ये आज़ादी महंगी है : "कानून, कैदी और कशमकश "

LiveLaw News Network

28 May 2020 7:12 AM GMT

  • ये आज़ादी महंगी है :  कानून, कैदी और कशमकश

    प्रज्ञा पारिजात सिंह

    ( पैरोल पर छूटे कैदियों से हुई बातचीत के आधार पर लेख )

    जैरमी बैंथम ने अपने उपयोगितावाद के सिद्धांत में कहा था कि अपराधी को उतनी ही सज़ा मिलनी चाहिए जितना उसे किसी अपराध को करने में फायदा हुआ है। इसके साथ ही बैंथम का मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति को मुनाफ़े के लिए काम करना चाहिये, चाहे वह दिखे या ना दिखे।

    हमारे देश सहित सभी आधुनिक जेल प्रणालियां आज इसी सिद्धांत और सुधारात्मक न्याय प्रणाली पर आधारित हैं। इस सिद्धांत पर विचारकों के बीच काफी मतभेद हैं, जो एक अलग विवाद का विषय हैं। यहां आज मैं तिहाड़ अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी तिहाड़ जेल से पैरोल पर बाहर आये कैदियों से हुई बातचीत के आधार पर यह रिपोर्ट लिख रही हूं।

    कोरोना संक्रमण ने दुनिया भर में भारी तबाही मचाई है। भारत भी इसकी चपेट में आया है, विशेष वर्ग , प्रवासी मज़दूर, महिलाएं, बच्चे, बुज़ुर्ग , दिहाड़ी मज़दूर कोई भी अछूता नहीं रह पाया। भारत न सिर्फ आज बाह्य जंग लड़ रहा है, बल्कि इस बीमारी के खिलाफ अपितु एक अंदरूनी संघर्ष ने भी देश को झकझोर के रख दिया है।

    सरकार ने विशेष प्रबंध किये लेकिन ऐसी श्रेणी के लोगों के लिए दुर्भाग्यवश ये अभी भी परिपूर्ण नहीं हैं। एक ख़ास दुनिया की नज़रों से परे दीवार के उस पार सलाखों के पीछे कुछ लोगों की एक अलग दुनिया बसती है, जिन्हे कैदी कहते हैं। चूंकि हमारे देश के कारागार खचा खच भरे हैं, संक्रमण फैलते सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर कुछ खास श्रेणी के कैदियों को छोड़ने के लिए कवायद शुरू हुई।

    लॉक डाउन शुरू होते ही चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) एस.ए. बोबड़े की अगुवाई वाली बेंच ने सभी राज्यों को एक कमिटी बनाने का निर्देश दिया। ये कमिटी जेल की भीड़ कम करने पर काम करेगी। राज्यों से ये निर्धारित करने को कहा गया है कि किस श्रेणी के कैदियों को, दोषियों को और अंडरट्रायल्स (विचाराधीन) कैदियों को रिहा किया जा सकता है, या किसे जमानत या पेरोल दी जा सकती है।

    अच्छी बात ये है की इस निर्देश को कई राज्यों ने लागू किया जिसकी वजह से काफी अंडर ट्रायल कैदियों को रिहाई या पैरोल मिली।

    पैरोल किसे कहते हैं

    पैरोल भी कैदियों से जुड़ा एक टर्म है, इसमें कैदी को जेल से बाहर जाने के लिए एक संतोषजनक/आधार कारण बताना होता है। प्रशासन, कैदी की अर्जी को मानने के लिए बाध्य नहीं होता। प्रशासन कैदी को एक समय विशेष के लिए जेल से रिहा करने से पहले समाज पर इसके असर को भी ध्यान में रखता है। पैरोल एक तरह की अनुमति लेने जैसा है, इसे खारिज भी किया जा सकता है।

