अर्ध सत्य : भारतीय पुलिस की कार्यप्रणाली को समझाती एक खास फिल्म

सुरभि करवा

24 Nov 2019 8:39 AM GMT

  • अर्ध सत्य : भारतीय पुलिस की कार्यप्रणाली को समझाती एक खास फिल्म

    "जब कोर्ट की तारीख आने वाली होती है तो हम छुट्टी लेकर केस डायरी भरते है." यह बात मैंने हाल ही में पुलिस रिफार्म पर हुई एक कांफ्रेंस में सुनी थी. भारत में पिछले चार दशकों से पुलिस सिस्टम को सुधारने, उसमें रिफार्म करने की बात चल रही है पर हमारी पुलिस व्यवस्था अत्यधिक कार्यभार में दबी हुई है, वह आज भी एक औपनिवेशिक सिस्टम और अंग्रेज़ों के जमाने से चले आ रहे कानूनों के साथ कई पूर्वाग्रहों में काम करती है. और इसी सन्दर्भ में अर्ध सत्य एक बेहद महत्वपूर्ण फिल्म है. भारतीय पुलिस मशीनरी पर आज तक बनी फिल्मों में यह एक ऐसी फिल्म है जिसने सिस्टम पर बेहद बारीक समझ का परिचय दिया है.

    बॉलीवुड में कई फ़िल्में पुलिस पर बनी है पर मुख्यधारा के हिंदी सिनेमा की अधिकांश फ़िल्में पुरुषोचित घमंड और भीड़ तंत्र की मानसिकता पर आधारित फ़िल्में है. हाल ही में बनी सिंघम, दबंग, सिंबा आदि इसी तरह की भीड़ तंत्र मानसिकता आधारित फ़िल्में है. पर अर्ध सत्य ,भारतीय पुलिस सिस्टम के सामाजिक- राजनैतिक परिदृश्य और उसके मानसिक मूल्यों की व्याख्या है. अर्ध सत्य का मुख्य किरदार अनंत वेलणकर (ओम पुरी) एक भारतीय पुलिस कर्मचारी के संघर्षों, उसकी अच्छाइयों, उसकी कमियों पर एक दुर्लभ व्याख्या है.

    फिल्म जाने-माने डायरेक्टर गोविन्द निहलानी द्वारा निर्देशित है और विजय तेंदुलकर द्वारा इसका स्क्रीन प्ले लिखा गया है. ओम पुरी, स्मिता पाटिल, नसीरुद्दीन शाह, सदाशिव अम्रापुकार, इला अरुण, अमरीश पुरी ने फिल्म में अभिनय किया है.

    फिल्म, अनंत वेलणकर (ओम पुरी) , मुंबई पुलिस के एक सब-इंस्पेक्टर की कहानी है जो लिटरेचर पढ़ना चाहता था और प्रोफेसर बनना चाहता था पर अपने कठोर स्वाभाव के पिता (अमरीश पुरी) के दबाव में वह पुलिस मशीनरी ज्वाइन करता है. अनंत एक आदर्शवादी या 'नेक और क़डक' अधिकारी (जैसे कि रामा शेट्टी (सदाशिव अम्रापुरकर) कहता है) की तरह पुलिस ज्वाइन करता है पर जल्द ही सिस्टम का भ्रष्टाचार, राजनैतिक हस्तक्षेप और उसके अपनी मर्दानगी/ पौरुष को लेकर संघर्ष, उसके आदर्शवाद को चोट पहुंचाते है. अंतत: वह अपनी कस्टडी में एक व्यक्ति की हत्या कर देता है और दूसरा माइक लोबो बन जाता है.

    माइक लोबो (नसीररूद्दीन शाह) एक ज़माने में एक ईमानदार अफसर हुआ करते थे पर सिस्टम के दबाव के चलते वे सड़क पर भीख मांगने पर मजबूर हो जाते है. माइक सिस्टम को अंदर से सुधारने के प्रयास का अकेलापन दिखाने वाला किरदार है. चुपचाप अपनी नौकरी करो अन्यथा तुम भी लोबो की तरह अकेले हो जाओगे, अनंत को उसके साथी बार-बार यह आगाह करते है.

    1983 से 2019 तक- 'दुर्भाग्यवश यह फिल्म आज भी प्रासांगिक है-

    यह फिल्म में 1983 आयी थी जब भारत में मानवाधिकार आंदोलन अपने शुरुआती दौर में था. एस. पी गुप्ता केस 1981 में आया ही था जिसने आने वाले वक़्त में जनहित याचिका की आधारशिला रखी. पीयूसीएल की स्थापना कुछ ही वर्ष पूर्व 1976 में हुई थी. सुनील बत्रा, चार्ल्स सोबराज, फ्रांसिस सी मुलीन आदि केस जिनमें कैदियों के अधिकारों की बात कही गयी है, आना शुरू ही हुए थे. बहुचर्चित डी. के. बासु गाइडलाइन्स अभी भी आनी बाकी थी. पुलिस रिफार्म के सन्दर्भ में नेशनल पुलिस कमीशन कुछ वर्ष पहले ही 1979 में स्थापित किया गया था. संक्षेप में कहा जाए तो पुलिस के संवैधानीकरण और मानवाधिकार संवेदनशीलता का दौर अभी शुरू ही हुआ था.

