्ष पेश होता है, और मामलों की जांच के ल‌िए एक जांच आयोग का गठन कराने में कामयाब होता है।

    दंडमुक्ति और हिरासत में हिंसा

    राजकन्नू, उसके परिजनों और दोस्तों (ये सभी इरुला जनजाति से संबंधित हैं) को स्थानीय पुलिस ने डकैती के अंदेशे में गिरफ्तार किया है। फिल्म में अपराधों की स्वीकारोक्ति के लिए पुलिस की ओर से दी जाने वाली क्रूर यातानाओं का भी चित्रण किया गया है।पुलिस ने बिना किसी सुनवाई के लूट के एक मामले में राजकन्नू को फंसाने की कोशिश करती है। राजकन्नू को प्रताड़‌ित किया जाता है, निष्पक्ष जांच की तो बात ही छोड़िए। कुछ दिनों बाद राजकन्नू अन्य गिरफ्तार लोगों के साथ थाने से लापता हो जाता है। जिसके बाद एडवोकेट चंद्रू मद्रास ‌हाईकोर्ट के समक्ष बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करता है।

    गौरतलब है कि प्रताड़ना के खिलाफ राष्ट्रीय अभियान के अनुसार हर दिन औसतन पांच मौतें दर्ज की जाती हैं। 2019 में पुलिस हिरासत में लगभग 117 मौतें दर्ज की गईं, जबकि न्यायिक हिरासत में 1606 मौतें हुईं। हिरासत में की गई हिंसा का ये अब तक की सबसे बड़ी संख्या हैं। इसे सुधारने के लिए किए गए प्रयास निराशाजनक हैं। इस तरह की क्रूरता को करने वालों को सजा न के बराबर है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि 2005 और 2018 के बीच पुलिस हिरासत में कथित यातना के कारण मारे गए 500 लोगों के मामले में एक भी दोष सिद्ध नहीं हुआ है। हालांकि 58 पुलिस कर्मियों के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया गया था, लेकिन उनमें से किसी को भी दोषसिद्धि का सामना नहीं करना पड़ा।

    राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) की एक अन्य रिपोर्ट में हिरासत में मौत के 1,723 मामले दर्ज किए गए। एनएचआरसी की रिपोर्ट में कहा गया है कि इनमें से ज्यादातर मौतें पुलिस की यातना का परिणाम थीं। इसके अलावा, इन संस्थागत अपराधों के पीड़ितों में कुछ समानता है, वे सभी हाशिए से आते हैं। पुलिस हिरासत में हुई 125 मौतों में से 75 मृतक (60 प्रतिशत) हाशिए के समुदायों से थे, 13 दलित या आदिवासी समुदायों से थे, और 15 मुस्लिमों को मामूली अपराधों के लिए पकड़ा गया था। हाल ही में एक मामले में दलित सफाई कर्मचारी अरुण वाल्मीकि की कथित तौर पर पुलिस हिरासत में मौत हो गई। अरुण के परिजनों ने बताया कि ''उसकी पत्नी के सामने उसे बेरहमी से पीटा गया था।''

    लोकसभा में सरकार ने बताया था कि पिछले तीन वर्षों में लगभग 1189 लोगों को यातना का सामना करना पड़ा और 348 लोगों की पुलिस हिरासत में मौत हो गई। अब मैं हिरासत में हिंसा के पर्दे पर चित्रण और वास्तविकता के बीच गठजोड़ तय करने का सवाल पाठकों छोड़ता हूं।

    जाति, उत्पीड़न और कानून

    'जय भीम' का कैनवास को हिरासत में हिंसा तक सीमित नहीं है। यह स्पष्ट रूप से राज्य की मंशा और हाशिए के समुदायों के उत्पीड़न पर भी सवाल उठाता है। डॉ अम्बेडकर के विचारों की सामाजिक न्याय पर जोर देने और एक न्यायपूर्ण समाज को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका रही हैं- संस्थान पूरी तरह से उनके दृष्टिकोण और सिद्धांतों को भूल चुके हैं।