    पैरोल दो तरह के होते हैं, पहला कस्टडी पैरोल और दूसरा रेग्युलर पैरोल।

    कस्टडी पैरोल

    जब कैदी के परिवार में किसी की मौत हो गई हो या फिर परिवार में किसी की शादी हो या फिर परिवार में कोई सख्त बीमार हो, उस वक्त उसे कस्टडी पैरोल दिया जाता है। इस दौरान आरोपी को जब जेल से बाहर लाया जाता है तो उसके साथ पुलिसकर्मी होते हैं और इसकी अधिकतम अवधि 6 घंटे के लिए ही होती है।

    रेग्युलर पैरोल

    रेग्युलर पैरोल दोषी को ही दिया जा सकता है, अंडर ट्रायल को नहीं। अगर दोषी ने एक साल की सजा काट ली हो तो उसे रेग्युलर पैरोल दिया जा सकता है।

    अतः सुप्रीम कोर्ट का ये आर्डर जेल कस्टडी में स्थित कैदियों जो की अंडर ट्रायल हैं, केवल उन्हें दिया जा सकता है।

    जेल से जुड़ा एक और शब्द है - फरलो, क्या है फरलो ?

    फरलो एक डच शब्द है, इसके तहत कैदी को अपनी सामाजिक या व्यक्तिगत जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए कुछ समय के लिए रिहा किया जाता है। इसे कैदी के सुधार से जोड़कर भी देखा जाता है। दरअसल, तकनीकी तौर पर फरलो कैदी का मूलभूत अधिकार माना जाता है।

    पैरोल मिलने के कानूनी नियम

    1. पूर्ण और असाध्य अंधापन

    2. कोई कैदी जेल में गंभीर रूप से बीमार है और वो जेल के बाहर उसकी सेहत में सुधार होता है

    3. फेफड़े के गंभीर क्षयरोग से पीड़ित रोगी को भी पैरोल प्रदान की जाती है. यह रोग कैदी को उसके द्वारा किए अपराध को आगे कर पाने के लिए अक्षम बना देता है। या इस रोग से पीड़ित वह कैदी उस तरह का अपराध दोबारा नहीं कर सकता, जिसके लिए उसे सजा मिली है।

    4. यदि कैदी मानसिक रूप से अस्थिर है और उसे अस्पताल में इलाज की जरूरत है।

    सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश को प्राथमिकता देते हुए जस्टिस हिमा कोहली, जस्टिस सुब्रमणियम प्रसाद ( दिल्ली हाई कोर्ट), ने एक उच्च शक्ति कमिटी का गठन किया जिसने निर्देश दिया की स्पेशल बेल का प्रावधान है कैदियों को कोरोना संक्रमण के समय बाहर निकालने का है और इसका अन्तर्निहित सन्देश जेल की जनसँख्या को काबू में रखने का था।

    इसके अलावा रिमांड होम में रह रहे जुवेनाइल कैदियों को रिहा करने को लेकर भी सुझाव देने को कहा है। यानी एक लाइन में कहें तो कोर्ट ने जेल-रिमांड होम में कोरोना वायरस के खतरे को रोकने के लिए राज्य सरकारों से सुझाव मांगा है।

    कहते हैं आज़ादी महगी हैं, इसकी एक कीमत होती है

    जेल के बाहर और अंदर की दुनिया एकदम अलग है। अंदर रहते रहते जेल के अन्य कैदी ही परिवार बन जाते हैं। मेरे जेल के काउंसलिंग के दिनों में ऐसे अनेक कैदियों से बात हुई जो पैरोल पर बाहर भी निकले हैं, इस उम्मीद में की सूरज की धूप बाहर उनके लिए उजाला लेकर आएगी किन्तु व्यहवारिक परिस्थितियां और समाज में उनको कीड़े मकोड़ों की तरह देखने वाली नज़र उन्हे ये कहने पर मज़बूर कर देती है कि "हम यहीं अच्छे हैं , काश बाहर कभी न जाना पड़े। "