    एक आदर्श स्थिति में हमें इन स्टैण्डर्ड तक पहुँच जाना चाहिए था. हमें पुलिस स्ट्रक्चर का आमूलचूल परिवर्तन कर उसे संविधान के ट्रांस्फॉर्मटिव विज़न के अनुसार ढाल देना चाहिए था. पर आज़ादी के 70 सालों और इस फिल्म के 40 सालों बाद भी हम ऐसा करने असफल रहे है. 1979 के पुलिस कमीशन की सिफारिशों पर एक्शन होना अब अभी बाकी है. सुप्रीम कोर्ट की प्रकाश सिंह केस में दी गयी गाइडलाइन्स अब भी पूरी तरह से लागू नहीं हुई है.

    अर्ध सत्य को भारतीय पुलिस के इतिहास की एक फिल्म होना चाहिए था, न कि उसके वर्तमान की. पर दुर्भाग्यवश 1983 में बनी यह फिल्म पुलिस के सन्दर्भ में आज 2019 में भी प्रासंगिक बनी हुई है. फिल्म का भारतीय पुलिस को लेकर यथार्थवाद आज भी उतना ही तीव्र है जितना वह 1983 में रहा होगा.

    पुलिस सिस्टम में राजनैतिक हस्तक्षेप-

    भारतीय पुलिस मशीनरी में निरंकुश राजनैतिक हस्तक्षेप एक खुला राज़ है. तफ्तीश से लेकर ट्रांसफर, अनुशासनात्मक कार्यवाहियों, पोस्टिंग आदि पुलिस मशीनरी के हर मामले में राजनैतिक हस्तक्षेप उपस्थित है. स्टेट ऑफ़ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट, 2019 के मुताबिक हर 5 में से 2 पुलिस कर्मचारियों का मानना है कि किसी अपराध की तफ्तीश करने में राजनैतिक हस्तक्षेप सबसे बड़ा रोड़ा है.

    अर्ध सत्य में रामा शेट्टी एक लोकल गुंडा है जो कई तरह के गैर-कानूनी व्यवसायों में शामिल है. उच्च पुलिस अधिकारियो से लेकर राजनेताओं तक सब उसके 'पर्सनल फ्रैण्ड' है. अनंत कई बार शेट्टी और उसके साथियों को न्याय के दायरे में लाने का प्रयास करता है पर हर बार असफल रहता है. जब एक मृत व्यक्ति के अंतिम बयान पर वह शेट्टी को गिरफ्तार करने जाता है तो शेट्टी बड़े बेपरवाही से जवाब देता है- "गिरफ्तार करने आये हो? जाओ. कल आना." उसके सहकर्मी लगातार उसे 'चुपचाप' नौकरी करने का सुझाव देते है. "क्या वह खुद को खुदा समझता है",- इस तरह के सवाल उससे लगातार किये जाते है. अनंत के उच्च अधिकारी उसे बर्खास्तगी की धमकी देते है अगर उसने शेट्टी को किसी भी तरह से हानि पहुंचाई. अंतत: अनंत हारा हुआ सा महसूस करता है और स्थिति को स्वीकार करते हुए शेट्टी की इलेक्शन रैली में ड्यूटी करने लगता है.

    यह राजनैतिक हस्तक्षेप पोस्टिंग, अपॉइंटमेंट. इन्क्वायरी सम्बन्धी मामलों में भी दिखाई देता है. अनंत स्वयं एक 'दिल्ली वाले कांटेक्ट"(यानि दिल्ली में बैठे किसी राजनेता) के सहयोग से अपने ऊपर चल रही अनुशासनात्मक कार्यवाही से बचता है. फिल्म के अंत में भी अपनी कस्टडी में हत्या के सन्दर्भ में भी वह रमा शेट्टी के पास राजनैतिक हस्तक्षेप के सन्दर्भ में जाता है.

    पौरुष, पितृ सत्ता और पुलिस-

    पितृसत्ता आदमियों पर 'मर्द' होने का बोझ डालती है. पुरुषों से लगातार ये उम्मीद की जाती है कि वे 'मर्द' होने के सामाजिक-सांस्कृतिक मानदंडों को पूरा करे. यह उम्मीद एक पुलिस यानि 'मैन इन यूनिफार्म' से और अधिक होती है. वर्दी पहने हुए एक पुलिस अधिकारी 'मर्दानगी' का सबसे बड़ा उदहारण है. हालाँकि मर्दानगी की इस उम्मीद का पुलिस सिस्टम पर क्या प्रभाव पड़ता- इस पर और रिसर्च किया जाना चाहिए पर फिर भी यह कहना गलत नहीं होगा कि यूनिफार्म का पुरुषोचित क्रोध के टूल के तौर पर इस्तेमाल होता है. अनंत का किरदार वर्दी पहने पुरुष होने के इसी संघर्ष को दर्शाता है.

