क्या आपराधिक शिकायत में संशोधन स्वीकार्य है?

Lakshita Rajpurohit

3 Oct 2022 5:27 AM GMT

  • क्या आपराधिक शिकायत में संशोधन स्वीकार्य है?

    परिवाद या शिकायत से तात्पर्य ऐसी सूचना से है, जो प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) से भिन्न है।

    दंड प्रक्रिया संहिता (CRPC) में इसकी तकनीकी परिभाषा बताई गई है, जो इस प्रकार है-

    "धारा 2(d) शिकायत का अर्थ है किसी मजिस्ट्रेट को मौखिक या लिखित रूप से इस संहिता के तहत कार्रवाई करने की दृष्टि से कोई आरोप, कि किसी व्यक्ति, चाहे वह ज्ञात हो या अज्ञात, उसने अपराध किया है, लेकिन इसमें पुलिस रिपोर्ट शामिल नहीं है।

    स्पष्टीकरण.- किसी मामले में पुलिस अधिकारी द्वारा की गई रिपोर्ट, जो जांच के बाद, एक असंज्ञेय अपराध के किए जाने का खुलासा करती है, एक शिकायत मानी जाएगी; और वह पुलिस अधिकारी जिसके द्वारा ऐसी रिपोर्ट की जाती है, शिकायतकर्ता समझा जाएगा।"

    संहिता की धारा 190(1)(a) के अधीन मजिस्ट्रेट शिकायत पर दर्ज मामलों का संज्ञान ले सकता हैं, जिसके अन्तर्गत धारा 200–203 की प्रक्रिया का पालन किया जाना अनिवार्य है। जैसा कि मामला परिवाद पर दायर किया जाता है तो इसके विचारण की प्रक्रिया भी वारंट मामलों की प्रक्रिया से अलग होती है। हम इन प्रक्रियाओं को संक्षिप्त रूप से एक उदाहरण से समझ सकते है।

    जैसे- X ने किसी अपराध की सूचना दी, जिसे पुलिस अधिकारी द्वारा FIR के रूप में दर्ज नहीं किया गया। अब X के पास उपचार है कि वह अधिकारिता रखने वाले मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश हो कर अपनी शिकायत का लिखित/मौखिक रूप में आवेदन या याचिका पेश कर सकता है। इसके बाद मजिस्ट्रेट धारा 200 में वर्णित प्रक्रिया का अनुसरण करते हुए शिकायतकर्ता और उसके गवाहों का बयान रिकॉर्ड कर शिकायत पर संज्ञान लेगा और यदि मामला बनता है तब अभियुक्त के विरुद्ध इन्वेस्टिगेशन का आदेश दिया जायेगा और साथ ही सीआरपीसी की धारा 202 या 204 में आदेशिका (summon/warrant) भी जारी कर सकेगा। अन्यथा सीआरपीसी की धारा 203 में स्पीकिंग ऑर्डर के साथ शिकायत खारिज कर सकेगा और यदि ऐसा नहीं किया जाता तब विचारण शुरू किया जायेगा। जिसमें सीआरपीसी की धारा 244 से 247 तक ही प्रक्रिया का अनुपालन किया जायेगा।

    अब प्रश्न यहहैं कि जब परिवादी द्वारा कंप्लेंट फाइल की जाती है तब उस कंप्लेंट में संशोधन (Amendment) किया जा सकता है या नहीं?

    आपराधिक मामलों में जांच या विचारण की शुरूआत अपराध किए जाने की सूचना मिलने से प्रारंभ होती है। ऐसी सूचना या तो FIR द्वारा या शिकायत पेशकर के ट्रायल किए जाने के उद्देश से कोर्ट के ध्यान में लाई जाती है।

    कंप्लेंट केस में प्रथम दृष्टया मामला बनता है या नहीं, शिकायत की अंतर्वस्तु (contents) देखकर तय किया जाता है और वहीं धारा 200 के तहत संज्ञान लेने का आधार भी बनता है, क्योंकि न तो कोर्ट के पास कोई रिकॉर्ड है ना कोई चार्जशीट। इन मामलों में तो अंवेषण का आदेश भी संज्ञान लेने के बाद दिया जाता है। इसलिए मात्र और मात्र शिकायत में वर्णित तथ्यों व साक्षी (यदि कोई हो) के बयान के आधार पर ही मजिस्ट्रेट संज्ञान लेकर आदेशिका (Process -summon/warrant) जारी करता है।

    इसीलिए यह जानना आवश्यक हो जाता है कि शिकायतकर्ता एक बार मजिस्ट्रेट के सामने शिकायत पेश करने के बाद क्या उसमें कोई संशोधन कर सकता है या नहीं?

    सामान्य नियम के अनुसार आपराधिक शिकायत में संशोधन के लिए दंड प्रक्रिया संहिता में ऐसा कोई अभिव्यक्त प्रावधान नहीं है। लेकिन समय समय पर न्यायिक विवेचना द्वारा निर्णीत किया गया है कि ऐसा संभावित रूप से अनुज्ञात किया जा सकता है यदि मामले की परिस्थितियों की ऐसी मांग हो तब।

    सर्वप्रथम सुकुमार बनाम एस सुनंद रघुराम , (2015) 9 एससीसी 609 के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय किया गया,

    "यदि पक्षकार द्वारा मांगा संशोधन सामान्य प्रकृति या औपचारिक त्रुटि मात्र से संबंधित है और यह दूसरे पक्षकार पर अनुचित या विपरीत प्रभाव नहीं डालता हो तो अवश्य ही आपराधिक मामलों की शिकायत में संशोधन का आदेश अनुज्ञात (permissible) किया जा सकता है। संहिता में ऐसा कही वर्णित तो नहीं परंतु यह भी कही नही लिखा हैं की, संशोधन अनुज्ञात नहीं किया जायेगा।"