    कोर्ट के इस ऑर्डर के बाद बाहर जाना तो संभव हो गया है लेकिन इस दौरान खाना और ऊपर से परिवार के भरण पोषण करने की ज़िम्मेदारी उनको और तोड़ के रख दे रही है। ऐसे कैदियों को आज़ादी महंगी पड़ रही है।

    श्रमिक व कामगार देश की रीढ़ की हड्डी हैं। उनकी मेहनत और कुर्बानी राष्ट्र निर्माण की नींव है। 1947 के बंटवारे के बाद देश ने पहली बार यह दिल दहलाने वाला मंजर देखा कि हजारों श्रमिक व कामगार सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल घर वापसी के लिए मजबूर हो गए। उनके पास न राशन, न पैसा, न दवाई, न साधन है, पर केवल अपने परिवार के पास वापस गांव पहुंचने की लगन है। उनकी व्यथा सोचकर ही हर मन काँप जाता है।

    इसी प्रकार तिहाड़ जेल के यह कैदी भी हैं जो पैरोल मिलने से अपने घर तो पहुंच गए, लेकिन इन कैदियों के पारिवारिक पक्ष पर भी ध्यान देना चाहिए था। तिहाड़ जेल के कैदी भी तिहाड़ जेल प्रणाली या व्यवस्था का एक अभिन्न अंग हैं।

    कोरोना संक्रमण के दौर में जहाँ सभी प्रवासी मजदूर अपने घर पहुंचने की लड़ाई लड़ रहे हैं। वही भारत सरकार के सामने आज यही एक बड़ा सवाल बना हुआ है, जिस पर भारत सरकार और अन्य राज्य सरकारें अपने अपने स्तर पर विभिन्न योजनाएं बना रही हैं। इसी कड़ी में तिहाड़ के कैदियों पर निर्णय लेते हुए दिल्ली राज्य सरकार द्वारा लगभग 1600 कैदियों को पैरोल पर 4 माह के लिए छोड़ दिया है। लेकिन शायद सरकार यहां यह भूल गई कि यह कैदी जब सजा मिलने के बाद जेल में आते है तब यह सिर्फ़ एक कैदी नहीं होते बल्कि कैदी होने के साथ-साथ ये तिहाड़ जेल की अर्थव्यवस्था का भी हिस्सा बन जाते हैं।

    इन कैदियों की यह सच्चाई बाहरी समाज की आंखों से काफ़ी दूर है। एक अनुमान के अनुसार तिहाड़ जेल फैक्टरी की सालाना आय लगभग 35 करोड़ है।

    हम जानते हैं कि कैद होने के बाद कैदी पूर्ण रूप से सरकारी मदद पर निर्भर रहता है और कारागार में कार्य करके उचित मानदेय प्राप्त कर अपने परिवार व अपना भरण पोषण करता है।

    तिहाड कारागार में बन्द 90% कैदी कारागार फ़ैक्टरी एवं अन्य संबंधित स्थानो में कार्य करते हैं और दिल्ली सरकार द्वारा निर्धारित प्रतिदिन का मिनिमम वेज प्राप्त करते हैं। जिसमे तिहाड कारागार में बन्द कैदी को इसी मजदूरी से अपना मेन्टीनेन्स का पैसा भी देना होता है।

    लेकिन यह भी एक समस्या है कि कैदी के वेज से मेन्टीनेन्स के पैसे का कटना अप्रासंगिक है क्योकि जो कैदी काम करे वह यह राशि चुकाता है एवं जो कैदी काम नहीं करते, उनका ये पैसा सरकार देती है।

    दिल्ली सरकार द्वारा स्वीकृत नयी मिनिमम वेजेज की दर अभी भी कैदियों के लिए स्वीकृत नहीं है और दिल्ली सरकार के द्वारा आदेश प्राप्त होने के बावजूद भी एक वर्ष के बाद भी कारागार विभाग द्वारा इसे लागू नहीं किया गया है।