    एक बच्चे के तौर पर अनंत ने अपने पिता को अपनी माँ को पीटते, प्रताड़ित करते हुए देखा है. वक़्त के साथ उसमें एक गुस्सा है और अपनी मर्दानगी को लेकर संघर्ष है कि वह अपनी माँ की 'रक्षा' नहीं कर सका. पुलिस ज्वाइन करने पर अपनी मर्दानगी साबित करने की ये लड़ाई उसके हर एक्शन में दिखती है. वह तुरंत अपराधियों को सजा देकर अपना मर्द होना साबित करना चाहता है. कस्टडी में हिंसा,रामा शेट्टी के प्रति गुस्सा इसी मर्द जैसा महसूस करने की चाह नतीजा है. खुद अनंत की भाषा में – "रामा शेट्टी का नाम सुनता हूँ तो सर भन्ना जाता है, ऐसा लगता है जैसे किसी ने मेरी मर्दानगी को ललकारा है." वह उन लोगों को बुरी तरह पीटता है जो उसकी महिला मित्र के साथ छेड़छाड़ करते है. (गौर से सोचा जाए तो मर्दानगी का यह गुस्सा ही है जो बलात्कार के अपराधियों को बिना ट्रायल के सजा, मृत्यु दंड आदि की माँग करता है पर यही अनंत अपने साथियों के साथ महिलाओं पर अभद्र व्यंग करता है.

    उत्पीड़न/ यातना और पुलिसिंग-

    भारत ने यूनाइटेड नेशन कन्वेंशन अगेंस्ट टार्चर पर हस्ताक्षर तो किये है पर अभी उसे कानूनी के रूप में पास नहीं किया गया है. सुप्रीम कोर्ट में इस सन्दर्भ में कानून बनाये जाने की माँग के साथ एक याचिका भी दायर की गयी थी. पर टार्चर सिस्टम के लिए एक स्वीकार्य बात हो चुकी है. बल्कि टार्चर के ऐसे तरीके विकसित किये गए है कि व्यक्ति को इस प्रकार से प्रताड़ित किया जाए कि शरीर पर चोट का कोई निशान न रहे.

    फिल्म टार्चर की इस स्वीकार्यता को उल्लेखित करती है. जब अनंत की कस्टडी में उसकी पिटाई के चलते एक व्यक्ति मर जाता है तो उसके पिताजी यह कहते हुए उस पर बहुत नाराज होते है कि संभल कर पीटना चाहिए था. अनंत दूसरी तरफ अपनी सफाई में यह कहता है कि उसने देखकर/ संभल कर ही पीटा था. कोई भी व्यक्ति जो टार्चर की सर्वमान्यता को पर सवाल उठाते हुए किसी अन्य विकल्प की बात करता है तो उसे 'गूढ़ दिमाग' (जैसे अनंत की माँ को) कहकर नकार दिया जाता है. उसे कहा जाता है कि तुम प्रैक्टिकल वास्तविकता को नहीं जानते हो.

    क्रिमिनल को पीटे बिना उनसे सच नहीं निकलवाया जा सकता.

    टार्चर स्वयं संविधान का उल्लंघन नहीं समझ जाता बल्कि उसे सावधानी से करना चाहिए ताकि शरीर पर कोई निशान न रहे.

    फिल्म पुलिस की और भी कई चुनौतियों पर प्रकाश डालती है जैसे भ्रष्टाचार, विभिन्न संस्थाओं के बीच खींच तान (क्राइम ब्रांच और पुलिस के बीच). पुलिस किस वर्ग के वर्ग हितों की रक्षा करती है- ये बात भी सामने आती है. अत: जहाँ रामा शेट्टी जैसे व्यक्ति का पुलिस कुछ नहीं कर पाती वही एक छोटा सा चोर पुलिस की यातना सहते हुए मारा जाता है. मजदूरों की हड़ताल के दौरान भी यही बात सामने आती है.

    भारतीय संविधान के ट्रांस्फॉर्मटिव विज़न में हमें एक सामंती सिस्टम को छोड़कर समतामूलक समाज की स्थापना करनी थी. पर क्या हमारे पुलिस सिस्टम में इन मूल्यों का पूर्णत: अंगीकरण हुआ है? या फिर पुलिस अंग्रेज़ों के जमाने से चली आ रही अपनी व्यवस्था के चलते है हर उस व्यक्ति की कमर तोड़ने और साहस को तोड़ने को तत्पर है जो सूक्ष्म रूप में भी संविधान के उस ट्रांस्फॉर्मटिव विज़न को आगे बढ़ाना चाहता/चाहती है? हमारे क्रिमिनल लॉ और उसे लागू करने वाली मशीनरियों का संवैधानीकरण करने की आवश्यकता है. यह फिल्म इस बात की एक उचित व्याख्या है कि हम हमारे सिस्टम को ट्रांस्फॉर्मटिव बनाने में हम कहाँ असफल हो गए. कोई भी व्यक्ति जो क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के साथ काम करना चाहता है उसे फिल्म जरूर देखनी चाहिए.

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