क्या बिलकिस बानो मामले में सरकार द्वारा अपराधियों की रिहाई वैध है?

Lakshita Rajpurohit

25 Aug 2022 4:57 AM GMT

  • क्या बिलकिस बानो मामले में सरकार द्वारा अपराधियों की रिहाई वैध है?

    सारा देश 15 अगस्त को आजादी का अमृत महोत्सव माना रहा था और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल क़िले से अपने संबोधन में महिलाओं का सम्मान करने का प्रण लेने की बात कही थी, उसी दिन गुजरात सरकार ने सज़ा में माफी की नीति के तहत बिलकिस बानो गैंगरेप मामले के अपराधियों को सजा से छूट [बिना सजा की प्रकृति को बदले सजा की अवधि को कम करना] देकर के उन्हें जेल से रिहा कर दिया।

    इन दोषियों की रिहाई का फ़ैसला गुजरात सरकार की बनाई गई एक समिति ने 'सर्वसम्मति'से लिया। इसके अलावा इन अपराधियों की रिहाई पर कुछ संगठनों द्वारा माला और मिठाई खिला कर स्वागत तक किया गया है।

    ग़ौर करने की बात यह भी है कि गुजरात सरकार ने यह फ़ैसला ऐसे समय पर लिया है जब केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को जून के महीने में एक चिट्ठी लिखी थी, उसमें ये कहा गया था कि उम्र-कै़द की सज़ा भुगत रहे और बलात्कार के दोषी पाए गए क़ैदियों की सज़ा माफ़ नहीं की जानी चाहिए। इस कारण दोषियों की यह रिहाई का मामला हर पटल पर लगातार सुर्खियों में बना हुआ है और देशभर में इस पर सवाल उठाए जा रहे हैं।

    इस मामले की शुरुआत 27 फरवरी 2002 को गुजरात के गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस के कोच को जला दिए जाने से होती है। इस ट्रेन से कारसेवक अयोध्या से लौट रहे थे तथा इससे कोच में बैठे 59 कारसेवकों की मौत हो गई थी। इसके बाद गुजरात में दंगे भड़क गए थे और दंगों की आग से बचने के लिए बिलकिस बानो अपनी बच्ची और परिवार के साथ गांव छोड़कर चली गई थी।

    बिलकिस बानो और उनका परिवार जहां छिपा था, वहां 3 मार्च 2002 को 20-30 लोगों की भीड़ ने तलवार और लाठियों से हमला कर दिया। भीड़ ने बिलकिस बानो के साथ बलात्कार किया। उस समय बिलकिस 5 महीने की गर्भवती थीं। इतना ही नहीं, उनके परिवार के 7 सदस्यों की हत्या भी कर दी थी और बाकी 6 सदस्य वहां से भाग गए थे। वर्ष 21जनवरी, 2008 को मुंबई की एक विशेष CBI अदालत ने 11 आरोपियों को दोषी पाया था और आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। बाद में बॉम्बे हाईकोर्ट ने उनकी सजा को बरक़रार रखा।

    गुजरात सरकार के इस फैसले का आधार :

    इन दोषियों ने 18 साल से ज्यादा सजा काट ली थी, जिसके बाद एक दोषी राधेश्याम शाही ने सीआरपीसी की धारा 432 और धारा 433 के तहत सजा को माफ करने के लिए गुजरात हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।

    वहां गुजरात हाईकोर्ट ने यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी,

    "उनकी माफी के बारे में फैसला करने वाली 'समुचित सरकार' महाराष्ट्र है, न कि गुजरात सरकार।

    गुजरात सरकार के अनुसार उन्होंने फ़ैसले पर पहुंचने के लिए वर्ष1992 की उस सज़ा-माफ़ी नीति को आधार बनाया है, जिसमें किसी भी श्रेणी के दोषियों को रिहा करने पर कोई रोक नहीं है।