    जहां आज केन्द्र की सरकार ने सभी गरीबो कामगारों और जरूरतमन्द लोगों के लिय विशेष आर्थिक पैकेज की घोषणा की है एवं उन्हे भरण पोषण के लिए उचित धनराशी प्रदान कराई जा रही है, वही यह कैदी हर रोज जेल प्रशासन को गुहार लगा रहे हैं कि उनको परोल नही चाहिए उनकी परोल को खत्म कर दिया जाए, ताकि वे काम कर सकें जिससे प्राप्त उनकी तनख्वाह से उनके परिवार को भरण पोषण हो सके।

    एक सामान्य कैदी भी इसी कैटेगरी में शामिल हैं, जो इस लाभ प्राप्त के लिये अनुकूल है। यह एक कड़वी सच्चाई है कि एक कैदी जो कारागार में बन्द होता है तब उस परिस्थिति में उसके पास आजीविका का कोई साधन नहीं होता है और एक परिवार व समाज में स्वयं को पालने पोषण करने के लिए पैसे की जरूरत होती है, जिसके बिना उसे भीख मांगने के लिए मजबूर होना पड़ेगा, क्योकि आज वैसे भी जेल से बाहर लॉकडाउन के चलते सभी रोजगार ठप पड़े है। अगर रोजगार होता भी तब भी समाज से बहिष्कृत इन कैदियों को जेल से बाहर सामान्य समाज मे नौकरी पाना नामुमकिन सा होता है।

    एक कैदी ने बातचीत के दौरान बताया कि आज कैदियो की तन्ख्वाह से काटी गयी धनराशी जो विक्टिम वेलफ़ेयर फ़ण्ड के रुप में मूल वेजेज का 25% काटा जाता था वह लगभग 17 करोड‌ रुपये कारागार में पड़ा हुआ है। आज तक इस धनराशी का सिर्फ़ कुल 55 लाख से लेकर 80 लाख तक ही खर्च हुआ है, लेकिन मैं इस पर कुछ नही बोलना चाहती। इस पर सरकार और जेल प्रशासन को निर्णय लेना है।

    लेकिन मेरा दिल्ली सरकार एवं कारागार प्रशासन से निवेदन कि कैदी की तनख्वाह नये मिनिमम वेजेज से दी जाएं व इस लॉकडाउन के दौरान भी सभी कैदी जो इमर्जेन्सी पैरोल पर बाहर हैं, उन्हें तनख्वाह या उचित धनराशी प्रदान कराई जाएं।

    सभी कैदी जो बाहर इमरजेन्सी पैरोल में हैं प्रशासन के द्वारा उनको व्यक्तिगत रुप से फ़ोन कर जो नम्बर रिकोर्ड में दर्ज है सभी कैदियों का एकाउन्ट नम्बर लेकर यह धनराशी NEFT के द्वारा कैदी के बैन्क खाते में जमा कराई जाये जिससे एक आम कैदी इस मुश्किल वक्त मे अपने व अपने परिवार का भरण पोषण कर सके।

    मार्कस सिसरो ने लिखा था "

    " युद्ध के समय , कानून खामोश हो जाता है " लेकिन कोर्ट के निर्देश हैं कि यदि जज उपयुक्त पाते हैं तो बंदियों को इस समय पैरोल दी जाए। यह एक गहरा और मज़बूत सन्देश है। ये स्थिति युद्ध से कम भी नहीं। अतः मार्टिन लूथर किंग का सन्देश कि जब तक न्याय पानी की तरह और धर्म प्रवाह विहीन होकर निरंतर न बहे , वह न्याय, न्याय नहीं है।"

    समय की मांंग है की अधूरा न्याय न देकर सरकार इन ज़रूरतमंदों की सहायता हेतु उचित प्रबंध करे अन्यथा ये जेल में ही बेहतर हैं ..। कम से कम खाने की ज़रूरत तो पूरी होगी।

    (*प्रज्ञा पारिजात सिंह सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं और तिहाड़ जेल में 2 साल कानूनी सलाहकार भी रह चुकी हैं। सभी विचार लेखिका के निजी विचार हैं। )

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