जानिए कॉमन सिविल कोड क्या है

Shadab Salim

25 April 2022 12:06 PM GMT

  • जानिए कॉमन सिविल कोड क्या है

    कॉमन सिविल कोड भारत में एक राजनीतिक मुद्दा रहा है। इस मुद्दे पर समय-समय पर बहस होती रही है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 में समान सिविल संहिता का उल्लेख मिलता है, जहां राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में संविधान में राज्य को कॉमन सिविल कोड के लिए प्रयास करने हेतु निर्देशित किया है। आधुनिक भारत में कॉमन सिविल कोड की आवश्यकता प्रतीत होती है, हालांकि इस पर स्पष्ट और खुलकर बातचीत कभी भी नहीं हो पाई क्योंकि जनता में इस मुद्दे को विवाद का मुद्दा बना दिया गया है। यदि ध्यानपूर्वक देखें तो कॉमन सिविल कोड के लाभ भी हैं।

    कॉमन सिविल कोड का अर्थ होता है सभी व्यक्तिगत विधियां एक समान कर दी जाएं। अभी भारत में व्यक्तिगत विधियां अलग-अलग हैं।

    व्यक्तिगत विधियां किसे कहा जाता है?

    व्यक्तिगत विधियां उन कानूनों को कहा जाता है जो नागरिकों के निजी मामले को नियमित करते हैं। जैसे कि विवाह, तलाक, भरण पोषण, बच्चा गोद लेना और उत्तराधिकार। यह सभी मामले नागरिकों के व्यक्तिगत मामले है, जिस समय भारत का संविधान बनाया गया तब इन मामलों में भारत के सभी लोगों को उनके धर्म या जाति के रीति-रिवाजों के अनुसार कानून मानने की छूट दी गई। वर्तमान में सभी संप्रदायों के लिए अपने अपने व्यक्तिगत कानून हैं।

    जैसे कि हिंदू समुदाय के लिए हिंदू विवाह अधिनियम,1955, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम,1956 इत्यादि उपलब्ध हैं। यह दोनों कानून हिंदुओं के व्यवहार और उनके उत्तराधिकार के मामलों को नियमित करते हैं। इसी तरह मुसलमानों के लिए भी पार्लियामेंट में कुछ कानून बनाए हैं जैसे कि मुस्लिम विवाह तलाक अधिनियम,1939। इस अधिनियम में मुसलमान महिलाओं को अपने पति से तलाक लेने के अधिकार दिए गए हैं।

    यह अधिनियम भारत की स्वतंत्रता के पूर्व बनाया गया है। इस अधिनियम में तलाक लेने के जो अधिकार दिए गए हैं, वह सभी अधिकार लगभग लगभग हिंदू विवाह अधिनियम की तरह ही हैं।

    जिस तरह हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 में दिए गए आधारों पर तलाक लिया जा सकता है। इसी तरह मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939 में दिए गए आधारों पर एक मुस्लिम महिला तलाक ले सकती है।

    हालांकि मुसलमान पुरुष को तलाक देने के अधिकार पार्लियामेंट द्वारा नहीं दिए गए, अपितु उन्हें अधिकार शरीयत से दिया जाएगा। एक मुसलमान पुरुष के पास शरीयत के अनुसार मुसलमान औरत को तलाक देने के लिए चार से पांच तरीके उपलब्ध हैं। हाल ही में तलाक ए बिदअत जिसे तीन तलाक कहा जाता है को भारत के पार्लियामेंट में प्रतिबंधित कर दिया है।

    अब कोई भी मुसलमान पुरुष अपनी पत्नी को एक साथ तीन तलाक नहीं दे सकता और इसे किसी भी न्यायालय द्वारा नहीं माना जाएगा। हालांकि मुसलमान पुरुष को शरीयत में दिए गए अधिकारों के अनुसार तलाक देने पर काफी दिक्कत आती है क्योंकि ऐसी तलाक साबित नहीं हो पाती। जब तक न्यायालय में तलाक साबित नहीं होती है, तब तक तलाक को नहीं माना जा सकता।

    किसी मुसलमान पुरुष की विवाहित महिला कोर्ट में यह कह सकती है कि उसे किसी भी तरह का कोई तलाक नहीं दिया गया। आजकल कोर्ट के बगैर हस्तक्षेप के तलाक कहीं भी मान्य नहीं किए जा रहे हैं। ऐसे में कॉमन सिविल कोड की आवश्यकता प्रतीत होती है, क्योंकि इस मामले को सभी के लिए एक जैसा सहिंतापूर्वक कर दिया जाए, तब सारे भ्रम समाप्त हो जाएंगे।

    वर्तमान में जो कानून हिंदुओं के लिए है लगभग वैसा ही कानून मुसलमानों के लिए भी हैं, लेकिन समझा जाता है कि दोनों ही कानूनों में अंतर है। अधिनियम के नाम भले ही अलग-अलग है लेकिन उसका मटेरियल लगभग एक ही जैसा है।

    उत्तराधिकार के मामले में भी न्यायालय लड़का और लड़की को बराबर मान कर चल रहा है। स्त्री पुरुष दोनों को उत्तराधिकार के मामले में समानता दे दी गई है। ऐसी स्थिति में किसी धर्म की या किसी जाति की कोई भी ऐसी विधि जो स्त्री पुरुषों में भेदभाव कर रही है उसे न्यायालय नहीं मान रहा है।

    विवाह तलाक भरण पोषण एवं उत्तर अधिकारी यह सभी विधियां समस्त भारत के लिए एक तरह से कर दी जाए, इसे ही कॉमन सिविल कोड कहा गया है। हालांकि शादी करने के तरीके सभी को अलग अलग मिलेंगे लेकिन तलाक जैसा विषय एक ही आधार पर होगा। आज भी लगभग तलाक के अधिकार सभी जातियों प्रथाओं में एक जैसे ही है, 80 फीसदी उनमें कोई भी अंतर नहीं है। कुछ थोड़ा बहुत अंतर मालूम होता है, कॉमन सिविल कोड में ऐसे अंतर को बरकरार रखा जा सकता है।

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