    इन दोषियों में से एक राधेश्याम भगवानदास शाह की सज़ा-माफ़ी की अर्ज़ी का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और अपने फ़ैसले में कोर्ट ने कहा,

    "सज़ा-माफ़ी पर विचार साल 1992 की नीति के आधार पर किया जाए क्योंकि अभियुक्तों को जिस समय सज़ा सुनाई गई थी उस समय 1992 की नीति लागू थी।"

    लेकिन, वहीं गुजरात सरकार ने साल 2014 में सज़ा-माफ़ी के लिए एक नई नीति भी बनायी। राज्य के गृह विभाग ने 23 जनवरी 2014 को जारी निर्देश में कहा गया था कि दो या दो से अधिक व्यक्तियों की हत्या के लिए और बलात्कार या सामूहिक बलात्कार के दोषी सज़ायाफ़्ता कैदियों की सज़ा माफ़ नहीं की जाएगी। इस नीति में यह भी कहा गया कि अगर किसी दोषी के मामले की जांच CBI ने की है तो केंद्र सरकार की सहमति के बिना राज्य सरकार सज़ा-माफ़ी नहीं कर सकती। अगर सज़ा-माफ़ी के लिए इस समिति के प्रावधानों को आधार बनाया गया होता तो यह साफ़ है कि इस मामले के दोषियों को सज़ा-माफ़ी नहीं मिल सकती।

    तो यह सवाल उठना लाज़मी है कि क्या इस मामले में 2014 की नीति के बजाय 1992 की नीति के आधार पर फ़ैसला लेना सही था?

    यह विचार उस समिति की निष्पक्षता पर सवाल उठाता है और बाद यह बात सामने भी आई है कि जिस समिति ने इन दोषियों को सर्वसम्मति से रिहा करने का फ़ैसला लिया था, उसके 2 सदस्य भाजपा विधायक हैं, एक सदस्य भाजपा के पूर्व निगम पार्षद हैं और एक भाजपा की महिला विंग की सदस्य हैं।

    इस मामले पर कई सीनियर एडवोकेट और न्यायाधीशों ने कठोर आलोचना और टिप्पणी की हैं।

    हाल ही में सुप्रीम कोर्ट की सीनियर एडवोकेट रेबेका जॉन ने LiveLaw Network से बात करते हुए बताया,

    "बिलकिस बानो मामला एक अपवादित केस था, इसीलिए मामला महाराष्ट्र राज्य को विचारण के लिए अंतरित कर दिया गया था, क्योंकि यह आशंका थी कि गुजरात सरकार निष्पक्ष होकर कार्य नहीं करेगी। जहां मामले का विचारण होता वहां की सरकार ही सीअर्र्पीसी की धारा 432 के सन्दर्भ में "समुचित सरकार" मानी जायेगी। जब विचारण गुजरात में नहीं हुआ तो वह समुचित सरकार नहीं हो सकती और साथ ही विचारण करने वाले जज की सलाह लेना भी आवश्यक है। कोर्ट में विधि के प्रावधान, सीआरपीसी की धारा 432(2), 432(7) और धारा 435 CRPC को दरकिनार करते हुए अपना निर्णय दिया है।"

    इसी विषय में पूर्व जब जस्टिस (सेवानिवृत्त) यू.डी. साल्वी, जिन्होंने 2008 में बिलकिस बानो मामले में 11 दोषियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी, का कहना है,

    "दोषियों को रिहा करने से पहले उनसे कभी सलाह नहीं ली गई। राज्य सरकार को सज़ा में छूट देकर दोषी को रिहा करने का अधिकार है। हालांकि, उन शक्तियों का विधिक पहलुओं को ध्यान में रखकर उपयोग करना चाहिए। यही सबसे महत्त्वपूर्ण है और सरकार मामले का फैसला देने वाले जज की राय भी ले और शिकायतकर्ता के पक्ष को भी ध्यान में रखे। गुजरात सरकार के फैसले से पहले किसी ने मुझसे संपर्क नहीं किया। यह रिहाई उचित नहीं थी और रिहाई के बाद उन्हें सम्मानित भी किया गया, यह सही नहीं है।"