    इस निर्णित मामले में संशोधन की आज्ञा निम्नलिखित सीमाओं (limitations) के अन्तर्गत ही देने पर जोर दिया गया। जैसे,

    1. कोर्ट ऐसी आज्ञा दे सकता यदि उचित आवेदन पेश किया जाता है। संशोधन के आवेदन की मांग का परीक्षण न्याय के उद्देश्य की पूर्ति करने के अनुरूप हो, उसके आधार पर ही किया जाना चाहिए।

    2. ऐसा आवेदन मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान लेने के पहले किया जाना चाहिए। क्योंकि यदि एक बार संज्ञान ले लिया गया है तब कोर्ट अभियुक्त को आरोपित करते हुए समन/वारंट द्वारा स्वयं के समक्ष बुलाएगा।I इसके बाद यदि ऐसा आवेदन किया जाता है तो आवश्यक तौर पर अभियुक्त के हितों पर गलत अनुचित प्रभाव पड़ेगा।

    सामान्य रूप में धारा200 की प्रक्रिया के बाद समझा जाता है की शिकायत मामले में संज्ञान ले लिया गया है, अब अगर परिवादी उसी समय संशोधन का आवेदन कर ले तो कोर्ट आज्ञा दे सकता है।

    3. आवेदन तब भी अनुज्ञात किया जा सकता, जब संज्ञान ले लिया गया हो पर समन/वॉरंट जारी न किया हो। तब समझा जायेगा दूसरे पक्षकार(अभियुक्त) पर कोई अनुचित प्रभाव नहीं पड़ेगा और आवेदन को मंजूरी दी जा सकेगी।

    4. संशोधन मूल परिवाद के ढ़ांचे को परिवर्तित करने वाला नहीं होना चाहिए। कोई भी ऐसा संशोधन अनुज्ञात नहीं किया जायेगा जो नया वाद हेतु (cause of action) उत्पन्न करता हो या मामले के तथ्यों को ही नष्ट कर देता हो। परंतु अगर मामलों की बहुल्यता को रोकना हो तब संशोधन पोषणीय होगा। और ऐसा किन बिंदुओं या आधारों पर होगा!! यह सब हर मामले के तथ्यों या परिस्थितियों के अनुरूप ही तय किया जायेगा।

    5. संशोधन की ऐसी मांग कोर्ट से ऊपर बताए स्तरों (स्टेजेस) के बाद नहीं की जा सकेगी, ना ही अपील स्तर पर और न ही रिवीजन के स्तर पर।

    6. सब से महत्त्वपूर्ण, हालांकि धारा 200 व धारा 202 की कार्यवाही के समय अभियुक्त को सुने जाने की इजाजत नहीं है। लेकिन परिवादी ने संशोधन के लिए आवेदन दाखिल किया है तब अभियुक्त को भी इसके विरुद्ध आक्षेप उठाने का अवसर दिया जायेगा और उसी कोर्ट में ऐसे आदेश को चुनौती भी दे सकेगा, अन्यथा रिवीजन आवेदन कर सकेगा।

    7. और अंतिम, मजिस्ट्रेट का विवेकाधिकार इन सब नियमों पर अधिभावी होगा।

    हम इन निर्णित बिन्दुओं को एक उदाहरण से समझ सकते हैं, जैसे– X ने अपनी शिकायत में अपने कार्यालय का पता गलत बता दिया। इसके लिए X संशोधन का आवेदन करता है। कोर्ट द्वारा यह मंजूर भी किया जा सकेगा क्योंकि यह अभियुक्त के हितों पर विपरित प्रभाव नहीं डालेगा। हालांकि यह एक औपचारिक त्रुटि मात्र है जिसे ठीक करने से मामले के तथ्यों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। परन्तु यदि, यही कार्यालय का पता घटना के मुख्य तथ्यों में से एक हों तब अवश्य ही ऐसी तथ्यों को परिवर्तित करने की आज्ञा नहीं दी जा सकेगी। और यदि आज्ञा दे दी जाती है तो, यह प्रत्यक्ष: अभियुक्त के हितों पर प्रभाव डालेगी। इस आधार पर अभियुक्त इसे उच्चतर न्यायालय में चुनौती दे सकेगा।

    उपरोक्त निर्णय को अरुण पुरी बनाम राज्य,CRL 2013,MC.No.3492, के मामले में ध्यान में रखते हुए दिल्ली हाई कोर्ट तय किया की यदि निचली कोर्ट ने संज्ञान ले लिया है और आगे की कार्यवाही शुरू हो चुकी है तब धारा 482 CRPC में आवेदन पोषणीय नहीं है। अर्थात् ऐसी चालू कार्यवाही को रोकने का आदेश न्याय हेतु अनुचित होगा और ऐसा किया जाना अभियुक्त के अधिकारों पर विपरीत प्रभाव डालने जैसा है। इसकारण ऐसी याचिका ख़ारिज किए जाने योग्य है।

    उपरोक्त न्यायिक निर्णयों से हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यदि आवेदन सद्भावनापूर्ण किया हो, त्रुटि फॉर्मल नेचर की रही हो या अभियुक्त के हित के विरुद्ध न हो और ऐसी मांग कोर्ट के निचले स्तर पर ही, सर्वप्रथम अवसर पर युक्तियुत कारणों के साथ की गई हो तब; उस दशा में कोर्ट द्वारा ऐसा आवेदन स्वीकार किया जा सकता है।

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