    अम्बेडकर के ये शब्द कि "संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, उसका बुरा होना निश्चित है क्योंकि जिन्हें इसे अमल में लाना है, वे बहुत बुरे हैं .." बहुत प्रासंगिक हो चुके हैं। हाशिए के लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में राज्य की विफलता को संविधान की विफलता के रूप में नहीं देखा जा सकता है, बल्कि शीर्ष पर बैठे लोगों की विफलता के रूप में देखा जा सकता है।

    संस्थागत जाति पदानुक्रम की जड़े हमारी प्रणाली में बहुत गहरी हैं, यह भेदभावपूर्ण नीतियों का केंद्रीय ध्रुव बना हुआ है। क्रिमिनल जस्टिस एंड पुलिस एकाउंटेबिलिटी प्रोजेक्ट की एक रिपोर्ट " ड्रंक ऑन पावर" आबकारी अधिनियम का उपयोग करके 'विमुक्त' समुदायों के उत्पीड़न के बारे में बात करती है। विमुक्त समुदायों को 'वंशानुगत अपराधी' माना जाता है। उन पर असमान रूप से आरोप लगाया जाता है, उनका सर्वेक्षण किया जाता है और स्थानीय कानून प्रवर्तन द्वारा विनियमन के तहत रखा जाता है।

    इसी तरह, फिल्म में, कई उदाहरण हैं, जहां महाधिवक्ता और पुलिस अधिकारियों ने लापरवाही से इस बात पर संतोष व्यक्त किया कि इरुला जनजाति वंशानुगत अपराधी हैं।

    गरिमा और अधिकारों का दावा

    हालांकि वंचित समूहों के हितों की रक्षा के लिए कानून हैं, लेकिन असली सवाल यह है कि उन्हें संस्थागत भेदभाव के खिलाफ कहां तक ​​महसूस किया जाता है और उनका दावा किया जाता है? फिल्म में दिखाया जाता है कि मामले को समाप्त करने के लिए मुआवजे के रूप में सेंगगेनी को उच्च स्तर के पुलिस अधिकारी पैसों को पेशकश करते हैं। हालांकि, सेंगगेनी का जवाब कि वह लड़ाई (केस) हार जाएगी, लेकिन अपने पति की हत्यारों के भिक्षा पर नहीं रहेगी, काफी सूक्ष्म और गरिमापूर्ण है। यह अहसास है कि जाति और वर्ग की सीमाएं गरिमा को नहीं बांधती हैं - यह उत्पीड़क की सनक और कल्पना पर तय नहीं किया जा सकता है, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसकी भरपाई नहीं की जा सकती है।

    न्याय के लिए सेंगगेनी का संघर्ष संवैधानिक सिद्धांतों का एक उदाहरण है। हालांकि, यह एडवोकेट चंद्रू की बहादुरी के एक लंबे संघर्ष के साथ आता है। हालांकि, मुझे चंद्रू क्या करता है, यह तो नहीं लेकिन एक वकील की ऐसी दुर्लभ 'बहादुरी' समस्याग्रस्त लगती है। लेकिन एक अलग बिंदु पर मेरा प्रश्न यह होगा कि- क्या किसी प्रणाली को लोगों को इतना कमजोर बनाने की अनुमति दी जा सकती है? क्या हर सेंगगेनी को एक दुर्लभ नायक मिल सकता है? यह व्यवस्था लोगों को उस दौर से गुजरने के लिए क्यों मजबूर करती है, जिससे सेंगगेनी गुजरती है? इन सभी प्रश्नों पर बिना किसी पूर्वाग्रह के आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है।

    समापन से पहले यह बताना होगा कि फिल्म अलहदा है। रेटिंग की बहस से परे इसे बार-बार देखा जाना चाहिए। यह राज्य एजेंसियों, वकीलों और कानून के छात्रों, सभी के लिए लंबे समय से भूला दिए गए एक सबक को फिर देती है कि संविधान को बनाए रखने सबकी जिम्‍मेदारी है। एक बेहतर समाज का निर्माण कदम दर कदम किया जा सकता है। अंत में, 'जय भीम' (एक अम्बेडकरवादी नारा) आशा की एक किरण लाता है। संक्षेप में, एक मराठी कविता इसे कहती है - 'जय भीम' का अर्थ है प्रकाश ... प्रेम ... अंधेरे से प्रकाश की यात्रा ... अरबों लोगों के आंसू।

    (लेखक से @shaileshwar21 पर संपर्क किया जा सकता है )

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