    हमारा यह मानना है कि यदि धारा 432(2),CRPC को पढ़ें तो स्पष्ट होता है कि सरकार द्वारा सजा में छूट देने की दशाओं में उस पीठासीन न्यायाधीश से परामर्श लेना एक आवश्यक नियम है। ऐसा लग रहा जैसे समिति का फ़ैसला मनमाना हो इसके अलावा अन्य विधि विद्वानों ने इसकी अत्यंत आलोचना करते हुए मत रखे।

    जैसे जम्मू एंड कश्मीर हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त जज जस्टिस बशीर कहते हैं, "निर्भया मामले के बाद क़ानून को और सख्त बनाया गया था। 1992 वाली नीति अपना कर दोषियों की सज़ा-माफ़ी का फ़ैसला रेप के क़ानून का रेप होने जैसा है।"

    दिल्ली हाईकोर्ट से सेवानिवृत्त जस्टिस आरएस सोढ़ी इस फ़ैसले को मनमाना बताते हुए कहा,

    "18 साल जेल में बिताने से आपको केवल सज़ा-माफ़ी के लिए आवेदन करने का अधिकार मिलता है, सज़ा-माफ़ी मनमाने ढंग से नहीं हो सकती। इस हिसाब से तो क्या बलात्कार के दोषी सभी लोग रिहाई के हकदार हैं? अगर न्याय को ठीक से लागू नहीं किया जा सकता है तो यह न्याय का मज़ाक़ है।"

    दिल्ली हाईकोर्ट से ही सेवानिवृत जज जस्टिस एस एन ढींगरा कहते हैं, "जब सज़ा-माफ़ी पर विचार किया जाता है तो वर्तमान में लागू नीति के आधार पर फ़ैसला किया जाता है, जो आज है। न की वो नीति जो अपराध के समय लागू थी।

    सीनियर एडवोकेट महमूद प्राचा कहते हैं,

    "सज़ा माफ़ी का सवाल तब उठता है जिस दिन आप सज़ा माफ़ी का आवेदन करने के योग्य होते हैं। उस समय जो विधि प्रवर्तन में है तो माफ़ी उसी के आधार पर आवेदन पर फ़ैसला लेना होगा। बिलकिस बानो मामले में यदि 2014 के बाद माफ़ी के लिए आवेदन किया गया है तो 2014 की नीति ही लागू होनी चाहिए न कि 1992 वाली नीति।"

    अब उपरोक्त विवेचन से हमारे सामने मुख्य 3 प्रश्न खड़े होते है जिस पर कोर्ट को पुनर्विचार किया जाना आवश्यक है, जैसे-

    1. विचारण करने वाले पीठासीन न्यायधीश से परामर्श नहीं किया गया।

    2. मामला CBI द्वारा अन्वेषक्ति (Investigated) होने के कारण केंद्र सरकर से सहमति क्यों नहीं ली गई?

    3. क्या वास्तव में विधि के नियमों का दुरुपयोग हुआ है?

    जब सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया कि सज़ा माफ़ी का फ़ैसला गुजरात सरकार ही कर सकती है, तब गुजरात सरकार द्वारा जो कमिटी बनाई उसके पास शक्तियां थी, लेकिन वह उन शक्तियों का प्रयोग आंख बंद कर के नहीं कर सकती। कमिटी के लिए यह आवश्यक था कि वे अपराध की प्रकृति, परिस्थिति और गंभीरता पर अवश्य विचार करते। न की केवल और केवल क़ैदी का व्यवहार और दोषियों द्वारा भोगी सजा को अपने निष्कर्ष का आधार बनाते। इस कारण ऐसी रिहाई कई सवाल अपने पीछे छोड़ जाती है।

    नोट- लेखक की राय व्यक्तिगत है और तथ्यों पर आधारित हैं।

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